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कुछ हो जाए फूहड़ नहीं गाऊंगा

मेरा गायकी का सफर अब उस मुकाम पर है, जहां मैं तमाम कार्यक्रमों में बच्चों की गायकी को जज भी करता हूं। आप मुझे टीवी पर ऐसे कार्यक्रमों में देखते भी होंगे। ऐसे कार्यक्रमों में कुछ बच्चे तो बहुत कमाल के...

कुछ हो जाए फूहड़ नहीं गाऊंगा
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 25 Jul 2015 08:05 PM
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मेरा गायकी का सफर अब उस मुकाम पर है, जहां मैं तमाम कार्यक्रमों में बच्चों की गायकी को जज भी करता हूं। आप मुझे टीवी पर ऐसे कार्यक्रमों में देखते भी होंगे। ऐसे कार्यक्रमों में कुछ बच्चे तो बहुत कमाल के आते हैं, उनको देखकर, उनसे मिलकर, उन्हें सुनकर बड़ी तसल्ली होती है कि भारतीय संगीत सही दिशा में बढ़ रहा है। लेकिन कई बच्चे ऐसे भी आते हैं, जिनसे पूछो कि बेटा संगीतकार बनकर क्या करना चाहते हो? तो जवाब मिलता है- मैं बड़ा होकर अपने पापा के लिए बंगला बनाना चाहता हूं या मां के लिए कार खरीदना चाहता हूं। ऐसी चाहतों में कोई बुराई नहीं है, लेकिन असल उद्देश्य बंगला खरीदना या कार खरीदने की बजाय कलाकार बनने का होना चाहिए। इसके लिए तपस्वी बनना पड़ता है। अच्छा और सच्चा कलाकार बनने के बाद अगर बंगला और कार भी आ जाए, तो ठीक है। लेकिन अगर आप संगीत सीखने की शुरुआत से ही कार और बंगले के बारे में सोचेंगे, तो आपको वही करना पड़ेगा या वही गाना पड़ेगा, जो आपको पैसा देने वाला आपसे गाने को कहेगा।

कलाकारों को यह समझना चाहिए कि करियर की शुरुआत से ही अगर चाहत बढ़ेगी, तो उनकी गुणवत्ता कम होगी। आप हमेशा दूसरों से 'इनसिक्योर' रहेंगे। छोटे-छोटे काम की तरफ भागेंगे। कामयाबी 'जंक फूड' जैसा मामला है, जिसमें सब कुछ जल्दी-जल्दी हो जाता है। जल्दी से खाना मिल जाता है, जल्दी से पेट भर जाता है। आज की पीढ़ी में कई लोग ऐसे हैं, जो चाहते हैं कि वैसी ही 'जंक फूड' गायकी से तुरत-फुरत कामयाबी मिल जाए। जल्दी से पैसा मिल जाए, जल्दी से वैभव मिल जाए। यही वजह है कि पिछले कुछ समय में संगीत का स्तर भी गिरा है। ओछी और हल्की चीजों का बाजारीकरण ज्यादा किया गया है। फिल्मों का प्रभाव बहुत तेजी से बढ़ा है, फिल्मों का स्तर, उसका क्राफ्ट, उसके चरित्र, सब पहले के मुकाबले कमजोर हुए हैं, इसीलिए संगीत का स्तर भी पहले से गिरा है। आज फिल्मी गाने या डायलॉग में घटिया शब्द या गालियां डाल देने का मतलब है कि आप 'कंटेपररी' हैं। ऐसे गानों को हर माध्यम से जमकर 'प्रमोट' किया जाता है। ऐसी अवधारणा बनाने की कोशिश की जाती है कि ऐसा ही संगीत वक्त की मांग हैै। ऐसा ही संगीत लोगों को पसंद आता है, जबकि ऐसा है नहीं। हमारे यहां गांव-देहात की शादियों में गालियां गाई जाती हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि पूरी शादी के कार्यक्रम में सिर्फ गालियों को ही 'हाइलाइट' किया जाए। वे एक रस्म के तौर पर गाई जाने वाली गालियां हैं, बस।

यह भी सच है कि गहरा काम करने में कम ही लोग दिलचस्पी दिखा रहे हैं। उन्हें पता है कि गहरा काम करने के बाद उसका कद्रदान ढूंढ़ना मुश्किल है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इन दिनों 'सब-स्टैंडर्ड' चीजों को खूब 'प्रमोट' किया जा रहा है, जाने कैसी-कैसी फिल्में बड़े अंतरराष्ट्रीय महोत्सवों में चली जा रही हैं। हम भी 'ना मामा से अच्छा काना मामा' वाली कहावत की तरह ये सोचकर खुश हो जाते हैं कि चलो, कोई तो हमारी नुमाइंदगी कर रहा है। अब आम लोगों में फिल्मी गायकों का 'क्रेज' भी बहुत तेजी से बदल रहा है। करियर के लिहाज से फिल्मी गायकों का 'स्पैन' बहुत कम हुआ है। एक कलाकार आता है, दो-तीन साल तक उसके गाने सबकी जुबां पर होते हैं, फिर उसकी जगह कोई दूसरा कलाकार ले लेता है, कुछ समय बाद उसकी जगह तीसरा कलाकार। अगर कोई कलाकार अपनी गायकी को संगीत के गहरेपन से जोड़कर रखता है, तो उसे हिलाना मुश्किल है।

इस आपाधापी में अपनी पहचान बनाना मुश्किल है। इसके लिए जरूरी है कि आप जो भी गाएं, उसे समझकर गाएं। गाने से पहले इस बात को खुद से पूछा जाए कि मैं यह गाना क्यों गा रहा हूं? गाने को सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि अवलोकन के लिहाज से गाया जाए। मैं गाना गाते वक्त इन बातों को हमेशा याद रखता हूं। भले ही मैंने प्रत्यक्ष तौर पर सामने बैठकर पंडित भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व जी, जसराज जी या नुसरत साहब से कुछ नहीं सीखा, लेकिन मेरी गायकी में उनका मार्गदर्शन है। मैं किसी कलाकार को मन या दिमाग में रखकर उसके जैसा गाने की कोशिश नहीं करता हूं, क्योंकि मुझे पता है कि बड़े से बड़ा कलाकार का बेटा भी उसकी तरह नहीं गा सकता, तो फिर स्वतंत्र आत्मा और स्वतंत्र विचार के साथ ही गायकी होनी चाहिए। भले ही मैं हर तरह के गाने गाता हूं, लेकिन हमेशा सोच-समझकर। मैं फिल्मी गाने गाता हूं, एल्बम के लिए गाता हूं, जिंगल गाता हूं, सीरियलों के लिए गाता हूं। अपने लिए गाता हूं, दूसरों के लिए भी गाता हूं, लेकिन चाहे कुछ भी हो जाए, कभी फूहड़ चीजें नहीं गाता।

(जारी)

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