टीप मार के भागने का परमानंद
पुराने दिनों में हमारे यहां अमेरिकी जूठन भोजन का अंग नहीं थी। लोग आज की तरह यूरिया नहीं खाते-पीते थे। धरती एक साल छोड़ के बांझ नहीं होती थी और आकाश भी कभी बासी फूल नहीं बरसाता था। अच्छे दिनों को...
पुराने दिनों में हमारे यहां अमेरिकी जूठन भोजन का अंग नहीं थी। लोग आज की तरह यूरिया नहीं खाते-पीते थे। धरती एक साल छोड़ के बांझ नहीं होती थी और आकाश भी कभी बासी फूल नहीं बरसाता था। अच्छे दिनों को हांका देकर ठेला जाता था कि कहीं सचमुच में न आ जाएं। सौ बार अग्नि परीक्षा दे चुकी सीता हर साल रामलीला में ऐलानिया नया स्वयंवर रचती थी। कहते हैं कि धनुष तोड़ने की प्रैक्टिस तो रामजी अयोध्या से ही करके आए थे। लक्ष्मण जी यूं ही गुस्सा थोड़े न थे। मित्रो, मेरी फरमाइशी व्यंग्य रचनाओं से यदि आप कोई अर्थ निकाल सकें, तो वही व्यंग्यार्थ होगा। मैं अपनी तरफ से कुछ नहीं करता। यही चतुराई है। व्यंग्य लेखन हमारे यहां पुरुषार्थ है। यह पुरुषों का अधिकार क्षेत्र है। इस क्षेत्र में महिलाएं नहीं हैं। महिलाएं तो व्यंग्य का कारण हैं। उन्हीं की कोशिशों से पुरुष चिड़चिड़ा और कटखना होता है। एक अच्छे-खासे कवि थे। पुलिस महकमे में कार्यरत एक कन्या से विवाह कर लिया। हनीमून से लौटते ही व्यंग्यकार हो गए। व्यंग्य में प्रेमिकाएं नहीं होतीं। कविता में होती हैं।
जो लालची नहीं, वह नेता नहीं। जो नकलची नहीं, वह अभिनेता नहीं। जवानी और मां-बाप जीवन में बार-बार नहीं मिलते। जिस चदरिया में दाग न लगा, वह ओढ़ी ही क्यों? मुर्दे को जलाओ या दफ्न करो, उसकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। धर्म तब तक है, जब तक कि अधर्म करने की सुविधा हो। उतारना नहीं आता, तो खुपरिया पर चढ़ाया क्यों? पूत के पांव देखकर ही पालना पसंद करना चाहिए। वरना कांग्रेस की तरह रहने से क्या लाभ? ऐसी मौत से तो जिंदगी भली। दरअसल, कवि वह होता है, जो चश्मा पहनकर चश्मा ढूंढ़ता है। व्यंग्यकार तो सामाजिक वारदातों का चश्मदीद गवाह होता है। वह सच को नहीं खोजता, झूठ की तलाशी लेता है। परपीड़ा का जो आनंद व्यंग्य में है, वह परमानंद में कहां? इंसानी फितरत है कि वह कोई न कोई भूत पाले रहता है। जिसका भूत नहीं, उसका भविष्य भी नहीं। व्यंग्य केवल वर्तमान में रहता है। मुर्दे का अभिनय करने के लिए अभिनेता को जिंदा तो होना ही चाहिए।