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जिंदगी की जीत का यकीन

'महाभारत' की कथाएं हों या गालिब की शायरी, इनके अर्थ समय के साथ ज्यादा से ज्यादातर समझ में आते जाते हैं। 'महाभारत' ने सामाजिक आचार-व्यवहार की सीमाएं टूटने के नुकसान बताए और गालिब ने इंसानी जज्बातों को...

जिंदगी की जीत का यकीन
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 10 Oct 2015 09:44 PM
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'महाभारत' की कथाएं हों या गालिब की शायरी, इनके अर्थ समय के साथ ज्यादा से ज्यादातर समझ में आते जाते हैं। 'महाभारत' ने सामाजिक आचार-व्यवहार की सीमाएं टूटने के नुकसान बताए और गालिब ने इंसानी जज्बातों को शब्द दिए। हम भारतीय क्या महाभारत की पीड़ा और गालिब की त्रासदी एक साथ जीने को अभिशप्त हैं?  पिछले कुछ दिनों की सुर्खियों पर नजर डाल देखिए। आपका मन उकताहट से भर जाएगा। अकबरुद्दीन ओवैसी बिहार की चुनाव सभाओं में भारत के प्रधानमंत्री को 'शैतान' और 'जालिम' की उपाधि से नवाजते हैं। योग गुरु रामदेव लालू यादव को 'कंस का अवतार' बता देते हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह लालू यादव को 'चारा चोर' बोलते हैं। बदले में लालू उन्हें 'गुजरात का नरभक्षी' कह देते हैं। इसी दरमियान एक महानुभाव ओवैसी को 'हैदराबाद का आतंकी' साबित करने में लग जाते हैं। इन कटु वचनों को पढ़-सुनकर बिहार के साथ पूरे देश के शालीन लोग खुद को कभी कोयला, तो कभी राख महसूस करते हैं। वह लोकतंत्र कैसा, जहां लोकाचार की धज्जियां उड़ाई जाएं?

भारतीय राजनीति में 1975 के बाद से जो बदलाव आए, उनमें सबसे दुखद यह है कि चुनाव-दर-चुनाव हमारे नेता वोटों के लालच में संयम खोते चले गए। कहीं पिछड़ों, तो कहीं अगड़ों, कहीं दलितों, तो कहीं अल्पसंख्यकों के ऐसे स्वयंभू ठेकेदार पैदा हो गए, जिन्होंने निजी स्वार्थों के लिए उन्हीं मर्यादाओं को तार-तार किया, जिनके नाम पर वे अपने मतदाताओं को लुभा रहे थे। उनके द्वारा जने कृत्रिम उत्साह ने लोगों की स्मृतियों पर परदा डाल दिया। हम भूल गए कि जब संयम और शील समाप्त होता है, तो अराजकता पैदा हो जाती है। उन्माद की राजनीति सिर्फ कुछ लोगों का भला कर सकती है, जन साधारण का नहीं।

महाभारत से बात शुरू की थी, उसी का एक उदाहरण देता हूं। लड़ाई कौरवों और पांडवों के बीच थी। मामला इतना न उलझता, अगर राजसत्ता के लिए उपजा यह झगड़ा राज-परिवार में ही निपट गया होता, पर नहीं। सत्य, न्याय, ईमानदारी, व्यक्तिगत वफादारी और राजकीय निष्ठा के लिए चोटी पर आसीन लोग उलझ पड़े। महाभारत के 18 दिनों के युद्ध में लाखों लोग मारे गए। आर्यावर्त के हर घर ने कोई सगा खोया। इससे साधारण नगरवासियों और गंवई लोगों के मन में जंग के प्रति भय का ऐसा भूत बैठा, जिसने एक ताकतवर कौम को दब्बू बना दिया।

यही वजह है कि सिकंदर से लेकर चीनियों तक, जब भी बाहरी लोगों से हमारा सामना हुआ, हम हार गए। सब जानते हैं। महाभारत में कौरवों का विनाश हुआ और पांडव सत्तासीन हो गए। यह किसी परिकथा का सुखांत नहीं था। राज महलों में चिराग पहले भी जलते थे, बाद में भी जलते रहे। इसके उलट राज प्रासादों पर कब्जे के लिए हुई जंग में जिन घरों में अंधेरा पसरा, वह बरसों तक कायम रहा। पांडवों के लिए चारण परंपरा के काव्य कुछ भी बोलें, पर सच यही है कि 'धर्मराज' युधिष्ठिर का राज्य भी लोगों के बीच में समानता और सद्भाव कायम नहीं कर सका। राजनेताओं की कथनी-करनी हमेशा एक-दूसरे के उलट रही हैं।

सत्तानायक धर्म, न्याय और सद्भाव की नारेबाजी करते हैं, पर उनका बर्ताव इन महान विचारों के विपरीत होता है। आपके साथ इस समय यही हो रहा है? देश के अधिकांश नेताओं की संपत्ति पर नजर डाल देखिए। एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच इसमें करोड़ों रुपये की वृद्धि हो जाती है। एक बड़े नेता की 25-30 साल की बेटी या बेटा भी विपुल संपत्ति का मालिक होता है। इतना धन आता कहां से है? यह सवाल बहुत बार पूछा गया है। अब समय है कि इन 'माननीयों' से पूछा जाए कि आप जिन लोगों के बल पर यहां तक पहुंचे हैं, उनके जीवन स्तर में बढ़ोतरी के लिए आपने क्या किया? यह एक खरा सच है कि आज भी इस देश में आम आदमी की औसत आमदनी सालाना 88,533 रुपये है।

हर रोज 19 करोड़, 40 लाख लोग भरपेट भोजन किए बिना सो जाते हैं। 14 लाख बच्चों को आज भी प्राथमिक स्कूल नसीब नहीं होता। ऐसा कोई प्रदेश नहीं, जहां बच्चे और बूढ़े मजदूरी करते नहीं दिखते। आंकड़े कहते हैं कि हम नौजवानों का देश हैं। वही आंकड़े यह भी बताते हैं कि हम बेरोजगारों का मुल्क हैं। पेशेवर राजनेताओं की विष भरी बोली कैसे सितम ढाती है, दादरी का बिसाहड़ा गांव इसका उदाहरण है। वहां गोमांस की अफवाह से कैसे दशकों से साथ रह रहे लोग एक-दूसरे के दुश्मन बन गए? एक अधेड़ को जान गंवानी पड़ी और उसका भरा-पूरा परिवार हमेशा के लिए संताप के काले साये का शिकार हो गया।

उधर, उनके रंज-ओ-गम का लाभ उठाने के लिए नेताओं के दस्ते पहुंचने लगे। उत्तेजना, अलगाव और नफरत की खेती शुरू हो गई। यह राजनीति का वही सदियों पुराना खेल है, जो आम इंसानों के खून-पसीने की कीमत से कुछ लोगों के महलों और हवेलियों को सरसब्ज करता आया है। बिसाहड़ा में यही कोशिश दोहराई गई, पर वहां के लोगों की समझदारी देखिए, उन्होंने अपनी गलती से सबक लिया। वहां के लोग अब न नेताओं की आमद चाहते हैं और न मीडिया की मौजूदगी। शांत बिसाहड़ा को अब सुकून की तलाश है, मगर राजनीति और राजनेता उनके जख्मों पर नमक-मिर्च डालने में जुटे हैं। यह हाल तब है, जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इसकी लानत-मलामत कर चुके हैं।

प्रणब मुखर्जी और नरेंद्र मोदी की मंशा कितनी भी नेक हो, पर समाज में अंगारे बोने वाले आसानी से हारने वाले नहीं हैं। दादरी का गर्द-ओ-गुबार थमा नहीं था कि शिवसेना ने महाराष्ट्र सरकार पर दबाव बनाकर गुलाम अली का मुंबई और पुणे में कार्यक्रम रद्द करवा दिया। मैं यहां बांग्लादेश की विस्थापित लेखिका तसलीमा नसरीन का ट्वीट आपको पढ़वाना चाहता हूं- 'ओह माय गॉड... शिवसेना की धमकी के बाद पाकिस्तानी गायक गुलाम अली का कार्यक्रम रद्द हो गया। भारत हिंदू सऊदी अरब बनता जा रहा है?' वह आगे लिखती हैं, 'गुलाम अली कोई जेहादी नहीं हैं। वह एक गायक हैं। कृपया जेहादी और गायक के बीच के फर्क को समझने की कोशिश करें।'

तसलीमा से पूरी सहमति के साथ कहना चाहूंगा, भारत की सबसे बड़ी ताकत समभाव और सह-अस्तित्व है। इससे खिलवाड़ अपने वजूद के साथ छेड़छाड़ है। हमारे नेता पता नहीं क्यों, इस तथ्य को बिसरा देते हैं? यहां यह भी जान लें। शिवसेना के जवाब में दिल्ली की 'आप' सरकार ने गुलाम अली को लगे हाथ न्योता दे डाला। इससे पहले अरविंद केजरीवाल दादरी की घटना पर विज्ञापन छपवा और सुनवा चुके थे। ममता बनर्जी भी पीछे न रहीं। वह भी गुलाम अली की तलबगार बन गई हैं। मतलब साफ है। चित हो या पट, जीतेंगे राजनेता ही। आज की बात खत्म भी महाभारत और गालिब से करना चाहूंगा। गालिब अपने तमाम रंज-ओ-गम के साथ जिंदगी जीने का संदेश देते हैं। 'महाभारत' घृणा, वैराग्य और मौत के साथ बताती है कि इंसानियत कभी मरती नहीं। बिसाहड़ा और उसके लोग इसके उदाहरण हैं।
@shekharkahin
shashi.shekhar@livehindustan.com

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