क्षेत्रीय दलों के लिए भी संकट बनने लगी है मोदी लहर
नई दिल्ली मदन जैड़ा। देश में जब से मोदी लहर चली है, उससे प्रमुख दल कांग्रेस का ही सफाया नहीं हो रहा है बल्कि क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के लिए भी अपने अस्तित्व की रक्षा करना मुश्किल हो...
नई दिल्ली मदन जैड़ा। देश में जब से मोदी लहर चली है, उससे प्रमुख दल कांग्रेस का ही सफाया नहीं हो रहा है बल्कि क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के लिए भी अपने अस्तित्व की रक्षा करना मुश्किल हो रहा है। हरियाणा एवं महाराष्ट्र में चुनाव नतीजों ने एक बार फिर ये संकेत दिए हैं। इन चुनावों में जहां हरियाणा में क्षेत्रीय दल इनेलो को तगड़ा झटका लगा है, वहीं महाराष्ट्र में एनसीपी को भारी नुकसान हुआ है।
जबकि कठिन संघर्ष कर शिवसेना अपनी पुरानी स्थिति ही बचा पाई। इन नतीजों के चलते यह माना जाने लगा है कि आने वाले समय में अन्य राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों को मोदी लहर का और नुकसान हो सकता है। विगत मई में जब आम चुनावों के नतीजे आए थे और उसमें कई क्षेत्रीय दलों का सफाया हो गया था। उत्तर प्रदेश में बसपा, तमिलनाडु में डीएमके खाता नहीं खोल पाए थे। बिहार में जद यू और उत्तर प्रदेश में सपा मुश्किल से अपनी कुछ सीटें बचा पाई थीं।
लेकिन तब एक संभावना यह जताई गई था मतदाता परिवक्त हो रहे हैं और वे केंद्र में मोदी की सरकार बनाना चाहते हैं। इसलिए लोकसभा चुनावों में उन्होंने क्षेत्रीय दलों को तरजीह नहीं दी। विशेषज्ञों ने तब यह भी संभावना प्रकट की थी कि आगे जब भी विधानसभा चुनाव होंगे तो उसमें क्षेत्रीय दलों का महत्व बना रहेगा। लेकिन दोनों राज्यों के नतीजे इस दलील को खरीज करते नजर आ रहे हैं। दोनों राज्यों में विधानसभा चुनावों में मोदी लहर चलने से कई किस्म की पुरानी परंपराएं टूटी हैं।
इन्हीं परंपराओं की वजह से इन राज्यों में क्षेत्रीय दलों की राजनीति हावी थी। लेकिन मोदी की लहर में मतदाताओं ने क्षेत्रीय मुद्दों, क्षेत्रीय दलों द्वारा पैदा किए जाने वाले क्षेत्रीय मुद्दों, जाति की राजनीति को काफी हद तक नकार दिया। हरियाणा में इनेलो की हार यही संकेत देती है। इनेलो के प्रमुख ओम प्रकाश चौटाला जेल में हैं और जेल से जमानत लेकर जिस प्रकार वह चुनाव प्रचार करते रहे उसे भी जनता ने ठुकरा दिया। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में अपराधीकरण ज्यादा हावी है।
उनके लिए अपराधीकरण ज्यादा बड़ा मुद्दा नहीं है। लेकिन हरियाणा में मतदाताओं ने इस बार इसे स्वीकार नहीं किया है। जाति और अपराधीकरण की राजनीति दोनों को उन्होंने ठुकराया है। महाराष्ट्र में एनसीपी पिछले चुनाव में 62 सीटें लाई थी लेकिन इस बार उसकी सीटें घट गई। क्षेत्रीय दल होते हुए भी एनसीपी राज्य में कांग्रेस की बी टीम के रूप में ही ज्यादा प्रचलित थी। इसलिए कांग्रेस के साथ उसका हश्र भी खराब होना तय था। उसे दोतरफा नुकसान हुआ।
क्षेत्रीय दल की वजह से भी और कांग्रेस के सहयोगी की वजह से भी। जबकि शिवसेना जो महाराष्ट्र के गौरव और मराठियों की सबसे बड़ी हितैषी होने का दावा करती है, उसे महाराष्ट्र की जनता ने मोदी लहर के सामने ज्यादा तरजीह नहीं दी। तमाम प्रयासों के बावजूद शिवसेना की उपलब्धि यह है कि वह अपनी पुरानी स्थिति बचाने में करीब-करीब सफल रही है। लेकिन बड़े दल के रूप में उभरने की उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। क्षेत्रीय दलों की सरकार अब कुछ ही सूबों में बची हैं।
यदि पूवार्ेत्तर के छोटे राज्यों और आंध्र प्रदेश और तेलगांना में बनी विशेष स्थितियों को छोड़ दें तो बिहार, पंजाब, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में ही क्षेत्रीय दलों की सरकारें बची हैं। आने वाले समय में जिन तीन राज्यों में क्षेत्रीय दलों को मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है, वे हैं बिहार, पंजाब और उत्तर प्रदेश। वजह यह है कि इन राज्यों में भाजपा की उपस्थिति मजबूत हो रही है। बाकी राज्यों में क्षेत्रीय दल अभी तक मजबूत स्थिति में नजर आ रहे हैं।