देश की सेना को सेना ही बने रहने दें
पठानकोट कांड के साथ ही उसके पहले की कई आतंकवादी कार्रवाइयों में एक समानता थी। इन घटनाओं को जिन लोगों ने अंजाम दिया, वे सभी भारतीय सेना की पोशाक पहने हुए थे। इन आतंकवादी आक्रमणकारियों का उद्देश्य सेना...
पठानकोट कांड के साथ ही उसके पहले की कई आतंकवादी कार्रवाइयों में एक समानता थी। इन घटनाओं को जिन लोगों ने अंजाम दिया, वे सभी भारतीय सेना की पोशाक पहने हुए थे। इन आतंकवादी आक्रमणकारियों का उद्देश्य सेना को भुलावे में रखना था, जिससे वे बिना किसी परेशानी के अपने लक्ष्य तक पहुंच सकें। उनकी पोशाक देखकर वहां तैनात जवानों का भ्रमित होना स्वाभाविक था। इस कारण वे तुरंत वह कार्रवाई नहीं कर सके, जो उन्हें आतंकवादियों को देखते ही करनी चाहिए थी। वैसे यह ऐसी समस्या है, जिससे आतंक से पीड़ित दुनिया के सभी देश कम या ज्यादा गुजर रहे हैं। सैनिक वर्दी जिस कपड़े से बनती है, वह बाजार में आसानी से उपलब्ध हो जाता है। भारतीय सेना के अधिकारियों ने अपनी ओर से ऐसे कपड़ों की खरीद व बिक्री रोकने की कोशिश की है, मगर इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। यह आसान भी नहीं है। सैनिक पोशाक की पतलूनें और जैकेट आजकल युवाओं के फैशन में आ गई हैं।
मिलिट्री पोशाक आसानी से पहचान में आने वाली होती है और उसे पहनने वाले के प्रति लोगों में एक विशेष प्रकार के आदर-सम्मान की भावना रहती है। जवान जब फील्ड पर जा रहे होते हैं, उस वक्त यह यूनीफॉर्म उनकी आक्रामकता का परिचय भी देती है। जन-साधारण के मन में इसे देखकर एक प्रकार का भय भी होता है। इसका रंग आमतौर पर ऐसा होता है कि इसे पहनने वाले सैनिक को जंगलों की पृष्ठभूमि में दूर से जल्दी देखा न जा सके। मोटे कपड़़े से बनी यह वर्दी बहुत आरामदेह नहीं होती, हालांकि विपरीत स्थितियों में काम करने वाले सैनिकों को यह मौसम की अति से बचाती है। लेकिन सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि सैनिक वर्दी सेना के जवानों को आम नागरिकों से अलग करती है।
इसी वर्दी की वजह से ड्यूटी पर तैनात एक सैनिक को आप एक आम नागरिक से अलग पहचान सकते हैं। दुनिया के ज्यादातर देशों में प्राचीन काल से सैनिक वेषभूषा का इस्तेमाल सैनिकों की नागरिकों से अलग पहचान के लिए किया जाता रहा है। सिर्फ खुफिया कामों में लगाए गए सैनिक ही इसका अपवाद होते हैं। लेकिन वर्दी की आसान उपलब्धता के कारण यह अंतर घटता जा रहा है, जिसका फायदा समय-समय पर आतंकी उठाते हैं।
आम नागरिक और सेना की अलग पहचान का मिटना अब वर्दी के अलावा भी कई जगहों पर दिखने लगा है। अभी कुछ दिनों पहले ही आयोजित ‘बीटिंग द रिट्रीट’ में देखने को मिला कि सशस्त्र पुलिस और पारा-मिलिट्री सैनिक बैंड के साथ ही फिल्मी गानों की धुन बजा रहे थे, जो सेना की गरिमा व परंपरा के अनुकूल तो बिल्कुल ही नहीं था। सेना का यह प्रदर्शन तो एक तमाशा भर बनकर रह गया। वहां मौजूद आला अफसर भी मूक दर्शक बने रहे। आज जरूरत इस बात की है कि सेना को सेना बने रहने दिया जाए। उनको प्रशासन, पुलिस और नागरिकों से दूर रखा जाए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)