प्रथम वचन: सोशल मीडिया का मायाजाल
सोशल मीडिया इंसानी सभ्यता के लंबे-चौड़े इतिहास में अजूबी और अनूठी ताकत के साथ उभरा है। 1990 के दशक तक संसार की ज्यादातर आबादी इस तथ्य से अनजान थी कि उनकी जिंदगियों में एक ऐसी ‘आभासी शक्ति’...
सोशल मीडिया इंसानी सभ्यता के लंबे-चौड़े इतिहास में अजूबी और अनूठी ताकत के साथ उभरा है। 1990 के दशक तक संसार की ज्यादातर आबादी इस तथ्य से अनजान थी कि उनकी जिंदगियों में एक ऐसी ‘आभासी शक्ति’ दखल बना रही है, जो देखते-देखते सब कुछ बदल देगी। हमारे जीवन का अब कोई हिस्सा ऐसा नहीं है, जो ‘सोशल मीडिया’ से अछूता हो।
कुछ उदाहरण। अगर कोई मोटा है और लोग उसका मजाक उड़ाते हैं, तो वह डॉक्टर ढूंढ़ने से पहले सोशल मीडिया की शरण में जाता है। दुबले व्यक्ति को वजन बढ़ाने के लिए भी इसी की दरकार होती है। कहीं बम विस्फोट हो, और उससे बचने के उपाय ढूंढ़ने हों, या फिर तबाही के तरीके जानने हों, सोशल मीडिया हाजिर है। अगर आपको चुनाव जीतना है या फिर अपने प्रतिद्वंद्वी से आगे निकलना है, तो भी सोशल मीडिया की सेवा लेनी होगी। है न चमत्कार! मानवीय सभ्यता के इतिहास में यह पहला मौका है, जब यह सोशल मीडिया नाम का महा-चमत्कार हरेक की सहायता को तत्पर है। यह दोस्त है और दुश्मन भी। वरदान है, तो श्राप भी।
ख्याल रहे। सोशल मीडिया की दीवानगी के इस दौर में आप आंख बंद करके किसी वीडियो या लिखित जानकारी पर भरोसा नहीं कर सकते। ऐसा करना घातक साबित हो सकता है। इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। ‘फेसबुक’ के जरिये अनजान युवक-युवतियों में दोस्ती की ही बात लीजिए। ‘चैट’ करते-करते बहुतों को लगा कि उन्हें अपने अनदेखे साथी से प्रेम हो गया है। बात विवाह तक पहुंची। फिर जो हुआ, वह अप्रत्याशित था! फेसबुकिया साथी दगाबाज निकला। मामला महज आपसी दगाबाजी तक सीमित नहीं है। आतंकवाद, वेश्यावृत्ति, मानव तस्करी, हवाला और न जाने क्या-क्या इस सोशल मीडिया के जरिये हो रहा है। सवाल उठ रहे हैं, यह नया भस्मासुर तो नहीं?
मानव मन के ज्ञानियों का मानना है कि मीडिया के इस नए प्रकार ने लोगों के दिलोदिमाग पर अजीब-सी बेचैनी थोप दी है। लोग ‘सेल्फी’ खींचकर पोस्ट करते हैं। सूरत और सीरत कैसी भी हो, अचानक उस पर ‘लाइक’ की बौछार हो जाती है। खुद के ‘लाइक’ ढूंढ़ने में और दूसरों को ‘लाइक’ करने में लोगों का इतना समय जाया हो रहा है कि उनकी नींद और चैन हवा हो गई है। ऐसा नहीं है कि मामला सिर्फ ‘लाइकिंग’ का है। यू-ट्यूब जैसे साधन भी मौजूद हैं, जहां सिर्फ अंगूठे से ऊपर या नीचे के चिह्न पर क्लिक कर आप अपनी पसंद-नापसंद का इजहार कर सकते हैं।
यही नहीं, किसी व्यक्ति या महामानव की चरित्र हत्या करनी हो, या उसे अवतार साबित करना हो-दोनों के लिए आपको सिर्फ एक फर्जी आई.डी. बनानी है और लगातार ‘कुछ भी’ ‘पोस्ट’ करते रहना है। धीमे-धीमे हम-जोली मिलते जाएंगे, कारवां बढ़ता जाएगा। यह कैसा दौर है? बिना जाने-पहचाने या आधी-अधूरी जानकारियों के आधार पर दुनिया की लगभग आधी आबादी फैसले जानने, सुनने और सुनाने को बेताब है। यही वजह है कि मनोविज्ञानियों को आज के इनसान में तरह-तरह की विकृतियां सिर उठाती दिख रही हैं।
इसका यह मतलब कतई नहीं है कि सोशल मीडिया हमें सिर्फ अराजकता की ओर धकेल रहा है। इस मायाजाल के सुखद पहलू भी हैं। परंपरागत मीडिया ने विश्वसनीयता हासिल करने के लिए एक शताब्दी से ज्यादा लंबी यात्रा की थी। मुझे लगता है, सोशल मीडिया जल्द ही अपना रास्ता पहचान लेगा। आभासी दुनिया को भी आखिर सच्चाई की जरूरत है।