फोटो गैलरी

Hindi Newsऐसी लागी लगन मीरा हो गई मगन

ऐसी लागी लगन मीरा हो गई मगन

साल 1978 में मैं अमेरिका गया हुआ था। वहां हमारे एक मित्र रहा करते थे। उनसे मुलाकात के दौरान ही तय हुआ कि दोपहर का खाना हम साथ खाएंगे। उनकी पत्नी थोड़ा-बहुत गाती भी थीं। हमलोग खाना खा ही रहे थे कि...

ऐसी लागी लगन मीरा हो गई मगन
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 29 Oct 2016 08:52 PM
ऐप पर पढ़ें

साल 1978 में मैं अमेरिका गया हुआ था। वहां हमारे एक मित्र रहा करते थे। उनसे मुलाकात के दौरान ही तय हुआ कि दोपहर का खाना हम साथ खाएंगे। उनकी पत्नी थोड़ा-बहुत गाती भी थीं। हमलोग खाना खा ही रहे थे कि दोस्त की पत्नी ने मुझे एक पतली-सी किताब लाकर दी। मैंने उस किताब के पन्नों को खाना खाते-खाते पलटना शुरू किया। अचानक एक पेज पर मेरी नजर रुक गई। उस पर लिखा था- ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन।  इन लाइनों में जाने क्या जादू था कि मैं बार-बार पढ़ता रहा। इन्हें पुणे की इंदिरा देवी ने लिखा था। खाना खत्म करने के बाद मैंने दोस्त की पत्नी से कहा कि जरा मुझे हारमोनियम दीजिए। मैंने हारमोनियम पर सीधा इन पंक्तियों को गाना शुरू किया। बगैर रुके, बगैर कुछ सोचे गाता चला गया- ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन, यानी खाना खाते समय ही इस भजन की धुन तैयार हो चुकी थी। लेकिन पिछले चार दशक में इस एक भजन से मुझे जितना नाम मिला, वह यकीन से परे है।

नाम पीछे हो गया और यह भजन आगे आ गया। कई बार तो ऐसा भी होता है कि जब लोग मुझसे आकर मिलने में संकोच कर रहे होते हैं, तो बगल से गुनगुनाते हुए निकल जाते हैं- ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन।  वे यह बताना चाहते हैं कि उन्होंने मुझे पहचान तो लिया है, लेकिन मिलने में संकोच कर रहे हैं। इस एक भजन ने मुझे व्यापक लोकप्रियता दी। ज्यादातर मौकों पर मैं आज भी इसी भजन को गाकर अपने कार्यक्रम की शुरुआत करता हूं। मेरे लिए यह आसान भी होता है- यानी एक भजन गाकर शुरुआत से ही पूरी ‘पब्लिक’ को अपने वश में कर लेना। लोग जाने कहां-कहां से मुझे सुनने आते हैं, उन सभी के दिल में यह बात रहती है कि ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन  तो सुनना ही सुनना है। फिर क्यों न यह रसगुल्ला उनको पहले ही खिला दिया जाए। मैं वह रसगुल्ला उनको पहले ही खिला देता हूं, उसके बाद वे मेरे वश में आ जाते हैं। यह इस भजन की खूबसूरती है। मेरे कार्यक्रमों की सफलता का राज भी दरअसल यही है कि मैं शुरुआत से ही श्रोताओं को अपना मित्र बना लेता हूं।

हाल ही में चित्तौड़गढ़ में ‘मीरा महोत्सव’ नाम से कार्यक्रम था। मीरा दरअसल वहीं की थीं। वहां के लोगों में कृष्ण को लेकर, मीरा को लेकर बड़ा सम्मान है। मुझे भी वहां पर गाना था। मेरे कार्यक्रम को सुनने के लिए जमकर भीड़ इकट्ठा हुई। कुरसियां कम पड़ गईं। मौसम में हल्की-हल्की ठंड भी थी। मैंने लोगों से कहा कि वे अगर चाहें, तो आराम से नीचे जमीन पर बैठ जाएं। लेकिन जमीन हल्की गीली थी, इसलिए कोई बैठा नहीं। लोग खड़े रहे। आयोजकों ने कुछ और कुरसियों का इंतजाम किया, फिर भी काफी लोग खड़े ही थे।

बड़ी देर तक लोगों ने प्यार से भजनों को सुना। देश-विदेश में कई बार लोगों ने मुझसे पूछा कि क्या इस भजन की कोई और धुन बन सकती है। मैंने कहा- नहीं। कुछ गीत ऐसे होते हैं, जिनकी धुन बदली ही नहीं जा सकती। कुछ और ऐसी रचनाएं हैं। मसलन, पायो जी मैंने राम रतन धन पायो  या ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया।  इनकी धुनें भी नहीं बदली जा सकती हैं। कुछ भजन भी ऐसे ही होते हैं- जग में सुंदर हैं दो नाम, रंग दे चुनरिया, मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो।  सवाल यह है कि ये धुनें बनती कैसे हैं? इन्हें किसी और तरह से क्यों नहीं बनाया जा सकता? मेरे पास इसका जवाब है।

दरअसल, कोई कवि जब ऐसी रचनाओं को रचता है, तो वह खुद इनको गुनगुनाकर लिखता है। बस वही धुन हमें पकड़नी होती है। उस धुन को पकड़ने का तरीका भी एक ही है, जब हम उस कविता में डूब जाते हैं, तो वह धुन खुद-ब-खुद समझ आ जाती है। मैं आज भी जब कोई नई धुन बनाता हूं, तो पहले उस रचना को कम से कम 20-25 बार पढ़ता हूं। 20-25 बार पढ़ने के बाद मैं उस रचना के कवि के ‘वाइब्रेशन’ तक पहुंचता हूं। मुझे समझ में आ जाता है कि उस गीत को रचते वक्त कवि कैसे गुनगुना रहा था? मुझे किसी भी रचना की धुन बनाने में दो मिनट लगते हैं, लेकिन उस रचना को पढ़ने में आधा घंटा तक लग जाता है, क्योंकि मैं उस रचना को कई-कई बार पढ़ता हूं। ऐसी लागी लगन मीरा हो गई मगन भी मैंने खाना खाते-खाते कम से कम 20-25 बार पढ़ा था।

उसके बाद धुन अपने आप तैयार होकर सामने आ जाती है कि अब बस मुझे गा लो। इसके उलट जो गाने बहुत सोच-सोचकर बनाए जाते हैं, वे अपनी मौलिकता खो देते हैं। बहरहाल, इस एक भजन ने मुझे पूरी दुनिया में ख्याति दी। आज तक कम से कम तीन हजार बार इसे गा चुका हूं, लेकिन अब भी इसमें नयापन दिखता है। 
(जारी...)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें