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भारतीय कूटनीति के घेरे में चीन

पिछले कुछ महीनों में भारत शोशेबाजी से कोसों दूर रहकर, बल्कि लगभग गोपनीय रूप में तीन त्रिपक्षीय बैठकों में शामिल हुआ। इन बैठकों में सुरक्षा से जुड़े गंभीर सवालों पर सदस्य देशों के बीच बातचीत हुई, और ये...

भारतीय कूटनीति के घेरे में चीन
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 04 Aug 2015 01:11 AM
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पिछले कुछ महीनों में भारत शोशेबाजी से कोसों दूर रहकर, बल्कि लगभग गोपनीय रूप में तीन त्रिपक्षीय बैठकों में शामिल हुआ। इन बैठकों में सुरक्षा से जुड़े गंभीर सवालों पर सदस्य देशों के बीच बातचीत हुई, और ये सवाल इन सदस्य देशों के राष्ट्रीय हितों से गहरा नाता रखते हैं। ये तीनों ही बैठकें उन शीर्ष द्विपक्षीय, त्रिपक्षीय या अन्य सम्मेलनों के बिल्कुल उलट थीं, जिनका जोरदार ढंग से प्रचार-प्रसार किया गया और जिनका प्रारंभिक लक्ष्य आर्थिक मसलों व सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर केंद्रित रहा है। प्रचार-प्रसार वाली यह शैली नरेंद्र मोदी सरकार की विदेश नीति की एक खास विशेषता बन गई है। लेकिन चर्चा में न आईं ये तीन बैठकें भारत की विदेश नीति में उभरती तीन प्रवृत्तियों को दिखाती हैं।

पहली, ये बैठकें इस बात का संकेत करती हैं कि नई दिल्ली अब इतनी सक्षम हो चुकी है और उसका आत्म-विश्वास इतना मजबूत हो गया है कि वह संवेदनशील मसलों पर चीन जैसे विरोधी देश के साथ भी परदे के पीछे बात कर सकती है। दूसरी, ये त्रिपक्षीय वार्ताएं यह बताती हैं कि विदेश और सुरक्षा संबंधी नीतियों के मामलों में अब सिर्फ विदेश मंत्रालय बातचीत नहीं कर रहा है, बल्कि विभिन्न सरकारी एजेंसियां इस काम में जुटी हुई हैं। तीसरी, ये बैठक इस बात का सुबूत हैं कि विकसित हो रहे ‘मोदी डॉक्टरिन’ में यह प्रतिरक्षात्मक-व्यवस्था या घेरेबंदी स्थायी तत्व का रूप ले रही है।
 
इन तीनों बैठकों में से पहली बैठक मई महीने में नई दिल्ली में संपन्न हुई, जिसमें चीन, भारत और रूस ने भाग लिया और उसमें अफगानिस्तान में आपसी सहयोग की संभावनाएं तलाशी गईं। उस बैठक में इन तीनों मुल्कों के उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शामिल हुए थे और उनकी बातचीत सुरक्षा के मसले पर केंद्रित थी। बैठक में शामिल तीनों अधिकारी आपसी सहयोग मजबूत करने, खासकर इस्तांबुल-प्रक्रिया के संदर्भ में सहयोग बढ़ाने और शंघाई कॉपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ) को प्रभावी भूमिका देने पर सहमति बनाने में सफल रहे। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और नरेंद्र मोदी की एक महीने के भीतर दूसरी द्विपक्षीय मुलाकात के कुछ ही हफ्तों के बाद पिछले दिनों उफा (रूस) में भारत औपचारिक रूप से एससीओ में शामिल हुआ। चीन शायद इस पर बाद में कुछ हद तक रोशनी डाले। वैसे, भारत के लिए यह त्रिपक्षीय बैठक अफगानिस्तान में चीन के बढ़ते प्रभाव और भूमिका की स्वीकृति भी है और अफगानिस्तान सरकार व तालिबान के बीच की बातचीत में बीजिंग का गुप्त सहयोग अब प्रामाणिक रूप से उसके सामने भी है।
दूसरी त्रिपक्षीय बैठक जून की शुरुआत में हुई और यह भी नई दिल्ली में ही संपन्न हुई। इस बैठक में भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान के विदेश सचिवों ने भाग लिया। हालांकि, इस बैठक के बाद कोई साझा बयान नहीं जारी किया गया, मगर इस त्रिपक्षीय समूह की यह पहली बातचीत भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के सुरक्षात्मक पहलू को अंतिम रूप देने पर केंद्रित थी। विश्लेषक इसके चीन केंद्रित होने की संभावना भी देखते हैं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह त्रिपक्षीय बैठक साल 2007 के उस ‘चतुष्कोणीय गठबंधन’ के विचार को फिर से जिंदा करने की कवायद है, जिसके तहत ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका के बीच एक गठजोड़ कायम करने की बात कही गई थी। लेकिन चीन के आपत्ति जताने के बाद उस विचार को तब त्याग दिया गया था। इस त्रिकोणीय गठजोड़ को ठोस रूप लेने में भले कुछ वक्त लग जाए, मगर यह चीन को इस बात के लिए मजबूर कर देगा कि वह भारत को ज्यादा गंभीरता से ले।

तीसरी बैठक जून के आखिरी हफ्ते में हुई। यह भारत-अमेरिका-जापान के बीच की सातवीं त्रिपक्षीय बैठक थी। दुर्जेय यूएस पैसिफिक कमांड के मुख्यालय होनोलुलु में संपन्न हुई इस त्रिपक्षीय बैठक का मुख्य एजेंडा भी भारत की ‘ऐक्ट ईस्ट’ नीति के सुरक्षा व सैन्य पहलुओं पर गौर करने के अलावा इस क्षेत्र में चीन को संतुलित करने के साझा हितों पर विचार करना था।

हालांकि नई दिल्ली के इसरार पर इस बैठक को मंत्री या सचिव स्तरीय रखने की बजाय संयुक्त सचिव के स्तर का ही रखा गया, ताकि चीन से दुश्मनी की नौबत से बचा जा सके, लेकिन इस बैठक के परिणाम काफी महत्वपूर्ण हैं। यह त्रिकोणीय बैठक जनवरी 2015 के ‘एशिया प्रशांत व हिंद महासागर क्षेत्र में अमेरिका-भारत संयुक्त रणनीतिक दृष्टिकोण’ की प्रतिबद्धता को क्रियाशील करती है कि ‘जापान या ऑस्ट्रेलिया के रूप में तीसरे देश के साथ त्रिपक्षीय सहयोग को इस क्षेत्र में मजबूत किया जाएगा।’ इसका एक स्पष्ट प्रमाण यह है कि इस त्रिपक्षीय बैठक के बाद फैसला किया गया कि ‘मालाबार 2015’ का विस्तार किया जाएगा, ताकि भारत-अमेरिका की सालाना नौसेना अभ्सास में जापान को भी शामिल किया जा सके। इसके बाद, इस संयुक्त अभ्यास की रूपरेखा तय करने के लिए जुलाई के अंत में इन तीनों देशों के सैन्य अधिकारियों की टोकियो के करीब योकोशुका नौसैन्य अड्डे में मुलाकात भी हुई है। हालांकि यह तय है कि चीन इस पर आपत्ति करेगा, लेकिन इसके जवाब में भारत उसे हिंद महासागर क्षेत्र में उसकी तेजी से बढ़ती गतिविधियों और उसके खुद के इसी तरह के संयुक्त अभ्यासों की याद दिला सकता है।

साफ है, इन तीनों त्रिपक्षीय बैठकों की कहानी यही बताती है कि आत्मविश्वास से लबरेज होता भारत अब अपनी सीमित क्षमताओं का पूरा-पूरा इस्तेमाल करने लगा है और यहां तक कि अपने विरोधियों के साथ भी रिश्ते बढ़ाने को उत्सुक है, ताकि वह अपने हितों को साध सके। इसके साथ ही अपने विरोधियों के खिलाफ घेरेबंदी का दांव भी चल रहा है। एक बहुध्रुवीय विश्व में आगे बढ़ने का यही एकमात्र रास्ता भी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

 

 

 

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