बढ़ती आत्महत्याओं को रोकने की जरूरत
आत्महत्या और बढ़ते तनाव को हम अक्सर आधुनिक विकास से जोड़कर देखते हैं। धारणा यह रही है कि जो देश जितना विकसित है, उसे यह समस्या उतनी ही परेशान करती है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट इसका खंडन...
आत्महत्या और बढ़ते तनाव को हम अक्सर आधुनिक विकास से जोड़कर देखते हैं। धारणा यह रही है कि जो देश जितना विकसित है, उसे यह समस्या उतनी ही परेशान करती है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट इसका खंडन करती है। रिपोर्ट के अनुसार, विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों के लोग अधिक आत्महत्या कर रहे हैं। इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि विकसित देशों में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों में खुदकुशी की दर अधिक है, जबकि विकासशील देशों में महिलाओं के बीच आत्महत्या की दर अधिक है। दुनिया में हर 40 सेकंड में एक व्यक्ति खुदकुशी करता है, यानी हर साल आठ लाख लोग।
आंकड़े यह भी खुलासा करते हैं कि आबादी के प्रतिशत के लिहाज से गुयाना, उत्तर कोरिया-दक्षिण कोरिया के हालात ज्यादा चिंताजनक हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, वैश्विक स्तर पर 15 से 29 वर्ष के आयु वर्ग में मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या को बताया गया है। इस आयु वर्ग में आत्महत्या की दर प्रति एक लाख आबादी पर 35.5 है। रिपोर्ट में अवसाद को आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण माना गया है। यह उम्र का वह पड़ाव है, जहां नौजवानों का सारा ध्यान करियर बनाने की ओर अधिक होता है।
आत्महत्या के मामले में भारत की स्थिति काफी चिंताजनक है। रिपोर्ट बताती है कि 2012 में भारत में करीब ढाई लाख से अधिक लोगों ने आत्महत्या की, जिनमें डेढ़ लाख से अधिक पुरुष और एक लाख के करीब महिलाएं थीं। भारत में प्रति एक लाख आबादी पर आत्महत्या की दर औसतन 21.1 रही। यह अध्ययन नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आकड़ों का समर्थन करता है। पूरी दुनिया में खुदकुशी करने वाले कुलजमा लोगों में 21 फीसदी से भी अधिक भारतीय हैं। भारत में 37.8 फीसदी खुदकुशी करने वाले 30 वर्ष से भी कम उम्र के हैं। 44 वर्ष तक की उम्र में आत्महत्या की दर 71 फीसदी तक बढ़ी है। केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में आत्महत्याओं की कुल घटनाओं का 56.2 फीसदी रिकॉर्ड किया गया। उत्तर भारत की स्थिति इतनी बुरी नहीं है।
आत्महत्या कोई बीमारी या महामारी नहीं है, इसलिए इसके आंकड़े को अक्सर गंभीरता से नहीं लिया जाता। इसे रोकने के लिए न तो बड़े पैमाने पर कोई कोशिश होती है और न ही इसके लिए नीतियां ही बनती हैं। इसे एक खास तरह की मानसिक स्थिति का परिणाम माना जाता है। एक खास अर्थ में यह बीमारी या महामारी न हो, पर यह सामाजिक स्तर पर बीमारी भी है और कुछ हद तक महामारी भी। आत्महत्याओं का बढ़ना यह बताता है कि हमें अपने समाज के रंग-ढंग में बहुत कुछ बदलना होगा। उन हालात को खत्म करना होगा, जिनमें अवसाद पैदा होता है और उसका इलाज नहीं हो पाता। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट इसकी शुरुआत कर सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)