पुनर्जन्म की अवधारणा के खतरे
अपन पुनर्जन्म की अवधारणा से भयभीत हैं। इंसानी छल-कपट, लालच, मक्कारी, मूर्खताओं से जिसका जी नहीं भरा है, वही दोबारा इन स्वभावगत मानवीय विशेषताओं से जूझने की जुर्रत कर सकता है। हम तो ऐसे दुस्साहसी...
अपन पुनर्जन्म की अवधारणा से भयभीत हैं। इंसानी छल-कपट, लालच, मक्कारी, मूर्खताओं से जिसका जी नहीं भरा है, वही दोबारा इन स्वभावगत मानवीय विशेषताओं से जूझने की जुर्रत कर सकता है। हम तो ऐसे दुस्साहसी नहीं। यूं भरोसा नहीं है। अगले जन्म में सांप, मेंढक छिपकली, मकड़ी बनकर पैदा हो गए तो? हमने जंगलों का शहरीकरण और जानवरों का सफाया कर दिया है। अब वही सत्ता के कागजी हाथी, सियार, शेर, गीदड़ वगैरह का रूप धरकर सियासी गलियारों में टहलते नजर आते हैं। कभी-कभी संदेह होता है कि स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य आदि की ईजाद कहीं लोभी पंडितों ने तो नहीं की?
यूं धर्माचार्यों का छुआछूत से लेकर जिहाद तक से इंसानों को बांटने व इंसानियत को शर्मिंदा करने में खासा योगदान है। आजकल तो सड़क चलते डर लगता है कि न जाने कौन सा सिरफिरा कट्टर कहां छिपा बैठा हो? पारंपरिक दुश्मनी में इधर कम जानें जाती हैं, आतंकी वारदातों में ज्यादा। दुनिया की आबादी पर जैसे माल्थस के प्राकृतिक आपदाओं के नियम में आतंक का इजाफा हुआ है प्राण हरने को। उसने किसी का भी शिकार किया, तो सुर्खियां बनती हैं, वरना आम आदमी तो मात्र गिनती बढ़ाने का साधन है।
पुनर्जन्म का एक अन्य भय अजाने स्थान पर जाने की घबराहट व संशय है। सरकार के बाबू तो एक से दूसरी सीट तक जाने से कतराते हैं, तो हम क्यों न नई दुनिया से खौफ खाएं? यहां तो अपनी पहचान गंवाने की भी त्रासद आशंका है। कौन जानता है कि ऊपर जाएं, तो आदमी की शक्ल में और वापस लौटे, तो भुनगा या मक्खी-मच्छर बनकर? शायद इसीलिए कबीर ने कहा है- यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं/ सीस उतारै भुई धरै, तब पैठे धर माहिं। यहां तो पिन चुभने तक का दर्द असहनीय है, तो सिर उतारने का क्या सवाल? ऐसे भी यह हरकत आजकल सिर्फ आतंकवादियों को शोभा देती है, इंसानों को नहीं। खाला क्या, पत्नी, बच्चे तक कितने अपने हैं? जब अपना घर ही अपना नहीं है, तो क्या पता उस ऊपर वाले का आवास है भी कि नहीं? यदि है, तो किसी धर्माचार्य ने देखा है क्या?