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डर का डेरा

वह खुद को ही पहचान नहीं पा रहे थे। बेहद डर गए थे वह। डर था कि निकल ही नहीं पा रहा था। काम वह अब भी कर रहे थे, लेकिन...।  डर की अजीब दुनिया है। ‘डर की दिक्कत यह है कि वह हमें नॉर्मल नहीं...

डर का डेरा
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 23 May 2015 01:02 AM
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वह खुद को ही पहचान नहीं पा रहे थे। बेहद डर गए थे वह। डर था कि निकल ही नहीं पा रहा था। काम वह अब भी कर रहे थे, लेकिन...। 
डर की अजीब दुनिया है। ‘डर की दिक्कत यह है कि वह हमें नॉर्मल नहीं रहने देता। और कोई भी नया काम करने से रोकता है।’ यह मानना है डॉ. मैथ्यू जेम्स का। वह मशहूर साइकोलॉजिस्ट हैं। अमेरिका की ‘द एंपावरमेंट पार्टनरशिप’ के अध्यक्ष हैं। उनकी चर्चित किताब है, फाइंड योर परपस, मास्टर योर पाथ।
हम यह नहीं कह सकते कि हमें डर नहीं लगता। डर तो लगता ही है। हमें किसी चीज से डर लगा। उसमें कोई दिक्कत भी नहीं है। किसी मौके पर खास चीज से हमें डर लगा, इतने में कोई परेशानी नहीं है। परेशानी तब है, जब यह डर डेरा डाल लेता है। यह डेरा बेहद खतरनाक होता है। उसके आते ही हम अपने अंदाज में नहीं होते। हम सहज नहीं रह पाते। और जब हम अपने अंदाज में नहीं होते, तो आधे-अधूरे होते हैं।
 दरअसल, डर हमें रोकता है। वह हमें आगे नहीं बढ़ने देता। हमें नए कदम नहीं उठाने देता। यानी वह सीधा हमारे काम पर मार करता है। डर तो बाली की तरह होता है। वह जिसे देखता है, उसकी आधी ताकत हर लेता है। हमें जब डर नहीं होता, तो हम अपनी पूरी ताकत के साथ काम करते हैं। तब तन और मन पर डर की कोई छाया नहीं होती। डर के साथ हम हो सकता है कि रूटीन का काम कर ले जाएं। लेकिन नया काम करने के लिए तो उससे ऊपर जाना जरूरी होता है। उससे ऊपर जाना ही पड़ेगा। वास्तव में, हम जब बेखौफ होते हैं, तभी कुछ अलग करने की हिम्मत कर पाते हैं। साफ है, डर हमारे भरोसे पर चोट करता है। और अपने ऊपर भरोसे के बिना हम अपना बेहतरीन कैसे दे सकते हैं? इसीलिए डर के डेरे को तोड़ने की कोशिश तो करनी ही होगी।

 

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