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झारखंड: इतिहास के आइने में वैद्यनाथधाम

वैद्यनाथधाम एक शैवपीठ है। वैद्यनाथ इसका शास्त्रीय नाम है। द्वादश ज्योतिर्लिंग की परम्परा में इसका विशेष स्थान है। शिव महापुराण में इसका विशेष उल्लेख है। अनेक तंत्र ग्रंथों में भी शैवपीठ के रूप में...

झारखंड: इतिहास के आइने में वैद्यनाथधाम
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 04 Aug 2015 07:21 PM
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वैद्यनाथधाम एक शैवपीठ है। वैद्यनाथ इसका शास्त्रीय नाम है। द्वादश ज्योतिर्लिंग की परम्परा में इसका विशेष स्थान है। शिव महापुराण में इसका विशेष उल्लेख है। अनेक तंत्र ग्रंथों में भी शैवपीठ के रूप में इसकी चर्चा है, जहां शक्ति की उपासना के भी प्रसंग है। मत्स्य पुराण में शिव की उमा के साथ उपासना का वर्णन है। यहां शैव और शाक्त साधकों की भीड़ बराबर लगी रहती है। शैवतीर्थों के संदर्भ में वैद्यनाथधाम की ऐतिहासिकता स्वत: सिद्ध होती है।photo1

इस शैवपीठ की स्थापना में किसका हाथ है
 उत्तर गुप्त कालीन भारत में आदित्यसेन गुप्त इस क्षेत्र का शासक था। इसका एक शिलालेख मंदार पर्वत पर है। साथ ही यह लेख अफसाद में भी है। अफसाद के लेख में आदित्य सेन की माता को मंदिर बनवाने का श्रेय दिया गया है। लेख का अर्थ है। इसकी माता महादेवी श्री मती ने धार्मिक शिक्षा संस्था का निर्माण किया जो देवभवन में सदृश था उसे दान में दिया गया।

उसकी पत्नी कोण देवी ने अपनी तपस्या के कारण सुंदर कासार बनवाया, जिसका जल जनता के लिए पीने योग्य था। जिस कासार की लहर शंख तथा चन्द्रमा के सदृश सफेद थी तथा जिसके जल में मगर तथा मछलियां दिख पड़ती थी। जिस समय तक ब्रह्मा, सरस्वती, विष्णु, चन्द्रमा, महादेव तथा पृथ्वी पर स्थित रहे, मेघ में बिजली विद्यमान रहे, तब तक आदित्य सेन की कीर्ति फैली रही। यह लेख सुंदर विकट कुटिल अक्षरों में लिखा गया। गौड़ देश निवासी सुक्ष्म शिव ने उत्कीर्ण किया जो धार्मिक तथा बुद्धिमान व्यक्ति था।

मंदार पर्वत के लेख में ओम परम भट्टारक महाराजाधिराज श्री आदित्यसेन की परभट्टारिका महादेवी श्रीमती कोण देवी ने इस तालाब का निर्माण करवाया का उल्लेख है। वैद्यनाथ मंदिर के मुख्य द्वार के ऊपर में एक शिलालेख है। यह लेख उपर्युक्त लेखों का ही रूपांतर मात्र है। इसमें आदित्यसेन की पत्नी कोण देवी का उल्लेख है, किन्तु उनके चोलदेश से आने की चर्चा है।

विष्णु की मूर्ति स्थापित करने की प्रासंगिकता है। उन्होंने एक पुष्करिणी का भी निर्माण करवाया और मठ आदि भी बनाया। लेख 6वीं शतादी का है। डॉ लाक आदित्य सेन गुप्त को चोल देश का नहीं मानते हैं, किन्तु लेख में चोडराज की उक्ति है। आदित्यसेन गुप्त और चौडराज में कोई सामयिक साम्य नहीं है। चोल शासक राजेन्द्र चोल के पूर्व के अभियान की चर्चा है।

वैद्यनाथधाम एक शैवपीठ है। वैद्यनाथधाम इसका शास्त्रीय नाम है। द्वादश ज्योतिर्लिंग की परम्परा में इसका विशेष स्थान है। शिव महापुराण में इसका विशेष उल्लेख है। अनेक तंत्र ग्रंथों में भी शैवपीठ के रूप में इसकी चर्चा है, जहां शक्ति की उपासना के भी प्रसंग है। मत्स्य पुराण में शिव की उमा के साथ उपासना का वर्णन है। - डॉ मोहनानंद मिश्र

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शैवतीर्थों की परंपरा में वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग
वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के तीर्थक्षेत्र को शाक्ततीर्थ माना जाता है। सती के हृदय के गिरने से इस स्थान को हृदयपीठ कहते हैं। तब सती के हृदय को लेकर शिव नाचने लगे थे। भारतीय इतिहास में धार्मिक कथाओं के संबंध में अभी भी अनेक प्रश्नों के उत्तर अनवधीत और अनालोचित हैं। धर्मशास्त्रों और पुराणों से केवल उनके धार्मिक स्वरूप का प्रकाशन होता है। इतिहास के सम्पर्क सूत्र की झलक नहीं मिलती है।

वैदिक एवं पौराणिक ग्रन्थों में वर्णित शाक्त पाशुपत और भागवत धर्म सबंधी उपासनाओं की परिणति का अध्ययन अभी ऐतिहासिक दृष्टिकोण से दूर है। ऐसा ही एक तीर्थ पूर्वांचल में अवस्थित है, जिसे वैद्यनाथधाम देवघर के नाम से जाना जाता है। इसे झारखंड के वैद्यनाथ के नाम से भी जाना जाता है। शैवतीर्थों की धार्मिक परम्परा में इसकी लोकप्रियता सर्वोपरि है। सभी तीर्थों में शैवतीर्थों की विशेष मान्यता रही है तथा अभी तक है।

शैवतीर्थों में ज्योर्तिलिंग को सर्वोपरि माना गया है। इन तीर्थों में अन्य देवताओं की भी प्रतिष्ठा हुई। वैद्यनाथधाम में कोई सतत प्रवाहशील नदी नहीं है, किन्तु सुदूर अतीत में यहां कुछ छोटी-छोटी नदियां प्रवाहित होती रहती थीं, जो कालान्तर में विलीन हो गईं। प्राचीन काल में मिथिला के कुलीन ब्राह्मणों की एक टोली इन्हीं इन छोटी-छोटी नदियों के तट पर निवास कर वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की पूजा किया करते थे। इन छोटी-छोटी नदियों तथा नालों को गंगा से बढ़कर महत्व दिया जाता था। इन्हीं का परिवर्तित रूप शिवगंगा पुष्करिणी है।

शैवतीर्थों के अध्ययन से पता चलता है कि भारत के अनेक स्थलों में लिंग पूजा के प्रचलित होने पर ही अधिक प्रसिद्ध शैवतीर्थों की शृंखला बनने लगी और वैद्द्यनाथ तीर्थ क्षेत्र भी इसी क्रम में अपनी प्रसिद्धि के चरमशीर्ष पर स्थापित हो सका। विशेषकर ज्योतिर्लिंगों की शृंखला में आबद्ध होने के कारण इसे श्रेय और प्रेम की उपलबि्ध का केन्द्र माना जाता है। शैवोपासना केन्द्रों में रूद्रशिवा, पाशुपत लिंग, योग, भैरव, अधोर, यज्ञ, कुोर तथा दिग्मर सम्प्रदाय की उपासना को लोकप्रियता मिली। वैष्णव पुराणों में श्रीशैव सम्प्रदाय को आतुर की दृष्टि से व्याख्या का विषय बनाया गया है।

वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की मृर्ति प्राकृतिक है। इसमें योग मूर्तिधर की परम्परा का संकेत विद्यमान है। लिंग पूजा के पूर्व शिव के योगमूर्ति धर की पूजा को प्रधानता दी जाती थी। उत्तरी भारत में इस समय कार्तिकेय का प्रभाव घट रहा था। उपासना के क्षेत्र में शिवलिंग शक्ति और हनुमान को लोकप्रियता मिली। जनता ने स्थूल वस्तुओं को देवाराधन का आश्रम माना। अनार्यों द्वारा वृक्षों में यज्ञ की मूतियां स्थापित होती थीं। अनार्यों ने भी अपने देवताओं की मूर्तियां इनमें स्थापित की।photo3

वैद्यनाथ चिताभूमि
वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को चिताभूमि में अवस्थित कहा गया है। झारखंड प्रदेश स्थित इस तीर्थ के भौगोलिक परिसर को हाद्रपीठ के नाम से जाना जाता है। चन्द्र चूड़पीठ निर्णय में इस प्रकार की उक्ति है। इस में हृदय पीठ में वैद्यनाथ के अधिष्ठान को स्वीकार किया गया है। वैद्यनाथ की इस तीर्थक्षेत्र में भैरव के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। जयदुर्गा को इस पीठ की प्रधानदेवी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है।

झारखंड के संथाल परगना प्रमंडल में वैद्यनाथधाम नाम से प्रसिद्ध तीर्थ है जिसे देवघर नगर के स्थान के रूप में ख्याति प्राप्त है। वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के सबंध में ऐतिहासिक एवं धार्मिक विवाद बहुत कम है। सभी धर्मशास्त्रीय और ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर इसे द्वादश ज्योतिलिंग के अन्तर्गत स्वीकार किया जाता है। वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को लेकर विवाद केवल ज्योतिर्लिंग स्तोत्र में प्रयुक्त ‘परल्याम’शद को लेकर है। पाणिनी के अनुसार नाम ग्राम की व्युत्पति नहीं होती है।

इसलिए धार्मिक स्थल के रूप में प्रचलित एक तीर्थ विशेष के नाम से नहीं, स्थान विशेष के रूप में परली का परिचय मिलता है। इस परली ग्राम में स्थित वैद्यनाथ मंदिर को ही परल्यां वैद्यनाथश्च के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है, किन्तु शिवमहापुराण में चिताभूमि में वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अधिष्ठान बताया गया है। शिव महापुराण की कोटिरूद्र संहिता में ज्योतिर्लिंगों का यह वर्णन है। इसी में वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को चिताभूमि में अवस्थित कहा गया है।

झारखंड प्रदेश स्थित इस तीर्थ के भौगोलिक परिसर को हाद्रपीठ के नाम से जाना जाता है। चन्द्र चूड़पीठ निर्णय में इस प्रकार की उक्ति है। इस में हृदय पीठ में वैद्यनाथ के अधिष्ठान को स्वीकार किया गया है। वैद्यनाथ के इस तीर्थक्षेत्र में भैरव के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। जयदुर्गा को इस पीठ की प्रधानदेवी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है। वैद्यनाथ महात्म्य में पद्मपुराण पाताल खंड के द्वतीय अध्याय में लिखा है कि रावण विष्णु के हाथ में ज्योतिर्लिंग देकर कुछ दूर गया, इसी बीच विष्णु ने हृदयपीठ के मध्य रावणेश्वर लिंग को रख दिया। दूसरी ओर परल्याम शब्द का व्यवहार किसी शास्त्रीय प्रामाणिक ग्रंथ में नहीं है। आदि शंकराचार्य द्वारा रचित द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र भी विवादास्पद है।

ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि इसे आदि शंकराचार्य ने ही लिखा था या उनकी परम्परा के किसी शंकराचार्य ने इसकी रचना की है। लगभग उन्नीस स्तोत्रों की रचना के प्रसंग को शंकराचार्य के साथ संबद्ध किया जाता है। माधव के अनुसार यह कहना समीचीन होगा कि कामकोटिपीठ के अध्यक्ष धीर शंकर नामक आचार्य हुए थे। इसमे आदि शंकर के समान समस्त भारत की शास्त्रार्थ यात्रा की थी। वे कश्मीर के सर्वज्ञपीठ पर अधिष्ठित हुए थे और वे कैलाश में ब्रह्मपद लीन हो गये थे। उनके जीवन की घटनाएं भ्रमवश आदि शंकर के साथ संबद्ध कर दी गई है। आदि शंकर कांची में स्थूल शरीर को छोड़कर सुक्ष्म शरीर में लीन हो गये थे।photo4

वैद्यनाथ मंदिर : इतिहास और संस्कृति
रावण की बहुप्रचलित कथा के सबंध में भी अहम मतभेद उपस्थित होता है कि रावण का कैलाश से जाने का मार्ग यह नहीं कहीं अन्यत्र होगा। यह मार्ग आन्धप्रदेश के ‘‘परल्याम् वैद्यनाथतु ’’ के पक्ष में समर्थन देता है, किन्तु प्राचीन भारत में स्थल मार्ग, जलमार्ग और वायुमार्ग का पथ सीधा नहीं था और आज भी इन पथों के नियम प्राचीन सिद्धांत पर ही निर्भर हैं। पूर्वी भारत में देवघर को भारतीय इतिहास का एक केन्द्र माना जा सकता है, जहां एक ही साथ शैव, शाक्त और वैष्णव सम्प्रदाय के उन्नयन के साथा बौद्ध साधना की परम्परा भी पनपती रही।

वैदिक साहित्य में इस स्थान की चर्चा नहीं है, किन्तु वेदोत्तर साहित्य में वैद्यनाथ क्षेत्र का उल्लेख है। तांत्रिक और पौराणिक साहित्य में भी इसका वर्णन है। कुजिकातंत्र, ज्ञानार्णव तंत्रसार, कालीतंत्र, शक्ति संगम तंत्र और महाकाल संहिता में इस स्थान की प्रशस्ति है। पुराणों में शिव पुराण, मत्स्य पुराण और काली पुराण इसे धार्मिक इतिहास की महत्ता से ओतप्रोत करता है। देवी भागवत भी इसकी प्रशस्ति को महत्व देता है। वैद्यनाथधाम का ही दूसरा नाम देवघर है। यहां द्वादश ज्योतिलिंगों में एकौद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है। ज्योतिर्लिंगों की उपासना इस देश की सांस्कृतिक उपलधि का व्यावहारिक स्वरूप है। अंधकार से प्रकाश की ओर उन्मुख होने की हमारी भावना ही ज्योतिर्लिंगों की प्राप्ति के संकल्प को विकल्प प्रदान करती है।

ज्योतिर्लिंग आध्यात्मिक जगत का वर्तुलाकार एक अंगुष्ठा मात्र में स्थित ब्रह्म है। भारत के सभी भागों के लोग यहां सालों भर अपनी कामना के गागर को भरने के लिए अजगैवीनाथ में गंगाजल लेकरौद्यनाथ की ओर दौड़ते रहते हैं। श्रावण मास में यह शोभा दर्शनीय होती है। आदि शंकराचार्य ने इसे पूर्व और उत्तर दिशा में अवस्थित बतलाया है। भारत के पूर्वोत्तर प्रदेश को वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का निवास घोषित किया गया है। भारत के भौगोलिक परिवेश के अध्ययन से भी इसकी पुष्टि होती है। शास्त्रो, अभिलेखों तथा जन श्रुति के आधार पर यही वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है। शिवपुराण में वैद्यनाथ चिता भूमि का व्यवहार है। परल्याम शद का प्रयोग यहीं है।

यहां चिताभूमि को प्रज्ज्वलित भूमि के अर्थ में ग्रहण करने पर विषय का भेद स्वत: स्पष्ट होता है। परल्याम शद का प्रयोग धनघोर जंगल के अर्थ में भी होता है। इस अर्थ के प्रकरण में झारखंड स्थित वैद्यनाथ ही परल्याम केौद्यनाथ की महत्ता को स्थित करता है। वैद्यनाथ की प्रामाणिकता ‘‘आरोग्य वैद्यनाथयेतु’’ के वाक्योध से भी होती है, जो मत्स्य पुराण का संदर्भ है। ज्योतिर्लिंग सबंधी दो सौ वर्ष पुराने हस्त लिखित ग्रन्थ के आधार पर पूर्वोत्तरे पुण्य गयानिधाने का प्रयोगौद्यनाथ की प्रशस्ति को अमरत्व प्रदान करता है। प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों में ज्योतिर्लिंग संबंधी वितरण में प्रज्ज्वलिका निधाने पद के स्थान पर पुण्य गया निधाने का प्रयोग मिलता है।photo5

वैद्यनाथधाम के तीर्थपुरोहित और मिथिला
बुद्धिबल की दृष्टि से भी विश्व की सभी जातियों में से अधिक भारत के ब्राह्मणों में प्राचीन समय से ही विद्यमान है, जिसे शिक्षा मनोविज्ञान में आइक्यू कहते हैं।विश्व समुदाय में ब्राह्मणों के प्रति सम्मान प्राचीनकाल से ही विद्यमान है। इस विषय को पाश्चात्य पंडितों ने भी स्वीकार किया है। बुद्धि बल की दृष्टि से भी विश्व की सभी जातियों में से अधिक भारत के ब्राह्मणों में प्राचीन समय से ही विद्यमान है, जिसे शिक्षा मनोविज्ञान में आइक्यू कहते हैं।

इसलिए शास्त्रों और धर्मों के वाचक एवं अभियोजक के रूप में प्राचीनकाल से ही उनकी सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिष्ठा विद्यमान है और उन्हें इस दृष्टि से एक सामाजिक संस्था के रूप में स्वीकार किया जाता है। भारत के सांस्कृतिक इतिहास में तीर्थपुरोहितों को लोग सिर आंखों पर रखते हैं। यदि सिद्धों के साहित्य का अध्ययन किया जाय, तो यहां पर तीर्थयात्रा के आधार मिलते हैं।

इसी क्रम में तीर्थपुरोहितों की भी उपस्थिति का बोध होता है। अनादिकाल से ही वैद्यनाथधाम में सिद्ध साधकों का आना जारी है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कबीर में इस बात की चर्चा की है। इसलिए यहां के तीर्थपुरोहितों के इतिहास की सीमा को10वीं सदी के पूर्व से ही सीमांकित किया जा सकता है। कालान्तर में धीरे- धीरे उनकी संख्या बढ़ी होगी। वे मैथिली भाषा का व्यवहार बोलचाल की भाषा में करते थे। उन दिनों जो मैथिली बोली जाती थी, उसका रूप ब्रजबोली कहा जाता था।

ब्रजबोली के रूप में मैथिली का व्यावहारिक प्रयोग बांग्ला से मिलता-जुलता है। साथ ही छोटानागपुर की नागपुरी और पंचपरगनिया भाषा भी उनके रूप की झांकी मिलती है। विद्यापति और वर्णरत्नाकर की जो भाषा है, उसे ब्रजबोली से भिन्न नहीं किया जा सकता है। इसलिए बंगाल के लोग विद्यापति को बांग्ला कवि कहते हैं। इस प्रकार वैद्यनाथधाम के तीर्थपुरोहितगण भी मिथिला से यहां पर उस समय आये, जब मिथिला की राजनीतिक उथल-पुथल भयावह हो गई थी और लोगों का जीवन-यापन दुरूह हो गया था। व्यक्तिगत सुरक्षा की भावना समाप्त हो गई थी।

यहां मैथिल ब्राह्मण प्राय: दो वेदों के अनुयायी थे। सामवेद और शुक्ल यजुर्वेद। ये लोग इन वेदों की शाखा की उपासना करते हैं। सामवेदीगण...शाखा के अनुयायी हैं। यजुर्वेदीगण माध्यमदीन शाखा के अनुयायी हैं। सामवेदीगण छान्दोग्य और शुक्ल यजुर्वेदीगण वाजसनेयी के रूप में जाने जाते हैं। कुछ लोग सामवेद की ऋचाओं की पाठ करते हैं और कुछ लोग माध्यनदीन शाखा की उपासना करते हैं। माध्यनदीन शाखा के निम्नलिखित गोत्रों के ब्राह्मण यहां है:- वत्स, कश्यप, पराशर, सवर्णा, कात्यायन और भारद्वाज।

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