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जयंती : 12 साल की उम्र में भगत सिंह बन गए आजादी के परवाने

अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों को अपने अदम्य साहस से झकझोर देने वाले शहीदे आजम भगत सिंह को जेल प्रशासन ने फांसी देने से पहले 'वाहे गुरू' का ध्यान करने की सलाह दी तो उनके शब्द थे ' अब आखिरी...

जयंती : 12 साल की उम्र में भगत सिंह बन गए आजादी के परवाने
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 28 Sep 2016 07:43 AM
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अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों को अपने अदम्य साहस से झकझोर देने वाले शहीदे आजम भगत सिंह को जेल प्रशासन ने फांसी देने से पहले 'वाहे गुरू' का ध्यान करने की सलाह दी तो उनके शब्द थे ' अब आखिरी वक्त भगवान को क्या याद करना, जिन्दगी भर तो मैं नास्तिक रहा, अब भगवान को याद करूंगा तो लोग कहेंगे मैं बुजदिल और बेईमान था और आखिरी वक्त मौत को सामने देखकर मेरे पैर लड़खड़ाने लगे।'

12 साल की उम्र में ही बदल गई जिंदगी

शहीदे आजम भगत सिंह का जन्म पाकिस्तान के एक गांव लायलपुर में 28 सितम्बर 1907 में हुआ था। उनके पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती था। जलियांवाला बाग हत्याकांड के साक्षी रहे भगत सिंह की सोच पर उस हत्याकांड का ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भारत की आजादी के लिए ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना कर डाली और 12 साल की उम्र में ही देश माता की रक्षा के लिए कूद पड़े।

सहज, सरल व्यक्तित्व के इंसान थे भगत सिंह

भगत सिंह के भतीजे किरणजीत ने एक समाचार एजेंसी से बातचीत में बताया कि शहीद की साहसी क्रांतिकारी व्यक्तित्व को एक तरफ रखकर देखें तो पता चलता है कि वे एक सरस, सजीव, मसखरे, सह्रदय, सन्तुलित और उदार मानव थे। 

उन्होंने बताया कि शहीदे आजम भगत सिंह (ताया जी) निश्चयों के प्रति उनमे ऐसी ही अटलता थी, जैसी धार्मिक दृष्टि के मनुष्यों मे धर्म के प्रति होती है, जो निश्चय हो गया उसमे न वे ढील करते थे, न ढील सहते थे। कोई ढील करे, तो उन्हें गुस्सा आ जाता था। बहुत कुछ कहते-कहते सुनते थे। वे किसी को ठेस नही पहुंचाते थे। यदि उन्हें यह महसूस होता उनकी बात से किसी को ठेस लगी है, तो वह हंसी खुशी का वातावरण बना कर उसे प्रसन्न करने की कोशिश करते थे। इससे काम न चले तो, गले मे हाथ डालकर उसे प्रसन्न करने की कोशिश करते थे।

जेल की जिंदगी

जेल के अफसर उनकी देख रेख करते थे। लाहौर जेल के बड़े जेलर खान बहादुर मुहम्मद अकबर कहा करते थे कि उन्होंने अपने समूचे जीवन में भगत सिंह जैसा श्रेष्ठ मनुष्य नहीं देखा। शहीदे आजम उदासी के दुश्मन थे उदासी उनके पास फटक ही नही पाती थी। साहस उनके स्वभाव का अभिन्न अंग था। 1925 मे शहीदे आजम दिल्ली के वीर अर्जुन में सम्पादन विभाग का काम भी करते थे। 

श्री दीनानाथ सिद्धान्तालंकार के साथ एक चौबारे में रहते थे। उन्हीं के शब्दों मे ' वे मितभाषी और अध्ययन शील थे। खाली समय में और रात को प्राय: राजनीतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक पुस्तकें पढते थे। समाचार तैयारी करने मे चुस्त थे। उनका जीवन अत्यन्त सादा और संयम पूर्ण था।

श्री दीनानाथ सिद्धान्तालंकार के ही शब्दो मे ' रात मे वे अक्सर चौबारे की छत पर अकेले बैठे रोते थे। जब मैने रोने का कारण पूछा, तो बहुत देर चुप रहने के बाद बोले, ' मातृभूमि की इस दुर्दशा को देखकर मेरा दिल छलनी हो रहा है। एक ओर विदेशियों के अत्याचार हैं, दूसरी और भाई-भाई का गला काटने को तैयार है। इस हालत में मातृभूमि के ये बन्धन केसे कटेंगे।'

आजादी के इस मतवाले ने पहले लाहौर में‘सांडर्स-वध’और उसके बाद दिल्ली की सेंट्रल असेम्बली में चंद्रशेखर आजाद और पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ बम-विस्फोट कर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलंदी दी।

क्रांतिदल की स्थापना

शहीद भगत सिंह ने इन सभी कार्यो के लिए वीर सावरकर के क्रांतिदल ‘अभिनव भारत’ की भी सहायता ली और इसी दल से बम बनाने के गुर सीखे। वीर स्वतंत्रता सेनानी ने अपने दो अन्य साथियों सुखदेव और राजगुरु के साथ मिलकर काकोरी कांड को अंजाम दिया, जिसने अंग्रेजों के दिल में भगत सिंह के नाम का खौफ पैदा कर दिया।

भगत सिंह को पूंजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसंद नहीं आती थी। आठ अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेम्बली में पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल पेश हुआ। अंग्रेजी हुकूमत को अपनी आवाज सुनाने और अंग्रेजों की नीतियों के प्रति विरोध प्रदर्शन के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में बम फोड़कर अपनी बात सरकार के सामने रखी। दोनों चाहते तो भाग सकते थे, लेकिन भारत के निडर पुत्रों ने हंसत-हंसते आत्मसमर्पण कर दिया।

देश की आजादी के लिये सब कुछ कुर्बान कर देने की चाहत ने भगत सिंह को इस कदर निडर बना दिया था कि उन्हे मौत का तनिक भी खौफ नहीं था। फांसी की सजा सुनाये जाने पर भी वह बेहद सामान्य थे। फांसी के दिन भी वह अखबार पलटते रहे और साथियों के साथ मजाक करते रहे।

ऐसी थी वो आखिरी रात

23 मार्च 1931 की रात भगत सिंह को सुखदेव और राजगुरु के साथ लाहौर षडयंत्र के आरोप में अंग्रेजी सरकार ने फांसी पर लटका दिया। यह माना जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय थी, मगर जनाक्रोश से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और रात के अंधेरे में ही सतलुज के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया।

शहीद भगत सिंह ने 23 वर्ष पांच माह और 23 दिन की आयु में ही हंसते-हंसते संसार से विदा ली। शहीदे आजम के भतीजे किरण जीत सिंह ने उस पत्र का जिक्र किया जिसे भगत सिंह ने अपने छोटे भाई और उनके पिता कुलतार सिंह को लिखा था कि ' भोर के प्रकाश मे भाग्य की किरण को कौन रोक सकता है, यदि समस्त संसार भी हमारा दुश्मन हो जाए तो भी हमे क्या हानि पहुंचा सकता है, मेरे जीवन के दिन समाप्त हो गये हैं।

मै एक समाज की तरह सवेरे के प्रकाश की गोद मे समाप्त हो रहा हूं मगर हमारा विश्वास एवं विचार बिजली की कड़कड़हाट की भाति सारे संसार को प्रकाशित करेंगे। इस हालत मे यह मुट्ठी भर धूल बर्बाद हो भी जाए तो इसमे डर की क्या बात है।'

आजादी के परवाने ने कहा कि अगर कुछ समय पहले आप मुझसे यह कहते तो आपकी इच्छा पूरी करने में मुझे कोई आपत्ति नही हो सकती थी। अब जब आखिरी वक्त आ गया है, मै परमात्मा को याद करूंगा तो लोग कहेंगे कि वह बुजदिल है। तमाम उम्र तो उसने मुझे याद किया नही, जब मौत सामने नजर आने लगी तो मुझे याद करने लगा है।       

इसलिए बेहतर यही होगा कि मैंने जिस तरह पहले अपनी जिन्दगी गुजारी है, उसी तरह मुझे इस दुनिया से जाने दीजिए, मुझ पर यह इल्जाम तो कई लोग लगायेंगे कि मै नास्तिक था और मैने परमात्मा मे विश्वास नही किया, लेकिन यह तो कोई नही कहेगा कि भगत सिंह बुजदिल, बेईमान भी था और आखिरी वक्त मौत को सामने देखकर उसके पांव लड़खड़ाने लगे।

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