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पन्ना-दर-पन्ना दोस्ती

पैसे कम होते थे। महीना गुजारना होता था, रहने की सब जरूरतों को पूरा करते हुए। मनीऑर्डर आते ही सारा हिसाब-किताब पसार के बैठ जाते थे। एक दस रुपये का नोट किसी एक नोटबुक में दबाकर उसको इधर-उधर कर दिया। एक...

पन्ना-दर-पन्ना दोस्ती
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 04 Aug 2015 01:09 AM
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पैसे कम होते थे। महीना गुजारना होता था, रहने की सब जरूरतों को पूरा करते हुए। मनीऑर्डर आते ही सारा हिसाब-किताब पसार के बैठ जाते थे। एक दस रुपये का नोट किसी एक नोटबुक में दबाकर उसको इधर-उधर कर दिया। एक 20 रुपये का नोट किसी धरोहरी किताब में जमा दिया। कभी ऐसे दिन आए कि कोई मिलने आया या हम किसी से मिलने गए, उनसे मिठाई खाने के लिए कुछ रुपये पा गए, ऐसे नोट किसी बे-सीजन वाले कपड़े में दबा डाले। कोई मुश्किल सुबह आई, जरूरत की शाम आई, कहां से लाएं पैसे? तब इनमें से ही किसी की याद आई। ढूंढ़ा। निकाला। दिल डूबते-डूबते उबार पा गया। दोस्तियां पुरानी ऐसी रहीं। जब कुछ नहीं है, तब भी दोस्त है। वह किताब में रखे नोट की तरह ही नहीं, उस किताब की तरह भी होता था। वैसी ही किताबों में वे नोट रखे जाते थे, जिन्हें मुश्किल मौकों पर पढ़ना नेमत की तरह था। तब दोस्त का मतलब यह समझा ही नहीं, जिसे बैंड की तरह बांधना पड़े। हम एक-दूसरे की परवाह यों किए कि एक-दूसरे से ऊपरी तौर पर बेपरवाह लगे। लेकिन जब मौका आया, कोई चूका नहीं।... साधनहीन संबंधों में भावों की ठहरी गहराई तो देखी है, ऊष्मा का उफान नहीं देखा। दोस्त होना एक दायित्व रहा है। ‘टच’ में लगातार बने रहने, ‘रिक्वेस्ट एक्सेप्ट’ होने या ‘टैग’ लग जाने के दौर में इसको समझना मेरे लिए कुछ मुश्किल काम हो गया है। बहरहाल, सबका सच एक कैसे हो सकता है! दुनिया में दोस्ती जिंदाबाद रहे, चाहे जिस शक्ल में रहे!
सत्यानंद निरुपम की फेसबुक वॉल से

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