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न्यायिक देरी का शिकार हाशिमपुरा

हाशिमपुरा मामले में प्रांतीय सशस्त्र बल (पीएसी) के 16 अभियुक्त जवानों की रिहाई हमारी पूरी न्याय व्यवस्था को हिला देने के लिए काफी होनी चाहिए। पहचान के अभाव में तीस हजारी अदालत ने इन सभी आरोपियों को...

न्यायिक देरी का शिकार हाशिमपुरा
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 25 Mar 2015 10:26 PM
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हाशिमपुरा मामले में प्रांतीय सशस्त्र बल (पीएसी) के 16 अभियुक्त जवानों की रिहाई हमारी पूरी न्याय व्यवस्था को हिला देने के लिए काफी होनी चाहिए। पहचान के अभाव में तीस हजारी अदालत ने इन सभी आरोपियों को रिहा करने का आदेश दिया है। यह मामला एक बार फिर प्रमाणित करता है कि विलंब किस प्रकार न्याय के रथ को पटरी से उतार देता है। यह कोई पहली ऐसी घटना नहीं है। मगर विडंबना यह है कि कितना भी बड़ा अन्याय क्यों न हो जाए, संबंधित अधिकारियों में कोई हलचल तक नहीं होती।
इस मामले में 19 पुलिस वालों पर हत्या, साक्ष्य मिटाने और आपराधिक षड्यंत्र रचने के आरोप थे। लेकिन मामले के लंबा खिंचने के जो-जो दुष्परिणाम होते हैं, वे सब यहां देखने को मिले हैं। मसलन, साक्ष्य समाप्त हो जाते हैं, गवाहों की मौत हो जाती है या फिर उन्हें ढूंढ़ना मुश्किल हो जाता है और कई बार तो अभियुक्तों की प्राकृतिक मौत हो जाती है। हाशिमपुरा मामले में भी तीन अभियुक्तों की मौत निर्णय आने के पहले हो चुकी थी। तीन जांच अधिकारी भी दुनिया से विदा हो चुके हैं। जाहिर है, मामले को पेचीदा बनाने के लिए ही उसे लटकाया जाता है, जिसमें पुलिस और वकीलों की सक्रिय भूमिका होती है। समय बीतता जाता है और अनुसंधान अधिकारी व डॉक्टर आदि सरकारी पक्षों के स्थानांतरण हो जाते हैं। ऐसे में, उन्हें अदालत में उपस्थित करना एक मुश्किल काम हो जाता है।

इस मामले के घटनाक्रम पर गौर कीजिए। एक स्थानीय डॉक्टर प्रभात सिंह की हत्या के तीन दिन बाद 22 मई, 1987 को हाशिमपुरा में 342 मुस्लिमों को गिरफ्तार करके उनमें से करीब 50 को ट्रक में लादकर गाजियाबाद में गंग नहर के पास लाया गया और उन्हें गोली मारकर नहर में फेंक दिया गया। इनमें से 42 की मौत हो गई, लेकिन छह बच गए। इन्हीं में से एक जुल्फिकार ने दिल्ली आकर प्रेस को इसकी जानकारी दी। राज्य सरकार ने इस घटना का कोई संज्ञान नहीं लिया और यह मानने से भी इनकार कर दिया कि ऐसी बर्बर हत्याएं हुई हैं। इस कारण से मृतकों के परिजनों को मृत्यु प्रमाण-पत्र तक नहीं दिए जा रहे थे। पीयूडीआर ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर करके अनुसंधान व मुआवजे दिए जाने की प्रार्थना की थी। उस समय ग्रीष्मावकाश था। छुट्टी के उन दिनों में न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र जज थे, जो याचिकाकर्ता को इलाहाबाद उच्च न्यायालय जाने की सलाह दे रहे थे। परंतु बाद में याचिकाकर्ता की दलील को स्वीकार करते हुए उन्होंने थोड़ी राहत दी, जिससे परिजनों को मृत्यु प्रमाण-पत्र दिए गए।

मीडिया में हंगामे तथा जन-दबाव के कारण राज्य सरकार ने सीबी-सीआईडी से इसकी जांच करवाई, जिसने 1994 में अपनी रिपोर्ट दी। लेकिन जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे सार्वजानिक करने का निर्देश देने से इनकार कर दिया। बहरहाल, साल 1996 में गाजियाबाद की अदालत में 19 लोगों के विरुद्ध आरोप-पत्र दाखिल किए गए, किंतु किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई। अदालत ने 23 गैर-जमानती वारंट जारी किए, परंतु अदालत को बताया गया कि ये सभी अभियुक्त फरार हैं। बाद में सूचना का अधिकार कानून के तहत परिजनों ने उन अभियुक्तों के बारे में सूचना मांगी, तो पता लगा कि वे सभी सरकारी सेवा में बने हुए हैं। इसके बावजूद सरकार का अदालत के समक्ष यह कहना कि वे फरार हैं, अभियुक्तों व पुलिस के बीच की दुरभि-संधि की पुष्टि करता है। न्यायपालिका भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। यदि प्रशासन अभियुक्तों को पकड़ने में हीला-हवाली करे, तो अदालत को वरिष्ठ अधिकारियों को निर्देश देने का अधिकार है। इसका अनुपालन न होने की स्थिति में निचली अदालत उच्च न्यायालय को उस अधिकारी के विरुद्ध अवमानना की कार्रवाई शुरू करने के लिए लिख सकती है।

सितंबर 2002 में उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर मामले को गाजियाबाद से दिल्ली स्थानांतरित किया गया। परंतुु जैसा कि अक्सर होता है, एक पक्ष मामले को लटकाने के लिए स्थगन पर स्थगन लेता रहा। विशेष लोक अभियोजक की नियुक्ति भी समय पर नहीं की गई। यानी सरकार की ओर से भी अभियुक्तों को बचाने के भरपूर प्रयास किए गए। यदि 28 वर्षों के बाद ‘संशय का लाभ’ देकर अभियुक्तों को रिहा कर दिया जाता है, तो यह हमारे अभियोजन, अन्वेषण के साथ-साथ न्यायपालिका को भी कठघरे में खड़ा करता है।

भारत की न्याय प्रणाली का सबसे बड़ा रोग है विलंब। तत्कालीन रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या तीन जनवरी 1975 को हुई और लगभग 40 वर्षों के बाद ट्रायल कोर्ट का फैसला बीते अक्तूबर में आया। अभी उच्च व उच्चतम न्यायालय में अपील व सुनवाई बाकी है। असम का मचल लालुंग तो 54 वर्षों तक जेल में बिना किसी ट्रायल के रहा। इस बात का कोई रिकॉर्ड भी नहीं था कि उसने कोई अपराध किया था। एक अखबार में छोटी-सी रिपोर्ट छपने के बाद उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका के जरिये उसका मामला उठाया गया। फिर उसे एक रुपया के निजी मुचलके पर जेल से रिहा किया गया।
सात अप्रैल, 2010 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक दिलचस्प फैसला दिया कि सीरियल किलर ‘रिपर चाको’ के साथ कोई सदाशयता न दिखाई जाए। उसे तीन लगातार आजीवन कारावास की सजा दी गई। चाको ने केरल के कन्नूर सेंट्रल जेल से पांच वर्ष पूर्व याचिका दायर की थी। आश्चर्यजनक रूप से सर्वोच्च न्यायालय को यह पता नहीं था कि चाको ने जेल के अंदर 24 नवंबर, 2005 को ही फांसी लगा खुदकुशी कर ली थी।
विश्व में सबसे लंबे वक्त तक चलने वाले मुकदमे का रिकॉर्ड भारत के नाम ही है, जो गिनीज बुक में दर्ज है। पुणे में 28 अप्रैल, 1966 को बाला साहब पटलोजी थोराट को उस मामले में निर्णय मिला, जो उनके पूर्वजों ने 761 साल पहले 1205 में दायर किया था। मुद्दा था, सार्वजनिक समारोहों में अध्यक्षता करने का।

बहरहाल, हाशिमपुरा का निर्णय विलंब की समस्या पर गंभीरता से गौर करने का अवसर है। ब्रिटेन में ‘रॉन्गफुल कन्विक्शन कमिशन’ गलत सजा दिए जाने के मामले में रिहाई तथा गलत रिहाई के मामले में पुनर्विचार की अनुशंसा करता है। अदालत इसका संज्ञान लेती है। इसलिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी इसका संज्ञान स्वयं लेकर उचित अनुशंसा करनी चाहिए। रामदेव चौहान के मामले में उसने अनुशंसा की थी कि उसका मृत्युदंड आजीवन कारावास में बदल दिया जाना चाहिए और राज्यपाल ने उस अनुशंसा को मानते हुए ऐसा किया था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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