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हिन्दी नहीं है किसी भाषा की दुश्मन

भागलपुर। यह सवाल मायने नहीं रखता कि हिन्दी से दूसरी भाषाओं को डर क्यों है? किसी भी भाषा को किसी से डर नहीं लगना चाहिए। सोचना यह है कि यह विचार आ कहां से रहा है। कहीं से इसे प्रक्षेपित तो नहीं किया जा...

हिन्दी नहीं है किसी भाषा की दुश्मन
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 05 Sep 2014 12:22 AM
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भागलपुर। यह सवाल मायने नहीं रखता कि हिन्दी से दूसरी भाषाओं को डर क्यों है? किसी भी भाषा को किसी से डर नहीं लगना चाहिए। सोचना यह है कि यह विचार आ कहां से रहा है। कहीं से इसे प्रक्षेपित तो नहीं किया जा रहा? यह बात सोचने की हो सकती है कि हमारा जो अंग्रेजी परक समाज है वह यह विवाद खड़ा कर रहा है। पर उससे भी ज्यादा इसमें क्षेत्रवाद का हाथ है।

इसे आप हुकूमत जाने का खतरा कह सकते हैं। अगर कोई हिन्दी प्रदेश नहीं है और उसमें हिन्दी का वर्चस्व बढे़गा तो राजनीतिक साख दांव पर तो लग ही सकती है। इसलिए लगता है कि यह विवाद वहीं से निकल कर आ रहा है। इसकी जड़ में अहिन्दी भाषी क्षेत्र का राजनीतिक समाज भी हो सकता है क्योंकि अहिन्दी भाषी सामान्य लोग तो आज हिन्दी की ओर इतनी तेजी से आकृष्ट हो रहे हैं कि उनकी ओर से किसी विरोध का तो सवाल ही नहीं है।

वे आज अपनी भाषा की तुलना में हिन्दी को सीखने के प्रति ज्यादा सजग हैं और आप यह सुनकर दंग रह जाएंगे कि वे इतनी अच्छी हिन्दी भी बोल सकते हैं। उनकी तरह का हिन्दी का उच्चारण हिन्दी प्रदेश के लोग नहीं कर पाते। इसलिए यह विवाद एक खास क्षेत्र से आ रहा है जो राजेनताओं का क्षेत्र है। बड़े घरानों का क्षेत्र है, पूंजीपतियों का क्षेत्र है और उन्हीं की संतानें हिन्दी क्षेत्र को गोबरपट्टी कह रही हैं। ये कुछ वैसा ही है जैसे इस देश को कभी संपेरों का देश कहा जाता था।

आज का भारत न तो संपेरों का देश है और न इसे पिछड़ी हुकूमत के सहारे चलाया जा रहा है। दरअसल हम यह मान सकते हैं कि हम धीरे-धीरे गौरवविहीन राष्ट्र होते जा रहे हैं। यह हमारा झूठा स्वाभिमान है जो आम आदमी से अलग दिखने के दर्प में हमें हिन्दी से दूर ले जा रहा है। हम इसे अपनी मूर्खता भी कह सकते हैं क्योंकि जिस देश की जो भाषा होती है उससे उसका राष्ट्रीय स्वाभिमान जड़ा होता है।

यह तो हमारा दुर्भाग्य है कि हम उसकी रक्षा नहीं कर पाते। इससे भी बड़ी बात है कि हमारी अस्मिता हमें धिक्कारती भी नहीं। आप दुनिया के सारे राष्ट्रों को देख लें। उनका सारा आत्मगौरव उनकी भाषा से जुड़ा होता है। वे अपनी भाषा के प्रति हीन भाव नहीं रखते। लेकिन हम भारतीय ही अपनी भाषा को दोयम दर्जे का मानते हैं और दूसरे देशों की भाषाओं को पहली कतार की भाषा कहते हैं। हिन्दी किसी भी दूसरी भाषा का विरोध नहीं कर रही।

वह तो अपना काम कर रही है क्योंकि यह बहुत सरल भाषा है और पूर्णत: वैज्ञानिक भी। इसलिए इसे किसी के लिए भी समझना मुश्किल नहीं है। हम तो यही चाहते हैं कि हिन्दी दूसरी भाषाओं की तरह ही समान रूप से विकसित हो। यह किसी भाषा से आगे निकलने की स्पर्द्धा नहीं है बल्कि अपने वजूद को खड़ा रखने की मुहिम है। इसलिए यह बेवजह का विवाद है और इस विवाद से हमारा आत्मगौरव ही घटेगा। हम जिस दिन यह समझ जाएंगे हम हिन्दी से डरेंगे नहीं तो उसे अपनाने की बात सोचने लग जाएंगे।

आज हिन्दी में विपुल साहित्य भरा पड़ा है। यह एक तरह से भारतीय समाज का चेहरा है। अगर हम हिन्दी सीखते हैं तो हम भारतीय समाज के इस चेहरे से भी परिचित हो सकते हैं। तब भारत हमारे लिए न सांपों न संपेरों का देश रहेगा और न गोबरपट्टी। (भागलपुर विवि के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग के शिक्षक डा. अरविंद कुमार से बातचीत पर आधारित)।

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