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सड़क दुर्घटना ने रोक दी जिंदगी

उस दिन को मैं जिंदगी भर नहीं भूल सकती। तारीख थी 24 अगस्त, 1974। जर्मनी के बैरुथ में मैं अंतरराष्ट्रीय युवा महोत्सव के विद्यार्थियों को भरतनाट्यम का प्रशिक्षण दे रही थी। मैं अपने मंगेतर जॉर्ज...

सड़क दुर्घटना ने रोक दी जिंदगी
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 04 Feb 2017 09:21 PM
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उस दिन को मैं जिंदगी भर नहीं भूल सकती। तारीख थी 24 अगस्त, 1974। जर्मनी के बैरुथ में मैं अंतरराष्ट्रीय युवा महोत्सव के विद्यार्थियों को भरतनाट्यम का प्रशिक्षण दे रही थी। मैं अपने मंगेतर जॉर्ज लैश्नर के साथ कार से जा रही थी। रात का वक्त था। सड़क बारिश से भीगी हुई थी। हम जिस ‘बीटल फॉक्सवैगन’ में थे, उसमें डिक्की आगे होती थी और इंजन पीछे, यानी कार आगे से हल्की थी। उन दिनों सीट बेल्ट नहीं होती थी। रास्ता बिल्कुल सुनसान था। कार की रफ्तार सौ किलोमीटर प्रति घंटे के करीब रही होगी। अचानक लैश्नर को कार के सामने एक हिरन दिखाई दिया। उन्होंने उसे बचाने के लिए पूरी ताकत से ब्रेक लगाई। हमारी कार ने तीन बार गुलाटियां खाई और पलट गई। मैं कार से बाहर करीब 12-15 फीट दूर जाकर गिरी। उस वक्त मैं हिलने-डुलने या चिल्लाने तक के लायक नहीं थी। 

कुछ देर बाद लोगों ने मेरे मुंह पर पानी छिड़का। मुझे बहुत ठंड लग रही थी।  मैंने बुदबुदाते हुए कहा कि मुझे कुछ ओढ़ने के लिए चाहिए। इतनी देर में पुलिस आ गई। थोड़ी देर बाद एंबुलेंस आई। मेल नर्सेस ने उठाया। मुझे अस्पताल पहुंचाया गया। वह म्यूनिसिपल अस्पताल था। सबसे पहले मुझे दर्द कम करने के लिए कुछ इंजेक्शन दिए गए और इसके बाद तुरंत एक्स-रे के लिए भेज दिया गया। मेरे एक्स-रे से पता चला कि चोट कितनी गंभीर थी। मेरी रीढ़ की हड्डी, गले के पास की हड्िडयां और चार पसलियां टूट चुकी थीं। इनके अलावा और भी कई चोटें थीं। रीढ़ की हड्डी की बारहवीं कड़ी टूटकर चकनाचूर हो गई थी। उस बुरे वक्त में राहत की खबर बस इतनी थी कि रीढ़ की हड्िडयों को आपस में जोड़ने वाला सूत्र बच गया था। चोट की गंभीरता को देखते हुए उस अस्पताल के डॉक्टरों ने कहा कि मुझे यूनिवर्सिटी सर्जिकल क्लीनिक ले जाया जाए, क्योंकि वहां इलाज का इंतजाम बेहतर था। मेरा एक्सीडेंट पेग्नीत्स शहर में हुआ था, जबकि यूनिवर्सिटी सर्जिकल क्लीनिक दूसरे शहर एरलांगन में थी।   

लैश्नर मुझे वहां से लेकर यूनिवर्सिटी सर्जिकल क्लीनिक गए। मैं होश में तो थी, मगर बेतहाशा दर्द में थी। रास्ते में उन्होंने बताया कि एक्सीडेंट के बाद वह सीट और स्टीयरिंग के बीच फंस गए थे। उन्होंने पहले मुझे कार के भीतर ढूंढ़ा, लेकिन वहां मैं नहीं दिखाई दी, तो वह बहुत घबरा गए थे। तभी एक कार वहां आकर रुकी और फिर सबने मिलकर मुझे ढूंढ़ा। मुझे ढूंढ़ने के लिए टॉर्च की रोशनी का सहारा लिया गया।  

एरलांगन में यूनिवर्सिटी सर्जिकल क्लीनिक में तीन दिनों तक डॉक्टरों ने मुझे ‘फोम रबर’ पर रखा और इलाज की प्रक्रिया के बारे में वे सलाह-मशविरा करते रहे। उनके लिए ‘स्पाइनल कॉर्ड’ से ज्यादा बड़ी मुसीबत थी खून का जमना। मेरी रीढ़ की हड्डी के पास बहुत सा खून जम गया था, जो रीढ़ पर दबाव बना रहा था। डॉक्टरों का मानना था कि अगर इसका तुरंत हल नहीं निकाला गया, तो मुझे ‘पैरालिसिस’ हो जाएगा। मेरे शरीर की तमाम मांसपेशियों में हरकत खत्म हो जाएगी। फिर उन्होंने तय किया कि वे मेरा ऑपरेशन करेंगे। ऑपरेशन के बाद मेरी रीढ़ की हड्डी को स्टील के रॉड से टिका दिया जाएगा, ताकि रीढ़ की हड्डी को सहारा मिल सके। ऐसा करके वे मुझे ‘पैरालिसिस’ से बचा सकते थे। मैं दवाई की वजह से हल्की बेहोशी में थी, पर ऑपरेशन की बात सुनते ही मैंने इशारे से मना किया। लैश्नर ने मेरे इशारे को समझ लिया। उसने डॉक्टरों से गुजारिश की कि ऑपरेशन को आखिरी विकल्प की तरह देखा जाए। डॉक्टरों ने भी लैश्नर की बात मान ली। बगैर ऑपरेशन मेरा इलाज शुरू किया गया। ऊपर वाले की दया से मेरे शरीर की सूजन अगले दो दिनों में कम हो गई।

उसके बाद का इलाज आज भी याद करूं, तो सिहरन सी होती है। शरीर की सूजन कम होने के बाद मुझे प्लास्टर वाले कमरे में ले जाया गया। मुझे पट्टों की मदद से उलटा लटकाया गया। मेरी ठुड्डी के नीचे एक टेबल थी और दूसरी टेबल घुटनों के नीचे। शरीर के बीच का पूरा हिस्सा हवा में लटका हुआ था। इसके बाद डॉक्टर हवा में लटके उस हिस्से को दबा-दबाकर इस बात की जांच करते थे कि दर्द कहां-कहां हो रहा है। फिर मेरे पूरे शरीर को प्लास्टर के घोल में डूबी रूई की कई परतों में लपेट दिया गया। बेतहाशा दर्द हो रहा था। डॉक्टरों ने इस प्लास्टर को बांधने के दौरान अगल-बगल रूई की मोटी परतें लगा दी थीं। ऐसा इसलिए कि दर्द की हालत में अगर मैं हिलूं, तो नुकसान न हो। पूरी प्रक्रिया में कोई एक घंटे का वक्त लगा होगा। मैं दर्द में छटपटाती हुई डॉक्टरों को यह सब करते सिर्फ देख रही थी। जिस प्लास्टर कास्ट में मेरे आधे शरीर को बांध दिया गया था, वह कम से कम चार किलो का था। एक घंटे के बाद मुझे उस कमरे से बाहर निकाला गया। वहां से बाहर आने के बाद डॉक्टरों ने लैश्नर से सिर्फ इतना कहा कि सोनल दो वर्ष के बाद ही ठीक से चल-फिर सकेंगी, लेकिन नृत्य का ख्याल छोड़ना पड़ेगा।
(जारी...)

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