बड़े भाई ने मुझे बड़ा बना दिया
भैंस चराने में बहुत मन लगता था मेरा, क्योंकि भैंसें चरती थीं गांव की दूसरी भैंसों के साथ और इस दौरान हम बच्चे बगीचे में तरह-तरह के खेल खेलते थे। वे सारे खेल आज के बच्चों के लिए सपना हैं। खेलने के...
भैंस चराने में बहुत मन लगता था मेरा, क्योंकि भैंसें चरती थीं गांव की दूसरी भैंसों के साथ और इस दौरान हम बच्चे बगीचे में तरह-तरह के खेल खेलते थे। वे सारे खेल आज के बच्चों के लिए सपना हैं। खेलने के पीछे पढ़ाई का आकर्षण कम होना था। मुझे गणित नहीं आता था, सो मिडिल में मैं फेल भी हो गया।
मेरे जन्म (एक जनवरी,1937) से छह महीने पहले परिवार में एक बच्चा पैदा हुआ था, जिसका नाम बनारसी रखा गया। इसी की कड़ी में मेरा नाम काशी हुआ। मेरा गांव जीयनपुर बनारस से 40 किलोमीटर दूर मौजूद है। पहले यह वाराणसी जिले में था, अब चंदौली में है। कहने को गांव मगर तब पुरवा ही था। बहुत ही छोटा। जैसे किसी गांव का परिशिष्ट हो। वहां स्कूल जाने वाले बच्चों को सिखाया जाता था कि स्कूल या मेले में गुम हो जाओ और कोई गांव का नाम पूछे, तो उसे आवाजापुर बताओ। आवाजापुर बड़ा गांव था। जीयनपुर में स्कूल नहीं, दवाखाना नहीं, न डाकखाना और न बाजार था। बाजार के लिए पांच किलोमीटर दूर कमालपुर या धानापुर जाना पड़ता था। आवाजापुर जीयनपुर से एक किलोमीटर पश्चिम में था। जीयनपुर के बच्चे मिडिल तक आवाजापुर में ही पढ़ते थे। गांव में अक्षर ज्ञान कुछ लोगों को रहा होगा, पर शिक्षित कहे जाने वाले मेरे पिताजी ही थे। प्राइमरी पास और प्राइमरी स्कूल के मास्टर। ठाकुरों के आठ घर थे। मेरे पिताजी तीन भाई थे। दो के तीन-तीन बेटे और सबसे छोटे का एक बेटा है। लगभग 18 लोगों का परिवार था। खेती सामूहिक थी। मास्टर होने के कारण पिता नागर सिंह का गांव में बहुत सम्मान था। वह चुप रहने वाले इंसान थे। उन्हें खेत में काम करते हुए मैंने कभी नहीं देखा। गांव में किसी से नहीं बोलते थे। शायद कोई दोस्त ही नहीं था। उन्हें हंसते-मुस्कराते कम ही लोगों ने देखा होगा। उनके इस स्वभाव का खामियाजा गांव में रहने वाले हम बेटों को भुगतना पड़ता था।
बचपन ही नहीं, मेरी किशोरावस्था का ज्यादातर हिस्सा भी गांव में ही बीता। आवाजापुर में पढ़ना शुरू किया, तब से लेकर हाईस्कूल तक हल-बैल, खेत-बारी और घर के दूसरे कामों में जुटा रहा। बुआई, कटाई, गन्ने की पेराई, मशीन से चारा कटाई जैसे जितने काम हो सकते हैं, सारे दूसरे लड़कों के साथ करता था। फसलें निर्भर करती थीं सिर्फ बारिश पर। नहर थी नहीं। गेहूं नहीं होता था। बाजरा, सावां, जोन्हरी, धान, जौ, गन्ना, चना यही फसलें थीं। यों तो हम संपन्न माने जाते थे, लेकिन संपन्नता इतनी थी कि कभी-कभार पीने को आधा गिलास मट्ठा मिल जाया करता, और हम खुश हो लेते थे।
छोटा गांव, लेकिन बड़ा ही खूबसूरत। पूर्वी सीमा पर एक कतार में ताड़ के 10-12 पेड़ थे। उसके आगे उत्तरी सीमा को नापता हुआ बड़ा-सा पोखर। पोखर के एक तरफ बांसों का वन, बंसवार और दूसरी तरफ, आम का सघन बगीचा। भैंस चराने में बहुत मन लगता था मेरा, क्योंकि भैंसें चरती थीं गांव की दूसरी भैंसों के साथ और इस दौरान हम बच्चे बगीचे में तरह-तरह के खेल खेलते थे। वे सारे खेल आज के बच्चों के लिए सपना हैं। खेलने के पीछे पढ़ाई का आकर्षण कम होना था। हालांकि, आवाजापुर के स्कूल में तीन-चार कमरे थे, लेकिन उनका इस्तेमाल तभी होता था, जब डिप्टी साहब आते। बाकी ज्यादातर हम बच्चे पेड़ के नीचे ही पढ़ते थे। उन दिनों जिसका गणित अच्छा होता था, वही तेज माना जाता था। मुझे गणित एकदम नहीं आता था, सो स्कूल में मुझे कभी अच्छे विद्यार्थी के रूप में नहीं जाना गया। इसी कारण मिडिल में मैं फेल भी हो गया। बावजूद इसके गांव से एक किलोमीटर दूर शहीद गांव के अमर शहीद विद्यामंदिर में मेरा नाम लिखवाया गया, लेकिन गणित ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा। अब अगर मैं गणित में फेल हो गया होता, तो या तो आज घर पर खेती कर रहा होता या किसी प्राइमरी स्कूल की मास्टरी। अच्छी बात यह थी कि गणित के सिवा दूसरे विषयों में मैं सबसे अच्छा था। परीक्षा के समय व्यवस्थापक को पता चला, तो उन्होंने गणित में मेरे पास हो जाने की व्यवस्था की। मैं शायद वहां का पहला विद्यार्थी था, जिसे प्रथम श्रेणी मिली। आगे पढ़ने के लिए मेरे बड़े भाई नामवर सिंह मुझे बनारस ले आए।
इस जनपद में हम भाइयों का प्रेम एक उदाहरण की तरह है, जो अब नहीं देखा जाता। बड़े भाई नामवर के बेटे का जन्म हो चुका था और वह लगभग पांच साल का था। वह उसे पढ़ाने के बहाने मुझे गांव पर छोड़ सकते थे और उसके साथ पत्नी को ला सकते थे। लेकिन नामवर जी ने बेटे की जगह अपने भाई की पढ़ाई को तरजीह दी। इसी तरह, मेरे मंझले भाई रामजी सिंह उस साल इंटरमीडिएट पास कर चुके थे, जिस साल मैंने हाईस्कूल किया था। उन दिनों बनारस छोड़कर पूरे जनपद में कहीं कोई डिग्री कॉलेज नहीं था। भैया चाहते, तो जिद कर सकते थे कि काशी अभी दो साल गांव में पढ़ सकता है। उसको छोड़ दिया जाए और मुझे पढ़ने के लिए ले जाया जाए, लेकिन उन्होंने बड़े भाई से कहा कि मैं प्राइवेट बीए कर लूंगा। इसको आप ले जाएं।