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अफवाहों की आंच पर चलती सितारों की जिंदगी

सितारों की जिंदगी अफवाहों की आंच पर तप रही है। अपने जमाने के सुपर खलनायक और बाद में हीरो बनकर  राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र के समकालीन अपनी जगह बनाए रखने वाले विनोद खन्ना के बारे में...

अफवाहों की आंच पर चलती सितारों की जिंदगी
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 17 Apr 2017 12:46 AM
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सितारों की जिंदगी अफवाहों की आंच पर तप रही है। अपने जमाने के सुपर खलनायक और बाद में हीरो बनकर  राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र के समकालीन अपनी जगह बनाए रखने वाले विनोद खन्ना के बारे में आजकल अप्रिय खबर फैलाई जा रही है। सचमुच का वायरल बुखार जितना दुखदाई और कोफ्त से भरा नहीं होता, उससे ज्यादा इन वायरल होती खबरों ने वातावरण को नकारा लोगों का शगल बना दिया है। पिछले दो-तीन वर्षों में यह खूब हुआ है। इसका सबसे ज्यादा शिकार हुए बोनी कपूर, जिनके बारे में दुर्घटनाग्रस्त होने की खबरें खूब सनसनी फैलाती रहीं। खंडन भी होता रहा।

शुक्र है, वह सही सलामत हैं और अपने काम में लगे हैं। दो महीने पहले जब अमिताभ बच्चन के पेट में संक्रमण हुआ था, तब उनकी वह तस्वीर वायरल हो गई थी- स्ट्रेचर पर ले जाते हुए मंकी कैप पहने। उस फोटो के साथ अप्रिय समाचार सारे आधुनिक माध्यमों से फैलना शुरू हो गया। लोग जगह-जगह पड़ताल करते नजर आए। तीसरा शिकार विनोद खन्ना बने हैं, जिनकी एक रुग्ण अवस्था की तस्वीर के प्रकाश में आते ही लोगों ने कयासबाजी शुरू कर दी। हद है कि एक चैनल, जिसने शायद प्रत्याशा में कार्यक्रम बना रखा होगा, रोकने का लोभ संवरण न कर पाया और रविवार सुबह उसे प्रसारित करके ही राहत की सांस ली। 

फिल्मी दुनिया और अफवाहें एक-दूसरे से जुड़ी रही हैं। आमजन को सितारों से जुड़ी खबरों में रस मिलता है। अंग्रेजी फिल्म पत्रकारिता ने तो बहुत पहले इसकी शुरुआत कर दी थी, जब कलाकारों का फिल्मों में काम करना, फिल्म की प्रगति, घटनाएं और फिल्म का प्रदर्शित होना और इन सबसे पाठकों को अवगत कराना उद्देश्य होता था। बाद में पत्रिकाओं और उनके रिपोर्टरों, कॉलमिस्टों को लगा कि ये सूचनाएं साधारण और रसहीन हैं, तो सितारों के स्वभाव, उनकी विनम्रता, उनकी उग्रता, उनके दिलफेंक होने, रोमांस के किस्से, होटलों से लेकर बेडरूम तक को साहस-दुस्साहस के साथ दिखाया। हालांकि उसके परिणामों का सामना भी समय-समय पर पत्रकारों और रिपोर्टरों को अपमान व हिंसा के रूप में करना पड़ा, लेकिन सिलसिला चल पड़ा, तो फिर थमा नहीं।  

भारतीय सिनेमा सौ साल पूरे कर चुका है। भारतीय सिने पत्रकारिता भी उसी का अनुसरण कर रही है। हालांकि फिल्म पत्रकारिता का स्वरूप बिगड़ता गया है। सच तो यह है कि आज हिंदी में सिनेमा की पत्रिकाएं बची ही नहीं हैं। बड़ी, अच्छी और महत्वपूर्ण पत्रिकाएं कब की बंद हो चुकी हैं। देश के अखबारों में सिनेमा रोज एक-दो पन्नों में ग्लैमर के रूप में प्रकाशित हो रहा है, लेकिन इनमें बहुत कुछ ऐसा नहीं होता, जो सही अर्थों में पाठक की भूख शांत कर सके। अंग्रेजी फिल्म पत्रिकाओं के पाठक और समाज, दोनों ही बहुत सीमित हैं, लिहाजा वहां का घटनाक्रम वहीं तक सिमटकर रह गया है। 

फेसबुक, ट्विटर और वाट्सएप ऐसे माध्यम हो गए हैं, जिनमें ऐसी खबरों का संप्रेषण एक कान से दूसरे कान को और फिर दूसरे कान से तीसरे कान को संक्रमित कर देना आसान हो गया है। चिढ़ इस बात की है कि कल तक रोमांस, रिश्तों, लड़ाई-झगड़े की कानाफूसियां अब सीधे-सीधे इधर लक्षित हो गई हैं कि समाज और वातावरण को भावनात्मक रूप से उसके प्रिय कलाकार के जीवन से जुड़ी अप्रिय खबर फैलाकर व्यावधानित कर दो। एक बार देर रात मैं फेसबुक पर ऑनलाइन था, तब एक चर्चित कवि की पोस्ट में गंभीर रूप से अस्वस्थ दारा सिंह को श्रद्धांजलि दे दी गई। उनको तुरंत कहा गया कि वह जीवित हैं, तो उन्होंने हटा ली। दारा सिंह दो दिन बाद नहीं रहे थे। विनोद खन्ना को लेकर भी ऐसी ही अप्रिय सूचनाएं-टिप्पणियां लेखक के पास चार दिन की अवधि में दो बार आईं, जिनमें अंतिम यात्रा के दो चित्र भी शामिल थे, जिसमें एक में अमिताभ बच्चन और दूसरे में रणधीर कपूर शामिल दिखाई दे रहे थे। इधर एक-दो दिन पहले तो हद ही हो गई, जब मेघालय में विनोद खन्ना को सत्तासीन पार्टी के लोगों ने श्रद्धांजलि दे डाली। यह सब देख-सुनकर आश्चर्य होता है कि क्या हम अपना विवेक पूरी तरह खो बैठे हैं? आगे निकल जाने, श्रेय बटोरने, खुद को महिमा-मंडित करने की ऐसी अफरा-तफरी में खुद की संवेदना, चरित्र और गरिमा को इस तरह क्यों मार रहे हैं हम?
    (ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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