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कैसे पाएं आपदा पर विजय

जमीन के नीचे की तीन सक्रिय दरारों पर बैठी दिल्ली साल 1720 से अब तक पांच रिक्टर स्केल से अधिक की तीव्रता के पांच भूकंप झेल चुकी है। दिल्ली सिस्मिक जोन-चार की श्रेणी में आती है और नेपाल की तरह का भूकंप...

कैसे पाएं आपदा पर विजय
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 19 Jun 2015 09:08 PM
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जमीन के नीचे की तीन सक्रिय दरारों पर बैठी दिल्ली साल 1720 से अब तक पांच रिक्टर स्केल से अधिक की तीव्रता के पांच भूकंप झेल चुकी है। दिल्ली सिस्मिक जोन-चार की श्रेणी में आती है और नेपाल की तरह का भूकंप आने पर दिल्ली की 25 लाख इमारतों की 80 फीसदी जमींदोज हो सकती है। इस बर्बादी के शिकार बसे-बसाए शहर के हिस्से भी होंगे और यमुना पार के आवासीय क्षेत्र भी। मगर 10-15 साल की जिंदगी वाले फ्लाई ओवरों से पटा यह शहर शायद ही कभी अपने गिरेबान में झांकता है। इसके आपदा प्रबंधन केंद्र संकरे रास्तों, जर्जर भवनों में हैं, जहां आपदा से बचने के बुनियादी उपकरण तक कम होते हैं। यदि शहर आपदा प्रबंधन की पहुंच से दूर है, वहीं इसके अस्पताल भी ऊंची इमारतों में हैं।

भारत आपदाओं की आशंका वाला क्षेत्र है। इसका 70 प्रतिशत भू-भाग सुनामी और चक्रवाती तूफान की आशंका से ग्रस्त है, तो 60 प्रतिशत भू-भाग भूकंप से व 12 प्रतिशत भू-भाग में बाढ़ की आशंका रहती है। कई तरह की प्राकृतिक आपदाओं से यह देश हर साल 9.8 अरब डॉलर गंवाता है; जिनमें से 7.8 अरब डॉलर सिर्फ बाढ़ के कारण जाया हो जाता है। इन सबके बावजूद, जोखिम प्रबंधन अपनी शैशव अवस्था में है। राष्ट्रीय भूकंप जोखिम न्यूनीकरण परियोजना, जो राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन एजेंसी (एनडीएमए) के तहत 2013 में शुरू हुई थी, जिसे पुरानी इमारतों की रेट्रोफीटिंग और नई को आपदा-प्रतिरोधक बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, आज मरणासन्न स्थिति में है। भारत का प्रारंभिक भूकंप चेतावनी तंत्र 'नेशनल सेंटर फॉर सिस्मोलॉजी' फंड की कटौती, नए सेटअप में प्रवेश के दौरान नौकरशाहों की तरफ से होने वाली देरी से निष्क्रिय हो चुका है।

भारत न सिर्फ भौगोलिक भूमिगत दरारों, बल्कि खराब भौतिक व सामाजिक-आर्थिक आधारभूत संरचना से भी ग्रस्त है। वैसे, शहरी भारत में बहु-मंजिली इमारतों की बाढ़-सी आ गई है, जो ईंट की दीवारों तथा पिलर-बीम पर टिकी हैं। ढांचागत स्थिरता की बजाय भूतल को पार्किंग क्षेत्र के तौर पर वरीयता दी जाती है, इसलिए यहां रेट्रोफीटिंग जरूरी है, हालांकि इसमें खर्च काफी आता है (एक नए निर्माण की लागत का कुल 20 प्रतिशत)। गौरतलब है कि 84 प्रतिशत भारतीय घर ईंट से चिनाई की गई दीवारों के बने होते हैं, इनमें कच्ची-पक्की ईंटें और पत्थर लगते हैं। सिर्फ तीन प्रतिशत अंडरग्रेजुएट सिविल इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम इस सामग्री को दुरुस्त मानते हैं, वहां इसकी बजाय सीमेंट और क्रंकीट पर जोर दिया जाता है। भूकंप इंजीनियरिंग में दक्षता बहुत कम विश्वविद्यालय प्रदान करते हैं, जिनमें एक रुड़की है। देश में ऐसे सिविल इंजीनियरों का अभाव है, जो रेट्रोफीटिंग में दक्ष हों।

भूकंप की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती; बल्कि उसका मोटा अनुमान लगाया जा सकता है। भू-तकनीकी इंजीनियरिंग और भूकंपरोधी निर्माण पर संस्थानों द्वारा अधिक जोर देने की जरूरत है। आपदा व जोखिम क्षेत्र को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। जहां जमीन के अंदर पकड़ने की शक्ति कम हो, उस जगह पर निर्माण से बचना होगा। भूकंप और उसकी तबाही की आशंका व खतरे को जानने-समझने के लिए यह भी आवश्यक है कि हिमालयी देशों के बीच समन्वय स्थापित हो, क्योंकि हम बढ़ती मानवीय आपदा के युग में जी रहे हैं।

सुनियोजित शहरीकरण आपदा को सह सकता है। जापान की तरफ देखिए। इसने इसी 13 मई को 6.8 तीव्रता के भूकंप को आसानी से झेल लिया। लेकिन अपने यहां इंजीनियरों और आर्किटेक्टों को प्रशिक्षण देकर भूकंप सुरक्षित आवास बनाने की योजनाएं अपने लक्ष्य को पाने में ज्यादातर विफल रही हैं और इसलिए इस पर दोबारा काम करने की जरूरत है। संगठित सूचना और उपकरण-संग्रह के लिए इंडिया डिजास्टर रिसोर्स नेटवर्क को संस्थागत रूप दिया जाना चाहिए। इसी तरह, राष्ट्रीय भूकंप जोखिम न्यूनीकरण परियोजना को तेजी से काम करने होंगे।

विनाशकारी बाढ़ों की भविष्यवाणी का कोई जरिया एनडीएमए के पास नहीं है। इसलिए उसे सिर्फ केंद्रीय जल आयोग की अपर्याप्त भविष्यवाणियों पर निर्भर रहना पड़ता है। केदारनाथ त्रासदी के दो साल बाद भी उत्तराखंड के पास कोई डॉपलर राडार नहीं है, जो भारी बारिश और बादल फटने की तीन से छह घंटे पहले भविष्यवाणी कर सके। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में निर्माण के कुछ ही दिशा-निर्देश या सुरक्षित जगहों के नक्शे हैं, पर्याप्त हवाई पट्टी की बात तो छोड़ ही दें। जहां देश के हिमालयी क्षेत्रों में बड़े बांधों को बनाने की मंजूरी दी जा रही है, वहीं एनडीएमए ने चुप्पी साध रखी है।

देश में 5,000 बांधों के लिए बहुत कम राज्यों ने आपातकालीन कार्य-योजना तैयार कर रखी है, अब तक सिर्फ 200 बांधों को इसके दायरे में लाया गया है। इसी तरह, 4,800 जलाशयों व बैराज के मामले में सिर्फ 30 के बारे में प्रवाह संबंधी भविष्यवाणियां उपलब्ध हैं। ये स्थितियां बदलनी चाहिए। एनडीएमए नेतृत्वहीन और निष्क्रिय संस्था हो चुकी है। इसके मंडल के 11-12 सदस्यों में सिर्फ तीन की नियुक्ति हुई है। इसके पास योजना लागू करने की शक्ति नहीं है, सिर्फ दिशा-निर्देश बनाने का अधिकार है। जरूरी नहीं कि इसके राष्ट्रीय दिशा-निर्देश पर राज्य अमल करें।

वहीं नेशनल डिजास्टर रेस्पॉन्स फोर्स (एनडीआरएफ) गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती है। एक तरफ, नेशनल डिजास्टर मिटिगेशन फंड अपने शुरुआती चरण में है, तो दूसरी तरफ नेशनल डिजास्टर रेस्पॉन्स फंड अन्य कार्यों में भी इस्तेमाल होता है। नेपाल में सराहनीय कार्य के बावजूद एनडीआरएफ कुशल मानव-संसाधन, इन्फ्रास्ट्रक्चर, प्रशिक्षण और साजोसामान की कमी से जूझ रही है। कैग का कहना है कि ज्यादातर शहरों के आपदा न्यूनीकरण परियोजनाओं में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन का प्रदर्शन 'बहुत ही खराब' है।

2005 में बना आपदा प्रबंधन कानून एनडीएमए के दायित्व को निर्धारित करता है कि यह 'आपदा प्रबंधन के लिए योजनाओं, नीतियों और दिशा-निर्देशों पर' ध्यान दे। महत्वपूर्ण निवेश के बावजूद यह एजेंसी इंसानी ज्ञान का सही इस्तेमाल नहीं कर पाती, बल्कि बगैर समग्र और व्यवस्थित दृष्टिकोण के तकनीकी जटिलताओं के जरिये आपदा से निपटने पर जोर देती है। आपदा प्रबंधन की ट्रेनिंग फिलहाल स्तरीय राहत उपायों पर केंद्रित है, न कि जोखिम से निपटने के तौर-तरीकों, सामाजिक जटिलताओं से जूझने और शासन द्वारा एहतियाती कदमों पर।

ऐसे में, देश को एक मजबूत आपदा प्रबंधन एजेंसी चाहिए, जिसमें फौरन कदम उठाने का साहस तथा तार्किक व लंबे समय की पुनर्वास-नीति हो। इसके लिए एनडीएमए का पुनर्गठन जरूरी है। इसकी भूमिका और दायित्व, दोनों स्पष्ट किए जाने चाहिए तथा इसकी नियमित बैठक से निकली जानकारी बाहर आनी चाहिए।

यह भी समझने की जरूरत है कि पर्यावरण से जुड़ी आपदाएं पारिस्थितिकी, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्रियाओं के बीच के जटिल पारस्परिक प्रभावों से घटित होती हैं। इसलिए भारत को बाढ़, चक्रवाती तूफान, सूखा, भूकंप, शीत लहर, और लू वगैरह से बचाने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा, जो विभिन्न विभागों से जुड़ा हो और इसके लिए इसमें सभी हितधारकों को शामिल करने की भी जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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