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कुर्बानी पर कुर्बान

आत्मसमर्पण या आत्मोत्सर्ग का ही नाम है ईद-ए-कुर्बा। इसको ईद-उल-अजहा भी कहते हैं। इस्लामी रिवायत में दो अहम ईद हैं। एक ईद-उल-फितर और दूसरी ईद-उल-अजहा। पूरे माह रोजे रखने के बाद ईद-उल-फितर आता है और...

कुर्बानी पर कुर्बान
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 05 Oct 2014 07:37 PM
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आत्मसमर्पण या आत्मोत्सर्ग का ही नाम है ईद-ए-कुर्बा। इसको ईद-उल-अजहा भी कहते हैं। इस्लामी रिवायत में दो अहम ईद हैं। एक ईद-उल-फितर और दूसरी ईद-उल-अजहा। पूरे माह रोजे रखने के बाद ईद-उल-फितर आता है और उसके 70 दिन बाद ईद-उल-अजहा का त्योहार। दोनों ही ईद का एक ही संदेश है- आत्मसमर्पण। यानी अल्लाह की राह में अपना सब कुछ कुर्बान कर दो। जज्बा-ए-तौहीद रखो। हज करो, यदि कर सको। जो नहीं कर सकते, उनको हज कराना भी सवाब है। हज जीवन में एक बार है। लोक-दिखावे की मनाही है। अगर आप पर जिम्मेदारियां हैं, तो पहले उन सब को पूरा करिए, फिर अगर हैसियत हो, तो हज पर जाएं। इस ईद का मतलब सिर्फ जानवरों की कुर्बानी नहीं है। हदीस  कहती है कि अल्लाह के पास तुम्हारा जज्बा जाएगा, जानवरों का गोश्त नहीं। जानवर लिया और कुर्बान कर दिया.. इसकी इजाजत नहीं है। उसको पालने को कहा गया है। पालने से जाहिर है उससे मुहब्बत होगी।

बीमार जानवरों की कुर्बानी करने को मना किया गया है। ईद-उल-फितर से लेकर मोहर्रम तक कुर्बानियों की ही दास्तां है। हर धर्म समर्पण ही तो मांगता है। कुर्बानी तो प्रतीक भर है। अल्लाह का हुक्म है कि अपनी खुशी में उन लोगों को भी शामिल करो, जो मोहताज हैं। इसलिए बाहैसियत शब्द का इस्तेमाल किया गया है। बड़े जानवरों में हिस्सा (शेयर) करने का भी प्रावधान है। बदलते दौर में, हर जगह दिखावा, स्वार्थ और बाजार हावी है। कोई कई बार हज करता है, तो तमाम लोग अल्लाह के घर का तवाफ करने और अलहुम्मा लब्बैक-लब्बैक कहने से महरूम रहते हैं। समाज के लिए कुर्बानी, दीन-दुखियों के लिए कुर्बानी, सामाजिक समरसता और समता का जो संदेश इस्लाम देता है, वह आज कहां दिखाई देता है? महंगे बकरे और गलत तरीकों से मोटे किए गए बकरे। अल्लाह खैर करे!

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