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संगीत में साहित्य अच्छा होना चाहिए

हम अपने को अब भी बूढ़ा नहीं मानते हैं। मैं मानती हूं कि हिम्मत से काम करते रहना चाहिए, खास तौर पर संगीत में। आज भी हम स्टेज पर खुद से चढ़ते हैं, खुद से बैठते हैं। किसी का सहारा नहीं लेते। पूरी...

संगीत में साहित्य अच्छा होना चाहिए
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 16 Apr 2016 09:44 PM
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हम अपने को अब भी बूढ़ा नहीं मानते हैं। मैं मानती हूं कि हिम्मत से काम करते रहना चाहिए, खास तौर पर संगीत में। आज भी हम स्टेज पर खुद से चढ़ते हैं, खुद से बैठते हैं। किसी का सहारा नहीं लेते। पूरी दिनचर्या का पालन करते हैं। इस उम्र में मेरा सबसे बड़ा सम्मान मेरे चाहने वालों का प्यार है। मैं अपने से छोटी उम्र लोगों के दिल में हूं। मैं उम्र में अपने से छोटे, चाहे वह गायक हो, नर्तक हो, वादक हो, साहित्यकार हो, सबका प्यार पाती हूं। लेकिन अपने पूरे जीवन में मैंने कभी नहीं सोचा कि मेरा नाम अब बहुत बड़ा हो गया है। बस सुनो और गाओ। जो गुरु ने सिखाया था, बस उसी की साधना करते रहो। हां, इस बात की फिक्र हमेशा रही कि लोग हमसे क्या सुनना चाहते हैं? सब प्रभु की कृपा है। सब बड़े कलाकारों का आशीर्वाद है। हमारे पूवर्जों का आशीर्वाद है। आज भी कभी यह दिमाग में नहीं आता कि हम कोई बहुत बड़े कलाकार हो गए है। कभी खुद पर गर्व नहीं किया। जो है, सब उसी का है।

हमारे देश में आज बहुत सारी ऐसी चीजें हैं, जो उस्ताद जी लोगों के साथ चली गईं। वे अब सुनाई नहीं देतीं। हमें हमारे गुरुओं ने कई ऐसी चीजें बताईं, जो कोई नहीं जानता। किसी ने नहीं सुनी। लेकिन उन चीजों को बताने के साथ-साथ गुरु जनों ने कसम भी दी कि जब कोई योग्य शिष्य मिले, सच्चा शिष्य मिले, जो उस कला को बेचे नहीं, तो उसे ही यह सीखाना। ये वे चीजें हैं, जो हिन्दुस्तान में अब कुछ ही लोग जानते हैं। राजन-साजन मिश्र हमारे बच्चे की तरह हैं। उनको पता   है कि अप्पा के पास क्या खजाना है? वे कहते हैं कि अप्पा आप बाबुल मोरा गाती हैं, तो हम दोनों भाई रोने लगते हैं। छंद-प्रबंध, कौल-कलबाना, गुल-नख्श, जैसी चीजें अब कहां सुनने को मिलती हैं? आज के कलाकार तराना गा देंगे, दादरा गा देंगे, भजन गा देंगे। मगर बनारस के जैसी ठुमरी या दादरा भी हर कोई नहीं गा सकता है। बनारस का रंग ही अलग है। हम जब छोटे थे, तब कथा वाचकों को खूब सुनते थे। वे बताते थे कि बनारस भगवान शिव और पार्वती को इतना पसंद आ गया कि वे यहीं बस गए। इसीलिए बनारस की बात ही अलग है।

आज मुझे 66 साल हो गए गाते हुए। मैं हर चीज के दो मायने देखती हूं। बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए  के भी दो रूप हैं। लड़की रोती जा रही है। चार कहार मिल डोली उठाएं, उसमें भी चार कहार हैं, अर्थी को भी चार लोग ही ढोते हैं। लड़की के नजरिये से सोचिए, तो जाने पर वह कितना रोती है कि उसका घर छूट रहा है, दूसरे मायने में सोचिए कि जब हम संसार से जाते हैं, तो लोग कितना रोते हैं। ये तो गायकी के वक्त भावना की बात है, जब जिधर चली जाए। फिर हम किसी की नहीं सोचते।

सिर्फ अपने गुरु के बारे में सोचते हैं और जिन्होंने हमें इस धरती पर भेजा, उसके बारे में सोचते हैं। मैं मानती हूं कि जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। अगर आजकल के बच्चे फ्यूजन करते हैं, बैंड बजाते हैं, उछल-कूदकर गाते हैं... तो मूल रूप से वे गा ही रहे हैं। बस उनको शब्दों का ध्यान रखना चाहिए। शब्दों को अच्छा करें। अच्छे स्वर दें, ताकि विचार मे गंदगी न आए। अगर इस बात का ध्यान नहीं रखा जाएगा, तो उन्हें कौन पूछेगा? कोई नाचकर गाए, कूद-कूदकर गाए, हमें दिक्कत नहीं है, पर गाओ ऐसा, जिसे सुनकर मन चरित्रवान बने। आने वाली पीढ़ी चरित्रवान बने।

मेरा मानना है कि साहित्य और संगीत ईश्वर द्वारा ही गढ़े गए हैं। दोनों को समान रूप से रखना चाहिए। ऐसा नहीं कि जो भी शब्द आ गया, उसे गा दिया। पहले के गुरु लोग बहुत पढ़े-लिखे नहीं होते थे। कुछ ऐसी रचनाएं हो सकती हैं, जो शायद उनके मन में आईं और उन्होंने बना दी, लेकिन आज की पीढ़ी तो उसे ठीक कर सकती है। आज के लोग ज्यादा पढ़े-लिखे हैं, उनको उन रचनाओं में अगर सुधार की जरूरत है, तो करनी चाहिए। मैं मानती हूं कि पिछले सौ साल में जमाना बहुत बदल गया है।

हमने अपनी आंखों से देखा है कि एक रुपये में आठ किलो चावल, 16 किलो गेहूं मिलता था, आज एक रुपये की कोई कीमत ही नहीं है। माहौल बदल गया। खान-पान बदल गया। दूध-दही बदल गया। आज पैसा कमाना लोगों की जरूरत है, लेकिन बस यह समझिए कि जैसे आप रोज-रोज बर्गर खाकर जिंदा नहीं रह सकते, क्योंकि जिंदा रहने के लिए चावल-दाल खाना पड़ता है, जिसे खाकर हम पले-बढ़े हैं। वैसे ही, भले ही आज हजार जगहों के साहित्य आ गए हों, हजार जगहों के संगीत आ गए हों, लेकिन हमें अपनी संस्कृति नहीं छोड़नी चाहिए। उनकी अच्छी चीजें ले लीजिए, लेकिन अपने संस्कार, अपनी संस्कृति को कभी मत छोडि़ए।
 

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