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दिवाली विशेष: कुछ कहता है माटी का दीया...

हमारे एक दोस्त सालों बाहर रह कर आए। बहुत खुश थे वहां। घर वापसी होती थी तो उनके किस्से ही खत्म नहीं होते थे। वहां ऐसा और यहां ऐसा कह कह कर खिल उठते थे। गाहेबगाहे यहां को कोसते रहते थे। एक जगह आकर उनका...

दिवाली विशेष: कुछ कहता है माटी का दीया...
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 28 Oct 2016 06:13 PM
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हमारे एक दोस्त सालों बाहर रह कर आए। बहुत खुश थे वहां। घर वापसी होती थी तो उनके किस्से ही खत्म नहीं होते थे। वहां ऐसा और यहां ऐसा कह कह कर खिल उठते थे। गाहेबगाहे यहां को कोसते रहते थे। एक जगह आकर उनका परदेस प्रेम ठिठकता था। दिवाली को बहुत पसंद करते थे। हालांकि दिवाली वहां भी मना लेते थे। लेकिन यहां की दिवाली को 'मिस' करते थे। उनका कहना था कि वहां सब कुछ मिल जाता था। वह रोशनी कर लेते थे। मोमबत्तियां जला लेते थे। लेकिन मिट्टी का दीया उन्हें नहीं मिलता था। 

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शहरों मे भी मिट्टी का दीया कहां आसानी से नजर आता है। अब शायद दिवाली पर ही वह दिखता है। दुनिया बहुत बदल गई है। रोशनी की पूरी दुनिया ही बदल गई है। बेचारा दीया कहीं हाशिए पर चला गया है। लेकिन तमाम इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक चमकदमक के बावजूद हम दिवाली पर दीया जला ही देते हैं। हम खेतिहर समाज से चल कर न जाने कहां तक आ गए हैं? दिवाली तब भी मनती थी। दिवाली हम आज भी मनाते हैं। हर जगह लड़ियां ही लड़ियां नजर आती हैं। एक दौर में ये लड़ियां सिर्फ शादियों में ही दिखती थीं। आज उनके बिना शहरी दिवाली की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। घर-बाहर रोशनी के लिए हमें अब मिट्टी के दीये की जरूरत ही नहीं है। जगरमगर करती लाइटों में टिमटिमाते दीये की क्या औकात? लेकिन दिवाली पर मिट्टी के दीये को हमने नहीं छोड़ा है। हम आज भी दीया क्यों जलाते हैं? महज रोशनी की तो बात नहीं है न। अगर वही बात हो, तो रोशनी तमाम चीजों से हो सकती है। और वह हमें मिल रही है। लेकिन दिवाली पर हमें दीया ही क्यों याद आता है?

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शायद वह दीया हमें अपने बीते कल से जोड़ता है। हम कितनी ही बात करें अपने आज में जीने की। कितनी ही कोशिश करें अब और अभी में खड़े होने की। लेकिन हम महज एक काल में जी नहीं सकते। दरअसल, हम एकसाथ तीनों कालों में जीते हैं। हम आज में खड़े होते हैं। लेकिन बीते कल को छोड़ नहीं सकते। और आज का हर कदम हमारे आनेवाले कल को तय करता है। मुझे ऐसा लगता है कि जब हम दीया जलाते हैं, तो चेतन-अचेतन में अपने पुरखों की जमीन पर चले जाते हैं। पूर्वजों के उस लगाव से जुड़ते हैं, जब उस माटी के दीये ने आदिम अंधेरे को दूर किया था। उस दीये के साथ वैसा ही महसूस करते हैं हम। चाहे हमारा अतीत कैसा भी रहा हो, लेकिन हमें आज में लौटना ही होता है।

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जब हम आज में दीया जलाते हैं, तो हमारी कामना अमावस को अतीत करने की होती है। दीया जलाते ही हम उसे अतीत में धकेल देते हैं। तब हमें भविष्य की पूर्णिमा नजर आने लगती है। अमावस से पूनम की दूरी बहुत ज्यादा है। लेकिन उस दूरी को पाटता तो एक दीया ही है। दीया आपको पूर्णिमा तक नहीं ले जाता। लेकिन दीया शायद वहां तक पहुंचने की पहली सीढ़ी है। लाओत्से कहते ही हैं कि दुनिया भर की यात्रा शुरू तो पहले कदम से ही होती है।

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माटी का दीया हमें अपनी मिट्टी से भी जोड़ता है। माटी हमारी धरती है। हमारा शरीर है। माटी की बात करते ही हम अपनी प्रकृति से जुड़ जाते हैं। हम कितने भी सभ्य सुसंस्कृत हो जाएं, लेकिन अपनी प्रकृति से जुड़ाव के बिना अधूरे होते हैं। एक पद याद आता है। उसे महान तमिल संत पेई आलवार ने लिखा था। उसमें दीये का जिक्र है। वह दीया बाती में तीनों कालों को देखते हैं। माटी का दीया धरती है। यानी वर्तमान। दीये का घी पाताल है। यानी अतीत। और उसकी बाती की लौ ऊपर को जाती है यानी भविष्य। तो घी की दीया बाती जब हम करते हैं, तो तीनों कालों को एकसाथ जी रहे होते हैं। धरती, पाताल और आकाश को एक कर रहे होते हैं।

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दिवाली के लिए अपने समाज ने अमावस्या को ही क्यों चुना? उसे क्या जरूरत महसूस हुई थी कि घर-घर में दीये जलें? राम के आने का तो बहाना है। लौट कर तो न जाने कितने नायक आए? आप नायक की जगह भगवान कह सकते हैं। अगर राम की ही बात थी, तो फिर उनकी पूजा क्यों नहीं करता अपना समाज। कम से कम उस दिन। रामनवमी पर उनकी पूजा होती है। दशहरे पर उन्हें याद किया जाता है। लेकिन दिवाली? वहां पूजा लक्ष्मीजी की होती है। और जलते हैं दीये। यानी पूजन खुशहाली और रोशनी के लिए।

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सुनते हैं कि दिवाली से ज्यादा अंधेरी रात होती ही नहीं। लेकिन जितना अंधेरा होता है, उतनी ही ज्यादा होती है रोशनी की चाहत। अगर अंधेरा सच है, तो प्रकाश उससे भी बड़ा सच है। अगर अंधेरा शरीर है, तो प्रकाश आत्मा है। जब अंधेरा होता है न, तो हमें एक दीये की जरूरत होती है। एक दीया जो हमें उस अंधेरे से बाहर ला सके। बहुत अंधेरी रात है। अंदर अंधेरा है और बाहर भी। एक दीया तो जलाओ। दीवाली मनाओ।

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