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धरोहर से नई छवि गढ़ता भारत

इस हफ्ते की शुरुआत में भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज बैंकॉक में थीं, जहां उन्होंने मुख्य अतिथि की हैसियत से 16वें विश्व संस्कृत सम्मेलन को संबोधित किया। इस सम्मेलन में 60 देशों से आए संस्कृत...

धरोहर से नई छवि गढ़ता भारत
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 03 Jul 2015 12:25 AM
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इस हफ्ते की शुरुआत में भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज बैंकॉक में थीं, जहां उन्होंने मुख्य अतिथि की हैसियत से 16वें विश्व संस्कृत सम्मेलन को संबोधित किया। इस सम्मेलन में 60 देशों से आए संस्कृत विद्वान शामिल हुए। 600 से भी अधिक विद्वानों को पूरी तरह संस्कृत भाषा में संबोधित करते हुए सुषमा स्वराज ने कहा कि संस्कृत एक ‘आधुनिक और सार्वभौमिक’ भाषा है। उन्होंने सम्मेलन में उपस्थित सभी लोगों से अनुरोध किया कि वे इस भाषा के प्रचार-प्रसार में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान करें।

आज के दौर में इस प्राचीन भाषा की प्रासंगिकता बताते हुए भारतीय विदेश मंत्री ने जोर देकर कहा कि संस्कृत न केवल भाषा की पहचान, अनुवादों, साइबर सुरक्षा व अर्जित बौद्धिकता के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित सॉफ्टवेयर के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, बल्कि इसका ज्ञान हमें ग्लोबल वार्मिंग, अवहनीय उपभोग, सभ्यताओं के टकराव, गरीबी और आतंकवाद जैसी आज की समस्याओं के निदान की दिशा में भी फायदा पहुंचा सकता है। विश्व संस्कृत सम्मेलन की शुरुआत 1972 में हुई थी और पहला आयोजन दिल्ली में हुआ था। तब से आज तक यह पहला मौका है, जब सुषमा स्वराज की तरह कद्दावर कोई भारतीय मंत्री देश के बाहर आयोजित विश्व संस्कृत सम्मेलन में शामिल हुआ है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर हजारों लोगों के साथ योग कार्यक्रम में शामिल होने के चंद रोज बाद ही इस सम्मेलन का भी आयोजन हुआ। और यह गौर करने वाली बात है कि वह प्रधानमंत्री मोदी ही थे, जिन्होंने 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में घोषित  करने के लिए संयुक्त राष्ट्र को अपनी दलीलों से कायल किया था, और नई दिल्ली इसके पक्ष में 175 सदस्य देशों का समर्थन जुटाने में कामयाब हुई। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का अभियान कितना सफल रहा, इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि दुनिया के छह महाद्वीपों के 192 देशों ने अपने 251 शहरों में इस कार्यक्रम का आयोजन किया। भारत ने दुनिया को जो सबसे लोकप्रिय उपहार दिया है, वह योग है।

दरअसल, इसके पहले से ही भारत अपनी पारंपरिक धरोहरों व प्रभावों के सहारे दुनिया भर में अपनी छवि निखारने की रणनीति पर काम करता रहा है। पुरानी सरकारों ने भी भारतीय विदेश नीति के संदर्भ में इन पारंपरिक धरोहरों व प्रभावों के महत्व को पहचाना था, हालांकि इसे लेकर उनका रवैया अनौपचारिक किस्म का ही रहा। विदेश मंत्रालय के तहत ‘पब्लिक पॉलिसी डिवीजन’ जैसे विभाग बनाए गए और आधिकारिक कूटनीतिक प्रयासों के तहत सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा भी दिया गया। लेकिन मोदी सरकार अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले इन बहुआयामी पारंपरिक संसाधनों को लेकर अधिक सक्रिय है, जो अध्यात्म, योग व संस्कृति से लेकर लोकतांत्रिक लोकाचार तक फैला है। यह सरकार इनके सहारे भारतीय हितों को साधने को अधिक तत्पर दिख रही है।

वैश्विक राजनीति में पारंपरिक धरोहरों व प्रभावों की क्या भूमिका है, इस बहस का यह एक नाजुक दौर है। पिछले दशक के ज्यादातर वर्षों में चीन ने एक शांतिपूर्ण उदित होती शक्ति के तौर पर अपनी छवि गढ़ने की कोशिश की थी और अनेक पश्चिमी विश्लेषक मानते हैैं कि चीन दुनिया भर में, खासकर एशिया में इसके जरिये अपना ब्रांड वैल्यू बढ़ाने में कथित तौर पर कामयाब रहा। लेकिन चीन आज जिस तरह से ईस्ट और साउथ चाइना सी में आक्रामक तेवर अपना रहा है, और अपने हितों को साधने के लिए अपनी बढ़ती आर्थिक व सैन्य शक्ति का बेशर्मी से इस्तेमाल कर रहा है, उनसे उसकी वह छवि चिथड़े-चिथड़े हो चुकी है। आज यह बड़ी बहस चल रही है कि क्या मौजूदा वैश्विक माहौल में, जब चीन व रूस जैसी संशोधनवादी शक्तियां समस्त वैश्विक व्यवस्थाओं के आगे चुनौती पेश कर रही हैं, और इस्लामिक स्टेट जैसी आतंकी जमातें दिनोंदिन लोकप्रियता व ताकत बटोरती जा रही हैं, तब पारंपरिक धरोहरों व प्रभावों वाले देशों का कोई महत्व भी रह जाता है?      

दरअसल, पारंपरिक धरोहरों व प्रभावों के सहारे भारत की नर्ई छवि गढ़ने की मोदी सरकार की इस कोशिश का अर्थ यही है कि आज जिस नाजुक मोड़ पर दुनिया का ज्यादातर हिस्सा खड़ा है, वहां पर भारत को एक ऐसे विशिष्ट देश के रूप में स्थापित किया जाए, जो अपने वैश्विक प्रभावों व आर्थिक उपलब्धियों के साथ अपेक्षाकृत अधिक धैर्यवान व बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र के रूप में अडिग है।

दुनिया भर में अपनी कूटनीतिक कवायदों में मोदी सरकार लगातार भारत की लोकतांत्रिक साख को सामने रख रही है। और एक ऐसे वक्त में, जब पश्चिम की आर्थिक बेचैनी की वजह से लोकतंत्र के मूल्यों को लेकर आशंकाएं उपजने लगी हैं, तब भारत लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था की खूबियों का संदेश दे रहा है। भारत की पूर्ववर्ती सरकारें लोकतंत्र पर ध्यान केंद्रित करने को लेकर दृढ़ नजर नहीं आती थीं, वहीं मोदी सरकार में पश्चिमी और एशियाई लोकतंत्रों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करने को लेकर कोई हिचक नहीं है। मोदी सरकार को न सिर्फ प्राचीन भारतीय मूल्यों के पुनर्जीवित होने की आशा है, बल्कि उसे उम्मीद है कि इन पारंपरिक धरोहरों व मूल्यों के प्रभाव का इस्तेमाल करके वह एक शक्तिशाली देश की नींव भी मजबूत कर सकेगी।

निस्संदेह, भारत को एक वैश्विक ‘सॉफ्ट पावर’ के रूप में कामयाब होने के लिए अधिक ठोस और सुविचारिक प्रयासों की दरकार होगी, लेकिन आज का हिन्दुस्तान आत्मविश्वास से लबरेज है और वह अपनी परंपराओं, धरोहरों व समकालीन मूल्यों को वैश्विक मंच पर पेश करने को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त दिखता है। और यह उस दुनिया के लिए यकीनन  सुखदायी खबर ही हो सकती है, जिसे आज आशावादी उदाहरण पेश करने वालों की जबर्दस्त जरूरत है। दूसरे शब्दों में, जब दुनिया दहशत और अराजकता की तरफ आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रही हो, तब उम्मीदों से भरी दिशा में ले जाने के लिए सुखद नजीर पेश करने वाले मुल्कों का वह स्वागत ही करेगी। आज दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जो तानाशाही व बेकाबू अतिवाद दिख रहा है, उसमें एक आर्थिक रूप से कामयाब बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र विष हरने का ही काम करेगा। इसलिए वक्त आ गया है कि भारत की पारंपरिक धरोहरों, मूल्यों और प्रभाव को दुनिया सलाम करे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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