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कूटनीति को फास्ट फूड न बनाएं

चीन के राष्ट्रपति से भारत क्या हासिल कर सका? क्या शी जिनपिंग अपनी पत्नी के साथ तीन दिन के लिए भारत में राजकीय पिकनिक पर आए थे और नरेंद्र मोदी उनके बेहतरीन मेजबान साबित हुए? अगर मोदी जिनपिंग से 1962...

कूटनीति को फास्ट फूड न बनाएं
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 20 Sep 2014 08:38 PM
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चीन के राष्ट्रपति से भारत क्या हासिल कर सका? क्या शी जिनपिंग अपनी पत्नी के साथ तीन दिन के लिए भारत में राजकीय पिकनिक पर आए थे और नरेंद्र मोदी उनके बेहतरीन मेजबान साबित हुए? अगर मोदी जिनपिंग से 1962 में चीन द्वारा कब्जाई गई जमीन वापस नहीं ले पाए, तो फिर इस यात्रा को सफल कैसे कहा जा सकता है? जो लोग ऐसी मुलाकातों से तुरत-फुरत सब कुछ हासिल करने की उम्मीद पाल बैठे थे, वे गलत हैं। ‘फास्ट फूड’ और ‘डिप्लोमेसी’ में अंतर होता है। क्यों? रूस से बात शुरू करता हूं। सोवियत संघ के विघटन के बाद से तमाम रूसी राष्ट्रपतियों पर आरोप लगता रहा है कि वे अमेरिका की कठपुतली हैं। अति राष्ट्रवादी इसे अपने देश के सम्मान से समझौता बताते रहे हैं। इस तबके के लोगों का मानना है कि रूस को वामपंथ के उन जीर्ण-शीर्ण दिनों में लौट जाना चाहिए, जहां कार्ल मार्क्स और लेनिन के सपने चूर-चूर हो गए थे। ऐसे लोगों और प्रगतिकामी रूसियों ने पुतिन में एक ऐसा अवतार देखा, जो कभी महाशक्ति रहे इस देश की खोई आन-बान-शान को वापस लौटा सकता है। कभी ‘केजीबी’ के मुखिया रहे व्लादिमीर पुतिन इन भावनाओं को समझते हैं। इसीलिए वह जब-तब रूसी राष्ट्रवाद की जुगाली करते रहते हैं, पर क्या मॉस्को इस बयानबाजी से पुराने वैभव को हासिल कर सका है? इसी तरह, अमेरिकी राष्ट्रपति भी रूस पर तमाम तरह के प्रतिबंध थोपने की बातें करते रहते हैं, पर क्या वाशिंगटन के रणनीतिकार रूस को अपना उपनिवेश बना सके? कूटनीति शह और मात का नहीं, बल्कि कभी खत्म न होने वाले दांव-पेच का नाम है। इसे आनन-फानन में हासिल होने वाले नतीजों से जोड़ना समझदारी नहीं होगी।

अब आते हैं भारत-चीन रिश्तों पर। हम सब जानते हैं, 1914 में तत्कालीन ब्रिटिश-हुकूमत में भारत के विदेश सचिव का ओहदा संभाल रहे सर हेनरी मैकमोहन और तिब्बत के बीच सीमा समझौता हुआ था। उस समय सरहदों पर एक लाइन खींची गई, जिसे ‘मैकमोहन रेखा’ के नाम से जाना जाता है। तिब्बत पर चीन के कब्जे और दलाई लामा के निर्वासन के बाद से भारत-चीन की फौजें जब-तब सीमा के स्वरूप पर एक-दूसरे को आंखें दिखाती नजर आती हैं। मैं 1962 की जंग के काले दिनों को पहले आपसे साझा कर चुका हूं। वह युद्ध हमने सैनिक तैयारी की जगह काव्यात्मक भावुकता से साथ लड़ा था। नतीजा सामने है। पर भारत ने उस शिकस्त से सीखा क्या? प्रसंगवश एक और सवाल उठाता हूं। शताब्दियों से हम हिन्दुस्तानी अपनी हार से कुछ सीखते क्यों नहीं हैं? ईसा से 326 साल पहले सिकंदर आया था और 1962 में चीनी। हम अधिकांश लड़ाइयों में परास्त होते रहे। हमने अपनी इन हताशाओं से कोई सबक नहीं लिया।

पता नहीं आप कारगिल की लड़ाई से पहले कभी लेह के दुर्गम इलाकों में गए हैं या नहीं? मालूम नहीं, आपने पूर्वोत्तर के दुर्गम क्षेत्रों को कितना परखा है? मुझे वहां की दुर्दशा देखने का मौका मिला है। वहां रहने वाले हमारे देशवासी सड़क, पानी और बिजली के सपने बुनते हैं। पाठशालाएं कोसों दूर हैं और अस्पतालों का पता नहीं। उधर चीन ने ल्हासा तक ट्रेन की पटरी बिछा दी है और हमारी सीमा तक उसकी सड़कें आती हैं। 1962 के  बाद के 50 सालों में हमें जितना काम इन वीरानों में करना चाहिए था, उसका दसवां हिस्सा भी नहीं हुआ है। मौजूदा सरकार ने सत्ता संभालते ही पूर्वोत्तर राज्यों का अलग मंत्रालय गठित कर अपनी नेकनीयती जाहिर की है, पर ढांचागत सुविधाएं रातोंरात नहीं हासिल की जा सकतीं। इसके लिए समय चाहिए और वक्त हमारे पास है नहीं। चीन ने अपनी ताकत कुछ दशकों में दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ाई है। यही नहीं, उसने मालदीव, नेपाल, श्रीलंका जैसे पड़ोसियों के मन में वैर-भाव बोने की भी कोशिश की है।

बांग्लादेश से बीजिंग सामरिक रिश्ते बनाना चाहता है, म्यांमार के साथ वह ऐसा कर चुका है। हिंद महासागर पर कब्जे का उसका सपना दिनोंदिन पुख्ता होता जा रहा है। ऐसे में हम क्या करें? यहीं से कूटनीति की भूमिका शुरू होती है। आप याद करें। जनता पार्टी की हुकूमत के दिनों में अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री हुआ करते थे। 1962 के बाद वह पहले भारतीय नेता थे, जिन्होंने बीजिंग जाकर रिश्तों पर जमे पाले को पिघलाने की कोशिश की थी। बाद में राजीव गांधी ने उसे आगे बढ़ाया। अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह का भी चीन के प्रति नजरिया साफ था- ‘सतर्क रहो, विवादास्पद मुद्दों पर अधिकारियों के स्तर पर बात करो और कारोबार को बढ़ाओ। युद्ध के दिन लद चुके हैं।’ इन नेताओं का मानना था कि सीमा विवाद सुलझाने के लिए जरूरी है कि पहले संबंधों में पड़ी छोटी-मोटी गांठें खोल ली जाएं। मैं खुद मनमोहन सिंह के साथ बीजिंग गया था। चीन के अधिकारियों की गर्मजोशी देखने लायक थी। रूस हमारा पुराना मित्र है, पर मॉस्को जाने पर काफी रूखा-सूखा व्यवहार मिला था। बीजिंग में बाहर हड्डियां चीर देने वाली ठंड थी, पर अंदर हम सब गर्मजोशी के सोते में डुबकी लगा रहे थे। मैं अचरज में था कि ये लोग ऐसी मेहमाननवाजी क्यों कर रहे हैं! बाद में समझ आया कि ड्रैगन के मन में भी पुरानी अदावत भुलाने की इच्छा जोर मार रही है। आधुनिक विश्व की सबसे बड़ी जरूरत यही है कि हम अपने पुराने मतभेदों को जल्द से जल्द खत्म कर गुरबत और आतंकवाद से जूझ सकें।

प्रसंगवश बताता चलूं। जब कारगिल में पाकिस्तानी फौज घुस आई थी, हमारी खुफिया एजेंसियां और सेना आदतन तंद्रा में थीं। कहते हैं कि तत्कालीन पाकिस्तानी सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ उन दिनों बीजिंग के दौरे पर थे। वहां से उन्होंने अपने जनरलों से कारगिल का हालचाल जानना चाहा। चीन की खुफिया एजेंसियों ने इस बातचीत को सुन लिया। उनके कान खड़े हो गए। उनके पड़ोस की दो परमाणु ताकतें जूझने जा रही थीं। बीजिंग की एजेंसियों ने अमेरिका को इसकी इत्तला दी और वाशिंगटन ने नई दिल्ली को चेताया। पाकिस्तान के मशहूर पत्रकार नजम सेठी ने इस तथ्य का खुलासा किया था। यह बात अलग है कि हिन्दुस्तान में माना जाता है कि एक चरवाहे ने कारगिल की सरजमीं पर जमी पाकिस्तानी फौज को देखा और हमारी सेना को सतर्क किया। इसके बाद जो हुआ, सब जानते हैं।
अब आते हैं शी जिनपिंग के स्वागत पर।

अगर बीजिंग में चीन के लोग हमारा खैर-मकदम करते हैं, तो भला हमें क्यों उनके स्वागत में कोई कसर छोड़नी चाहिए? अब तक मैं चीनी सत्तानायकों के भावहीन चेहरे देखता और पढ़ता आया हूं। उन्हें देखकर लगता ही नहीं था कि वे संबंध सुधारने के इच्छुक हैं, पर अहमदाबाद में नरेंद्र मोदी और जिनपिंग को एक ही झूले पर झूलते देखकर एहसास हुआ कि दोनों राजनेताओं के बीच अब तक अपरिचित रही केमिस्ट्री पनप रही है। कूटनीति भावना रहित होती है, पर उन्हें चलाने वाले इंसानों की सदिच्छाएं उन पर जरूर असर डालती हैं। सोवियत संघ के तत्कालीन अगुवा लियोनिद ब्रेझनेव और इंदिरा गांधी की गरिमापूर्ण मित्रता ने भारत-रूस रिश्तों को कहां से कहां पहुंचा दिया था। क्या मोदी और जिनपिंग इतिहास को नए संदर्भों और प्रसंगों में दोहराने जा रहे हैं? इसके जवाब के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा। मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूं कि कूटनीति में फैसले तुरत-फुरत नहीं होते।

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