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मरीजों को हम मर्ज का सच क्यों नहीं बताते

यह देखा गया है कि कैंसर के मामले में ज्यादातर मरीजों के पास या तो कई तरह की गलत सूचनाएं होती हैं या फिर उन्हें कुछ बताया ही नहीं जाता। मरीजों को यह पता नहीं होता कि उनका भविष्य क्या है? उनका मर्ज...

मरीजों को हम मर्ज का सच क्यों नहीं बताते
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 28 Jul 2016 09:58 PM
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यह देखा गया है कि कैंसर के मामले में ज्यादातर मरीजों के पास या तो कई तरह की गलत सूचनाएं होती हैं या फिर उन्हें कुछ बताया ही नहीं जाता। मरीजों को यह पता नहीं होता कि उनका भविष्य क्या है? उनका मर्ज उन्हें कहां ले जाएगा? साल 1995 में ‘द इन्फ्लूएंशल सपोर्ट स्टडी’ के लेखकों ने बताया था कि लाइलाज कैंसर से लड़ने वाले मरीजों को अगर उनकी बीमारी व इलाज को लेकर सही जानकारी दे दी जाए, तो उन्हें इस उलझन से बाहर निकलने में सहूलियत मिल सकती है कि मौत को कुछ वक्त तक टालने वाला दर्द से भरा इलाज वे करवाएं या फिर आरामदायक देखभाल के भरोसे रहें।

बाद के वर्षों में न्यू इंग्लैंड जर्नल  में प्रकाशित अध्ययनों में भी यह बात सामने आई थी कि लाइलाज कैंसर से लड़ रहे दो-तिहाई मरीजों में यह भ्रम था कि कीमोथेरेपी से उनका जीवन बच जाएगा। यह तस्वीर ज्यादा सुधरी नहीं है। इसकी पुष्टि हाल में आया अमेरिकी मेडिकल एसोसिएशन का अध्ययन भी कर रहा है।

इस अध्ययन में 236 कैंसर मरीजों से पूछा गया कि अगले दो-तीन साल तक जीवित रहने की उन्हें कितनी उम्मीद है? जबकि उन्हीं मरीजों का इलाज कर रहे कैंसर विशेषज्ञों से पूछा गया कि मरीज के दो-तीन वर्ष तक जीवित रहने की कितनी संभावना है? दिलचस्प है कि 89 फीसदी मरीजों को नहीं पता था कि उनकी और उनके डॉक्टर की राय जुदा है। गलत आकलन करने वाले ज्यादातर मरीजों की इच्छा यही थी कि काश, जीवन के आखिरी वक्त में उन्हें दर्द से निजात दिलाने वाला इलाज मिले। बेशक रोग व इलाज या दवा को लेकर दोनों पक्षों की अपनी चुनौतियां हैं, मगर इलाज पर यदि भरोसा है, तो ये बाधाएं टूटनी चाहिए।

हर साल तकरीबन 70 लाख लोग कैंसर से मरते हैं। विकसित देशों के मुकाबले विकासशील देशों में मौत का आंकड़ा ज्यादा है। जहां कीमोथेरेपी उपलब्ध नहीं और मरीज मॉर्फीन पाने के लिए जद्दोजहद करते हैं, वहां डॉक्टरों व मरीजों में संवाद बिल्कुल नहीं होता है। मगर दुनिया के कई ऑन्कोलॉजिस्ट के लिए मरीजों के साथ संवाद करना अब व्यक्तिगत रूप से महत्वपूर्ण हो चला है। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि वे जान-बूझकर दुखद समाचार छिपाते नहीं हैं, मगर यदि हमारे मरीज को कोई रास्ता नहीं सूझता, तो हम उनकी इसमें मदद करते हैं।

मरीजों को भी बदलाव के लिए अपनी ताकत दिखानी चाहिए। अगर वे सच जानने के इच्छुक हैं, तो उन्हें यह सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। आप अपने डॉक्टर से अपनी बीमारी को लेकर जागरूक बन सकते हैं, और रोग को करीब से जान सकते हैं। बेशक हम सभी अपने लिए सुकूनदेह स्वाभाविक मौत चाहते हैं, मगर हम जानते हैं कि सभी की मृत्यु एक जैसी नहीं होती। इलाज के बावजूद उनकी मौत में पर्याप्त असमानता होती है। हमें यही तस्वीर बदलनी है। इलाज में सच को शामिल करना होगा।
साभार- द गार्जियन
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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