अफ्रीका से दोस्ती का अर्थ
कुछ दोपहर ऊपर से बोझिल और बांझ दिखाई पड़ती हैं, पर अंदर ही अंदर उनमें से खूबसूरत खयालों के कल्ले फूट रहे होते हैं। ऐसा एक अनुभव 1997 की कष्ट भरी दोपहर में मुझे भी हुआ। हम तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्र...
कुछ दोपहर ऊपर से बोझिल और बांझ दिखाई पड़ती हैं, पर अंदर ही अंदर उनमें से खूबसूरत खयालों के कल्ले फूट रहे होते हैं। ऐसा एक अनुभव 1997 की कष्ट भरी दोपहर में मुझे भी हुआ। हम तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के साथ युगांडा, दक्षिण अफ्रीका और मिस्र के आधिकारिक दौरे पर थे। कंपाला में मुझे जूड़ी चढ़ी और तेज कंपकंपाहट के साथ बुखार आ गया। प्रधानमंत्री के चिकित्सक से दवा मांगी, तो उन्होंने दो दिन की खुराक थमा दी। मैंने पूछा, इतने से क्या होगा? उन्होंने बताया कि उनके पास स्टॉक सीमित है और बाकी दवाएं पीएम के लिए सुरक्षित रख छोड़ी हैं। कांपती देह और थरथराते मन को लेकर मैं जोहानिसबर्ग पहुंचा। वहां से हम डरबन आए, पर तब तक शरीर इतना अशक्त हो चुका था कि खबर भेजने तक का माद्दा नहीं रह बचा था। डरबन के होटल में कई कंबल में ढंका-छिपा मैं पलंग पर बैठा- बाहर हिन्द महासागर में उठती लहरों को देख रहा था। अचानक खयाल आया कि यह महासागर हमें अफ्रीका से जोड़ता है। अगले ही पल दूसरा विचार उभरा- या, अलग करता है?
शाम घिर आने तक सोचते-गुनते कई पहेलियां मन को उलझा गईं।
अफ्रीका वह महाद्वीप है, जहां से हजारों साल पहले इंसान ने बाहरी दुनिया की ओर कदम रखे थे। मानव जाति का यह पहला बड़ा पलायन था। खुद को अपनी जमीन से दूर करना अगर कष्टप्रद होता है, तो कभी-कभी लाभ भी पहुंचाता है। बाहर गए लोगों को क्या फायदा-नुकसान हुआ, इस पर चर्चा फिर कभी, मगर अफ्रीका आज कहां है? क्या वह अभी तक वनवासी कबीलों का महाद्वीप है? अथवा, संसार की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था? द्वैत देखना हो तो यहां आइए। अफ्रीका रोमांचित करता है।
शायद यही रोमांच 'शिकागो ट्रिब्यून' में अच्छी-भली नौकरी कर रहे पॉल सालोपेक को उस रास्ते पर चलने के लिए इथियोपिया खींच लाया, जहां से पहली बार आदम और हव्वा की कुछ संतानों ने बाहर निकलने की ठानी थी। पॉल करीब 34 हजार किलोमीटर लंबे इस रास्ते पर अभी पांच साल और चलने वाले हैं। पिछले दो वर्ष से वह इस राह पर हैं और उनके अनुभव गजब के हैं- कुछ काव्यात्मक, तो कुछ बेहद सटीक। उन्होंने सामाजिक-आर्थिक विश्लेषणों के जरिए अफ्रीका को आधुनिक विश्व से रूबरू कराने की ठानी है।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ कुछ पत्रकार, समाजसेवी, दार्शनिक या साहित्यकार इस जादुई धरती से रोमांचित होते हैं। इस समय अफ्रीका आर्थिक चेतना की अंगड़ाई ले रहा है और पूरी दुनिया के व्यवसायियों की नजर उस पर जमी हुई है। भारत इनमें से एक है। नई दिल्ली ने पिछले हफ्ते 'भारत-अफ्रीका फोरम समिट' की अगवानी की। इसमें अफ्रीका के 54 देशों के शासनाध्यक्षों अथवा शीर्ष अधिकारियों ने शिरकत की। यकीनन भारत और अफ्रीका के रिश्तों में यह एक अहम मुकाम था। याद करें। आजादी के तत्काल बाद जवाहर लाल नेहरू ने मार्शल टीटो और नासिर जैसे तमाम अफ्रो-एशियाई नेताओं के साथ विश्व कूटनीति में तीसरे ध्रुव की रचना की थी। उन दिनों अमेरिका और सोवियत संघ शीतयुद्ध में उलझे हुए थे। उनका प्रयास रहता था कि दुनिया के जो देश हमारे साथ नहीं हैं, उन्हें शत्रुपक्ष का मान लिया जाए, पर तमाम निर्धन मुल्क ऐसे थे, जो किसी के साथ न थे।
उन्हें कोई अपने साथ रखना भी नहीं चाहता था। इस रिक्ति को नेहरू, नासिर और टीटो की तिकड़ी ने भरा। 'गुट निरपेक्ष' के नाम से एक नया गुट बना, जिसने अगले साढे़ चार दशक, यानी सोवियत संघ के पतन तक अहम भूमिका निभाई। आज हालात बदल गए हैं। एक तरफ विकसित देश हैं, तो दूसरी ओर विकासशील। संचार माध्यमों ने धरती के प्राणियों को आपस में जोड़ दिया है। करीब एक लाख साल पहले जब अफ्रीकी मानव बाहर निकले थे, तब उनके मन में अबूझ जिज्ञासाएं रही होंगी। आज इंटरनेट और महाद्वीपीय व्यापार ने बहुत-सी पहेलियों को सुलझा दिया है और सबको विकास के नए आयाम दिए हैं। ऐसे में, भारत की यह पहल कई तरह से लाभप्रद होने जा रही है।
पहला फायदा तो यह होगा कि भारतीय कंपनियों को बहुराष्ट्रीय बनने में सुविधा होगी। 2009-10 में भारत और अफ्रीका के बीच 39 अरब डॉलर का कारोबार हुआ करता था। 2014-15 में यह 71.4 अरब डॉलर जा पहुंचा। अगले पांच साल में इसमें बेहद तीव्र बढ़ोतरी होने का अनुमान है। इससे इस भूभाग में रहने वाले गरीब-गुरबों और उपेक्षित लोगों तक तरक्की की रोशनी पहुंचेगी।
यहां गौरतलब है कि चीन ने 1950 से 80 के दौरान अफ्रीका में भारत के बढ़ते भावनात्मक प्रभाव को देखते हुए पिछले दो दशकों में इस महाद्वीप में बड़ी मात्रा में धन खर्च किया। 1997 के अफ्रीकी दौरे के दौरान मुझे वहां चीन की उपस्थिति नाममात्र की लगती थी। दस बरस बीतने के बाद, 2008 में जगह-जगह चीनी इमदाद और आमद के प्रमाण दिखने लगे थे। हम साफ तौर पर पिछड़ रहे थे।
नई दिल्ली ने इसे महसूस किया और उसी साल 'भारत-अफ्रीका फोरम समिट' की पहली बैठक हुई। अफसोस इस बात का है कि तब से अब तक इन रिश्तों में जो प्रगति होनी चाहिए थी, उसकी रफ्तार उम्मीद से कम है। 'दिल्ली समिट' इसमें बड़ी भूमिका अदा करेगी। इससे हमारे चिर प्रतिद्वंद्वी चीन के विस्तार पर भी अंकुश लगेगा। यह दूसरा फायदा है। तीसरा लाभ, भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता मिले, इसमें इन अफ्रीकी देशों के मत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। चौथा फायदा आतंकवाद से हमारी लड़ाई में मिलेगा। अफ्रीका अल कायदा, बोको हराम और अल शादाब जैसे दहशतगर्द संगठनों का प्रमुख गढ़ है। इन संगठनों की दखल ने कई देशों की अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर लिया है।
बरसों पहले खबर फैली थी कि दाऊद इब्राहिम दक्षिण अफ्रीका से क्रिकेट की सट्टेबाजी, तस्करी और भारत में दहशतगर्दी को बढ़ावा दे रहा है। अफ्रीकी देशों से दोस्ती से हमें इस तरह के तत्वों पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। इनके अलावा जलमार्गों की सुरक्षा, हिन्द महासागर पर चीन के कब्जे की कोशिश, मादक पदार्थों और मानव तस्करी पर रोक के लिहाज से भी भारत और अफ्रीकी देश बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि यूरोप के औद्योगिक जागरण काल में मजदूरों के रूप में बेबस लोगों की सर्वाधिक तिजारत भारत और अफ्रीका से हुई थी। इस तरह, हम अपने उन पुरखों को भी श्रद्धांजलि देंगे, जो जबरन दर-बदर के शिकार बने थे।
यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि अफ्रीकी देशों और भारत में सामाजिक असमानता के तमाम साझा तत्व मौजूद हैं। जैसे भारत में बंगलुरु और बस्तर के बीच जमीन-आसमान का फर्क है, वैसे ही अफ्रीकी गांवों और उभरते महानगरों के बीच बहुत बड़ा फासला नजर आता है। खगोलशास्त्री मानते हैं कि हिन्द महासागर के उभरने से पहले भारत-अफ्रीका एक हुआ करते थे। लाखों बरस बाद हम साथ चलने और बढ़ने की प्रवृत्ति अपनाकर अपनी ऐतिहासिक एकता के बिखरे हुए तंतुओं को फिर सजा-संवार सकते हैं। चलते-चलते एक और बात। क्या भारत और अफ्रीका के बीच कोई 'जैकेट कनेक्शन' है? आप चाहें तो मुस्करा सकते हैं, पर यह सच है कि जवाहर लाल नेहरू और नरेंद्र मोदी में जो तीन प्रमुख समानताएं हैं, उसमें दोनों का जैकेट प्रेम सबसे खास है। बाकी दो हैं- बहुमत संपन्न सरकार और सम्मोहक भाषण शैली।
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