फोटो गैलरी

Hindi Newsअवध के अक्खड़ का ठुकराया जाना

अवध के अक्खड़ का ठुकराया जाना

मेरे पिताजी की खासियत यह रही कि अव्वल तो वह कभी डांटते-मारते नहीं थे। एकाध बार उन्होंने पिटाई की भी, तो बाद में आकर माफी मांगी। उन्होंने बताया भी कि दरअसल वह किसी और बात से परेशान थे और उसी नाराजगी...

अवध के अक्खड़ का ठुकराया जाना
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 09 Jul 2016 10:44 PM
ऐप पर पढ़ें

मेरे पिताजी की खासियत यह रही कि अव्वल तो वह कभी डांटते-मारते नहीं थे। एकाध बार उन्होंने पिटाई की भी, तो बाद में आकर माफी मांगी। उन्होंने बताया भी कि दरअसल वह किसी और बात से परेशान थे और उसी नाराजगी में उन्होंने मेरी पिटाई कर दी। एक बार पिटाई से मैं इतना गुस्सा हो गया कि मैंने पिताजी से करीब एक महीने तक बात नहीं की। हम भाई-बहनों में झगड़ा होता रहता था, मारपीट भी होती थी... लेकिन मां-पिताजी से पिटाई के मौके न के बराबर आते थे। जैसे ही पता चलता था कि पिताजी या मां किसी बात पर गुस्सा हैं, तो हम भागकर घर के किसी बुजुर्ग के पास छिप जाते। उसके बाद तो मां-पिताजी को पिटाई का प्लान कैंसिल करना पड़ता था। हम अपनी दादी की एक सहेली से बहुत डरते थे। वैसे तो उन्हें दादी का ख्याल रखने और काम-काज में उनकी मदद के लिए रखा गया था, लेकिन वह दादी की सहेली जैसी थीं। उनका नाम था- पाला। वह बीड़ी पीती थीं। उनसे हमको बहुत डर लगता था। स्कूल की यादें कोई बहुत खास नहीं हैं। हां, इतना जरूर याद है कि मैं कुरसी-टेबल पर ज्यादा देर तक बैठ नहीं पाता था। थोड़ा विद्रोही किस्म का स्वभाव था मेरा। वह स्वभाव आज भी मेरे अंदर कायम है। मुझे कोई टोक दे, तो मैं ‘फ्रीज’ हो जाता हूं।

मुझे लगता है कि लखनऊ की तमीज को लेकर लोगों की राय थोड़ी गलत है। बात सिर्फ इतनी है कि लखनऊ के लोग बाकी जगहों के मुकाबले थोड़े तमीज वाले होते हैं, वरना अक्खड़ वे भी कम नहीं होते। अवध की वह अकड़, अक्खड़ता मेरे अंदर भी थी। उस समय के लखनऊ के बारे में मैं यह जरूर कह सकता हूं कि वहां हिंदू-मुसलमान इस कदर साथ में थे कि किसी को ‘सांप्रदायिकता’ और ‘सांप्रदायिक’ जैसे शब्दों से कोई लेना-देना तक नहीं था। घर पर आए दिन इस तरह की बहसें हुआ करती थीं, राजनीतिक बहस, धार्मिक बहस, लेकिन कभी उन बहसों से माहौल खराब नहीं होता था। कई बार मुझे स्कूल का माहौल इसलिए थोड़ा ‘रिलीफ’ वाला लगता, क्योंकि वहां पढ़ाई-लिखाई की ही बातें हुआ करती थीं।

थोड़े बड़े होने पर हम लोग सागर चले गए। मेरे पिताजी वहां के विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे। जिंदगी का वह समय किसी शहर में बीतने की बजाय विश्वविद्यालय कैंपस में बीता। वहां हम लोगों को हर तरह की सुविधा थी। पिताजी विभागाध्यक्ष थे। जिस अक्खड़ता और अकड़ की बात मैं कह रहा था, वह वहां भी हमारे पास थी। जब मन करता था, हम लाइब्रेरी जा सकते थे। वहां ‘फिक्शन’ का ‘सेक्शन’ मेरा पसंदीदा था। देर रात तक वहीं बैठकर मैं किस्से-कहानी पढ़ता रहता था। फणीश्वर नाथ रेणु, रांगेय राघव, और गैब्रियल गार्सिया मार्खेज से लेकर गुलशन नंदा तक तमाम लोगों की किताबें पढ़ीं। पढ़ने का कोई ‘सेट पैटर्न’ नहीं था, बस जो किताब अच्छी लग गई, उसे उठाया और पढ़ना शुरू कर दिया। लाइब्रेरी के अलावा जब मन में आता था, मैं वहीं कैंपस में बैडमिंटन खेलने चला जाता था। नाटकों में मन लगता ही था, इसलिए जब रिहर्सल की जरूरत होती थी, तो वह भी कैंपस में हो जाती थी। 1970 के दशक की शुरुआत में हम लोगों ने शेक्सपीयर का मैकबेथ नाटक पढ़ा और खेला था। एक बार बंसी कौल भी हमारे विश्वविद्यालय आए थे। उन्होंने थिएटर की वर्कशॉप की थी। मैं भी उस वर्कशॉप का हिस्सा था।

कुछ साल बाद पढ़ाई के लिए मैं दिल्ली आ गया। यहां मैंने साइकोलॉजी की पढ़ाई की। असल में मैं ‘क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट’ बनना चाहता था, पर जाने कहां से थिएटर में मन रमता चला गया। इसका एक कारण निश्चित तौर पर हमारे परिवार का माहौल था। घर के बड़े-बूढ़े जब बात करते, तो बात ही ऐसी होती थी। हर कुछ मिनट पर कोई न कोई शख्स शेर सुनाता। गालिब, मजाज, कैफी, फैज, जोश, दाग, फिराक जैसे बड़े शायरों के कलाम जैसे कान में मंत्र की तरह फूंके गए थे। घर में कभी-कभार इस बात पर भी बहस छिड़ जाती थी कि गालिब बेहतर या मीर और फैज बड़े कि फिराक? इसलिए हम जब इन शायरों को सुन रहे थे या फिर जब बाद में इन सभी को पढ़ा, तो ऐसा नहीं था कि यह सोचकर पढ़ा हो कि हम कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। किसी बहुत बड़े शायर को पढ़ रहे हैं, बल्कि यह सब बस जिंदगी के हिस्से की तरह होता चला गया। उन दिनों दिल्ली में मैं थिएटर में भी काफी ‘एक्टिव’ था। आए दिन नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के चक्कर काटता रहता था, लेकिन जब उसमें एडमिशन लेने की कोशिश में गया, तो मुझे निराशा हाथ लगी। मुझसे कहा गया कि मैं एनएसडी के लायक नहीं हूं।
(जारी...)

 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें