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विष्णुगढ़ में है उदासी संप्रदाय का चार सौ साल पुराना गुरुद्वारा

विष्णुगढ़ स्थित रमुवां का गुरुद्वारा आज कौमी एकता की मिसाल बन चुका है। करीब चार सौ साल पहले बने इस गुरुद्वारे की खासियत यह है कि इसकी देखभाल की जिम्मेदारी कालीचरण पांडेय नामक ब्राह्मण निभा रहे हैं।...

विष्णुगढ़ में है उदासी संप्रदाय का चार सौ साल पुराना गुरुद्वारा
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 03 Sep 2015 09:23 PM
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विष्णुगढ़ स्थित रमुवां का गुरुद्वारा आज कौमी एकता की मिसाल बन चुका है। करीब चार सौ साल पहले बने इस गुरुद्वारे की खासियत यह है कि इसकी देखभाल की जिम्मेदारी कालीचरण पांडेय नामक ब्राह्मण निभा रहे हैं।

नानकशाही संप्रदाय से जुड़ा यह गुरुद्वारा हिंदुओं की पौराणिक धर्मस्थली के रूप में भी प्रसिद्घ है। अब भी यहां गुरु नानक देव जी के उदासी संप्रदाय के तहत पूजा-अर्चना की जाती है। विष्णुगढ़ क्षेत्र में दूरदराज से पधारे साधु-संतों के आश्रय, सेवा- सुश्रूषा तथा भोजनादि के लिए रामगढ़ राजा ने उदासी संप्रदाय से जुड़े महंत बनमटल दास को करीब पांच सौ साल पहले नियुक्त किया था।

इसके लिए उन्हें रमुवां, अलगडीहा तथा बेलाटांड़ मौजा से भू-राजस्व उगाही का अधिकार दिया गया। बताया जाता है कि महंत बनमटल दास ने ही अपने गुरु की समाधि के रूप में इस गुरुद्वारे का निर्माण लगभग चार सौ साल पूर्व कराया था। आज भी गुरुद्वारे की मोटी-मोटी दीवारें तथा इसकी वास्तुशैली अचरज में डालती है।

घनघोर जंगल से घिरा यह इलाका तब साधुओं की तपस्थली के रूप में विख्यात था। महंत बनमटल दास के बाद क्रमश: महंत दयाल दास, महंत स्वरूपनारायण दास, महंत केशव दास गुरु नानकशाही संप्रदाय की शिष्यता ग्रहण कर उनके उत्तराधिकारी बने। महंत केशव दास के बाद 1977 से उनके भतीजे कालीचरण पांडेय गुरुद्वारे में पूजा-पाठ तथा देखरेख की जिम्मेवारी निभा रहे हैं। वर्ष 2002 में इसका जीर्णोद्धार किया गया। वर्तमान में गुरुद्वारा की इस भूमि पर भू-माफियाओं द्वारा अवैध कब्जा किए जाने से इसका अस्तित्व सिमटने के कगार पर है।

क्या है उदासी संप्रदाय
गुरुनानक देव जब राजगीर, गया सहित बिहार के कई इलाकों में आए, तो उनके कई अनुयायी बने। रांची के डोरंडा कॉलेज के कॉमर्स के व्याख्याता और मेन रोड गुरुद्वारा के पूर्व सेक्रेटरी प्रो एचबी सिंह कहते हैं कि गुरु नानक के कई अनुयायियों ने उनकी विचारधारा को मानना शुरू कर दिया। उसी तरह जीवन यापन करने लगे। हालांकि वे लोग सिख नहीं हुए। उन्हें उदासी संप्रदाय का कहा जाने लगा।

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