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अपने समय की युवा आहटों को सुनते रहे

हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक, कथाकार और उपन्यासकार रॉबिन शॉ पुष्प का अवसान साहित्य की ,एक ऐसी क्षति है, जिसकी भरपाई संभव नहीं। वह उस पीढ़ी के लेखक थे,जिसने साहित्य को मनसा,वाचा कर्मणा जिया। उन्होंने कहानी,...

अपने समय की युवा आहटों को सुनते रहे
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 31 Oct 2014 01:14 AM
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हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक, कथाकार और उपन्यासकार रॉबिन शॉ पुष्प का अवसान साहित्य की ,एक ऐसी क्षति है, जिसकी भरपाई संभव नहीं। वह उस पीढ़ी के लेखक थे,जिसने साहित्य को मनसा,वाचा कर्मणा जिया। उन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक, रेडियो नाटक, बाल साहित्य, संस्मण से लेकर साहित्य की लगभग तमाम विधाओं में लिखा। वह पूर्णकालिक लेखक थे। उनकी पहली कहानी 1957 में धर्मयुग में छपी। तब से वह अनवरत लिखते रहे। लेकिन आज उनकी यात्रा सदा के लिए थम गई।

पटना से बाहर हूं। मोतीहारी के पास एक गांव में। कुआं के जगत की मुंड़ेर पर बैठा एक युवा सेमल के कांटेदार तने को एकटक निहार रहा हूं। सामने कई तरह के वृक्षों का सघन विस्तार है। सूर्य अस्ताचल को जा रहे हैं। कल सांझ असंख्य लोगों ने विदा और आज सुबह ही स्वागत किया है जिनका, वे विदा हो रहे हैं। खिन्न, उदास मन जाते सूर्य को निहार रहा हूं। भीतर कुछ टूट रहा है। जलते बांस की तरह चटख रहा है कुछ मेरी आत्मा के अतल में! कि अचानक एक मित्र का फोन आता है। पुष्पजी नहीं रहे।

बहुत दिनों से उनसे मुलाकात नहीं हुई थी। हां, फोन पर कभी-कभार बातें होती रहीं, पर यह सिलसिला भी इन दिनों बन्द ही था। अपने को कोस रहा हूं। स्वार्थी..कृतघ्न! आज का काम कल पर टालकर समय से मुंह चुरा कर जीने की अपनी आदत पर स्यापा कर रहा हूं! अचानक उनकी छवि कौंधती है। अंगुलियों में फंसी सिगरेट ,मुट्ठी बांध कर लम्बा कश और बेफिक्री के आलम में सिगरेट का धुआं। वे सन् 1976 के दिन थे। प्रेमचंद के बड़े सुपुत्र श्रीपत राय की पत्रिका ‘‘कहानी‘‘ में मेरी एक छोटी-सी कहानी छपी थी और उनसे आकाशवाणी पटना में मुलाकात हो गई। यह पता चलते कि उस कहानी का लेखक मैं हूं, उन्होंने मेरे कांधे पर अपना हाथ रखा था। उनकी हथेली का वो स्पर्श आज तक जिन्दा है, एक भरोसे की तरह। वे मुझसे मेरे बारे में पूछते रहे थे। मैं प्रतीक्षा में था कि शायद कहानी के बारे में कुछ कहें, पर ऐसा कुछ नहीं कहा उन्होंने। हमने साथ चाय पी। वे मुझे दुनिया की श्रेष्ठ कहानियों के बारे में बताते रहे। मैंने अब तक क्या-क्या पढ़ा है और अब मुझे क्या-क्या पढ़ना चाहिए पूछते और बताते रहे। मैं उन्हें निहारता रहा़..उनकी लम्बी ज़ुल्फों को अपनी उत्सुक नजरों से टेरता रहा। उनकी सिगरेट पीने की अदा और आत्मीयता भरी बातों पर मुग्ध होता रहा। विदा के समय़..चलते हुए उन्होंने शायद मात्र एक छोटे से वाक्य में मेरी कहानी की प्रशंसा की और घर आने का निमंत्रण दिया। अगले ही दिन मैं सब्जीबाग स्थित उनके घर पर था। मैं एक लेखक के घर में था, जिसकी कई कहानियां पढ़ चुका था़...रेडियों पर जिसके नाटक सुन चुका था, धर्मयुग और सारिका जैसी ख्यात पत्रिकाओं में जिसकी तस्वीरें और कहानियां लगातार देखता-पढ़ता रहता था,....जिसकी आंखों पर चढ़े काले चश्में के भीतर छुपी अनन्त कथाओं की दुनिया मेरे लिए कौतूहल का विषय थी! ...चाय आई। बेहद सुघड़ ढंग से व्यवस्थित कमरे में बैठे थे हमदोनों। कहीं कोई अतिरेक नहीं,...प्रदर्शनप्रियता नहीं। मेरी हर उत्सुकता के प्रति सम्मान-भाव और मेरी हर जिज्ञासा के लिए आत्मीय लहजे में समाधान।

वह जो थोड़ी देर पहले मेरी आत्मा के अतल में जो चटख रहा था, अब भी चटख रहा है।.... यादों की कौंध के साथ। ....अमली के प्रकाशित होते ही एक पोस्टकार्ड, जिसमें आशीष और शुभकामनाएँ और जल्दी मिलने का निमंत्रण था, मिला। ....मैं पहुँचा। मैंने कहा, मैं आपकी तरह आत्मीय कथाएँ लिखना चाहता हूँ। उन्होंने कहा, अपनी तरह लिखो। ज्यादा से ज्यादा पाठकों का भरोसा अर्जित करो।....वे जीवन भर अपनी तरह ही लिखते रहे। उन्होंने बदलते दौर के ट्रेंड की फिक्र किए बग़ैर अपनी भाषा की संवेदना, शिल्प के हुनर और कथ्य की बहुस्तरीयता को बरक़रार रखा। वे अपनी कथाओं को रचते हुए एक छोर पर कथ्य के अन्तद्र्वन्द्वों के लिए बेहद निर्मम होते थे तो दूसरे छोर पर इतने आत्मीय कि पाठक उनकी बाँह पकड़ चलता था।.... वे पाठकों के सहचर बने रहे। उन्होंने कभी आलोचना की दुरभिसंधियों की चिन्ता नहीं की और न ही उसका मुखापेक्षी बने।
    
....सूरज जा चुका है। क्षितिज की गोद में।.... मैं वसंत की उस दोपहर को याद कर रहा हूँ....सन् 1985 की दोपहर को, जब अपने द्वारा सम्पादित ‘बिहार के युवा हिन्दी कथाकार‘ पुस्तक की प्रति मुझे देते हुए उन्होंने कहा था कि ‘‘लेखक का काम केवल लिखना नहीं, अपने समय की युवा पगघ्वनियों की आहट को सुनना भी होता है!‘‘....मेरी यादें आत्मीयता के इस दुर्भिक्ष-काल में जीते हुए आदमी की यादें हैं। ....मैं जल्दी से जल्दी उन्हें एक बार फिर से पूरा का पूरा पढ़ना चाहता हूँ। नमन!

संस्मरण
फणीश्वरनाथ
रेणु : सोने की कलमवाला हीरामन

1. अन्याय को क्षमा
2. बंद कमरे का सफर
3. देहयात्रा
4. जागी आंखों का सपना
5. खुशबू बहुत है
6. दुल्हन बाजार
7. गवाह बेगमसराय

कहानी संग्रह
1. दस प्रतिनिधि कहानियां
2. अंधे आकाश का सूरज
3. नंगी खिड़कियों का घर
4. अजनबी होता हुआ मकान
5. आखिरी सांस का किराया
6. अग्निकुंड

सम्मान एवं पुरस्कार

१९६५
उदीयमान साहित्यिक पुरस्कार, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, बिहार सरकार
१९८०
कला एवं साहित्यिक सेवा के लिए विशेष सम्मान, मंथन कला परिषद्, खगौल
१९८६
हिंदी सेवा तथा श्रेष्ठ साहित्यिक सृजन के लिए सारस्वत सम्मान
१९८७
शिव पूजन सहाय पुरस्कार, राजभाषा विभाग, बिहार सरकार
१९९४
विशेष साहित्य सेवी सम्मान पुरस्कार, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, बिहार सरकार
१९९४
बिहार के साहित्यकारों की कृतियों को सम्म्पादित एवं प्रकाशित करने की दिशा में किये गए कार्यों के लिए ह्यमुरली सम्मान, शब्दांजलि, पटना
१९९९
हिंदी कथा-साहित्य की संमृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए राजभाषा विभाग, बिहार सरकार द्वारा फणीश्वर नाथ रेणु पुरस्कार
२००२
मसीही हिंदी साहित्य-रतन-सम्मान से काथलिक हिंदी साहित्य समिति (भारत के काथलिक की हिंदी समिति) द्वारा इलाहाबाद में
लघु फिल्म

पाबंदी-निर्माण एवं लेखन
आत्महत्या-लेखन एवं निर्देशन

प्रेम का अलग ही रूप दिखता था
पुष्प जी मेरे शहर मुंगेर के ही थे। उनके मुंगेर निवास के दौरान मैं व मेरे जैसे कई युवा साहित्यकार उनसे मिलने अक्सरहां जाते थे। वहां युवा लेखकों की एक मंडली थी जिसमें मैं, शमशाद सहर, राजेश, छंदराज, राधेश्याम मुक्त, आनंद कुमार आस आदि शामिल थे। हम लोग भी साहित्य सृजन में लगे रहते थे। इसी सिलसिले में उनसे मिलने जाते थे।
अपनी रचनाओं को लेकर उनसे सलाह-मशविरा लेते थे। उस समय उनकी गिनती देश के  वरिष्ठ साहित्यकारों में होती थी। उनकी लिखी रचनाएं साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग आदि में छपती रहती थी। इन कहानियों को पढ़कर हमारे जैसे युवा लेखक काफी प्रेरित होते थे। उनकी रचनाओं में प्रेम का एक अलग तरह का रूप देखने को मिलता था। पटना रहकर भी उनसे मिल न पाता था। इसका मलाल रह गया।
आलोक धन्वा (कवि)

रॉबिन के साथ एक शैली का हुआ अंत
रॉबिन शॉ पुष्प के निधन की खबर तकलीफदेह है। एक दोस्त चला गया। वे बताते हंै कि हमारा संबंध 40 वर्षों का था। बात उस समय की है जब मैं मुंगेर कॉलेज में पढ़ाता था। मेरी एक रचना धर्मयुग में छपी थी। जिस पर सधी प्रतिक्रिया रॉबिन ने दी थी। धीरे-धीरे हमदोनों के बीच निकटता बढ़ती गई। मेरी हर रचना पर पुष्पजी की प्रतिक्रिया सबसे पहले आती थी। वे हर अच्छी व बुरी बातें मुझसे साझा करते थे। गजब कि याददाश्त क्षमता उनकी थी। निराशावादी बातों को भी वे बड़े सहज भाव से परोसते थे। हर विधा में उनकी पकड़ थी। उनकी जैसी शैली उनके साथ ही चली गई। उनकी लेखनी मेें एक तिलिस्म था। हिन्दी व उर्दू के किसी लेखक में आगे ऐसी संभावना दूर तक दिखाई नहीं देती।  साहित्य के क्षेत्र में उनका निधन अपूरणीय क्षति है।
 -प्रो. जाबिर हुसैन (सहित्यकार)

उनसे मिलने का मलाल रह गया
पटना में वे अशोक राजपथ स्थित कॉन्वेंट स्कूल के पास काफी दिनों तक रहे। इस दौरान उनसे मिलने उनके घर जाता था। बहुत ही खुशमिजाज थे। हम युवा लेखकों को उनकी बातों से काफी कुछ सीखने को मिलता। बाद में वे भूतनाथ रोड में रहने चले गए। इसके बाद मिलने-जुलने का सिलसिला कुछ कम हो गया। इधर उनसे मिलने की इच्छा थी। उनसे न मिल पाने का बड़ा अफसोस रहेगा। वे सुरुचि संपन्न कथाकार के रूप में जाने जाते थे। एक ऐसा समय था जब वे साहित्य सृजन में काफी सक्रिय थे। उस समय हिन्दी, मैथिली, बांग्ला साहित्य के साहित्यकार व अध्यापक इकट्ठे बैठते थे। अपनी-अपनी भाषा के साहित्य पर चर्चा करते थे। अब तो उनकी यादें ही रह गईं हैं। पर उनकी रचनाएं हमें हमेशा प्रेरित करती रहेंगी।
-कवि अरुण कमल 

मेरे नॉवेल एक चादर मैली सी ने मुझे प्रसिद्ध बना दिया है। आंखिनदेखी की स्क्रिप्ट लिख रहा था कि मेरे आर्ट डायरेक्टर ने बताया कि पटना से रॉबिन शॉ पुष्प आए हैं। उन्होंने डाकबाबू फिल्म की कहानी, पटकथा और गीत भी लिखे हैं। इतना सुनते ही मैं खुद को रोक नहीं सका और रेस्ट हाउस पहुंच गया। वजह बस यही थी कि रॉबिन शॉ की कहानियों से मेरा गहरा रिश्ता रहा।
राजेंद्र सिंह बेदी

रॉबिन शॉ उन गिने-चुने इसाइयों में हैं, जिन्होंने हिन्दी साहित्य के संसार में भरपूर नाम कमाया। नि:संदेह श्री पुष्प आज हिन्दी के एक प्रतिष्ठित कथाकार हैं-नुकीले अनुभव, खंडों के कुशल शब्द शिल्पी, संवेदनाओं की जटिल ग्रंथियों के अनूठे कथाकार।
फादर कामिल बुल्के

रॉबिन शॉ पुष्प की कहानियां मैने हिन्दी की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में पढ़ी हैं और उनमें देर तक डूबा रहा हूं। उनमें कलात्मक निपुणता के साथ मर्म पर चोट करने की क्षमता है। पात्रों के मानसिक द्वंद्वों का उद्घाटन करने में माहिर हैं। मैं उनसे मिलने उनके घर मुंगेर गया था। वह जिस शालीनता से मेहमानों का सत्कार करते हैं, उसी शालीनता से लिखते भी हैं।
गोपाल दास नीरज

दस दिन पहले तो मिला था
अभी दस दिन तो पहले मिला था उनसे। कितने खुश थे वे। हाल ही में उनकी रचनावली प्रकाशित हुई है और इसे वे बार-बार मुझे दिखा रहे थे। लेकिन तब मुझे क्या पता था कि इतनी जल्दी साथ छूट जाएगा। वे एक अच्छे कथाकार तो थे ही बहुत अच्छे फिल्म पटकथा लेखक भी थे। उन्होंने कई लघु फिल्मों की पटकथा लिखी। बिहार में बहुत कम लोगों ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उनकी तरह का काम किया है। उनके लड़के सुमित आजमंड शॉ ने उनपर एक टेलीफिल्म भी बनाई है। मेरा तो उनसे बहुत पुराना संबंध था। जब वे मुंगेर रहते थे तब से मैं उनके यहां जाता था और वे मेरे यहां आते थे। अब यही समझें कि उनकी पहली कहानी 1957 में प्रकाशित हुई थी और मेरी पहली कविता 1958 में। हमारे संबंध पारिवारिक स्तर के थे। उनकी पत्नी भी बहुत अच्छी लेखिका हैं। वैसे वे मगध महिला कॉलेज में गृह विज्ञान विषय की शिक्षिका हैं। मुझे पता चला है कि आज ही वे अपना चेकअप कराकर लौटे थे। जब मैं उनसे मिलने गया था तब वे बीमार थे और रह-रह कर भूल जाते थे। इसके बावजूद वे हिन्दुस्तान में प्रकाशित होने वाले मेरे कॉलम को वे याद कर रहे थे।
-रवीन्द्र राजहंस(वरिष्ठ कवि)

अभी उन्हें और लिखना था
बहुत दुखद समाचार है। रॉबिन शॉ पुष्प का जाना मेरे लिए निजी नुकसान की तरह है। हमदोनों कॉलेज के जीवन के मित्र रहे हैं। मैं भागलपुर में रहकर पढ़ाई करता था और वे मुंगेर में। हम एक ही बैच के छात्र थे। अलग-अलग जगहों पर पढ़ाई-लिखाई होने के बावजूद हमारा मिलना-जुलना बराबर होता था। वे कॉलेज के समय से ही कहानियां लिखते थे। उनकी कहानियां मुख्य रूप से भारतीय इसाई समाज की समस्याओं को उभारती थी। उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे। बाद में मैं सुल्तानगंज में कॉलेज में अध्यापक हो गया और वे पटना चले आये। वे जब तक मुंगेर में रहे मैं बराबर उनके यहां जाता था और वे मेरे यहां आते थे। लेकिन वे निरंतर लिखते रहे। उनकी रचनाशीलता का कोई जवाब नहीं था। उनसे अभी भी उम्मीद बनी हुई थी कि वे कुछ लिखेंगे और हम जैसे लोग इसकी प्रतीक्षा में थे। वे न केवल अच्छे कहानीकार थे बल्कि साहित्य के प्रचारक और प्रसारक भी थे। सुप्रसिद्ध कवि गोपाल सिंह नेपाली जब भी मुंगेर आते थे तो पुष्पजी के यहां ही ठहरते थे। पटना आने के बाद भी वे फणीश्वर नाथ रेणु जैसे साहित्यकारों के काफी करीब थे।
-खगेन्द्र ठाकुर (वरिष्ठ समालोचक)

 

 

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