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जरा भी बदला नहीं है महिला सुरक्षा का ताना-बाना

दिल्ली के निर्भया कांड ने पूरे देश को झकझोर दिया था। इसके बाद केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता में आयोग बनाकर कानून में बदलाव के लिए सुझाव देने को कहा, ताकि...

जरा भी बदला नहीं है महिला सुरक्षा का ताना-बाना
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 08 Feb 2017 11:31 PM
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दिल्ली के निर्भया कांड ने पूरे देश को झकझोर दिया था। इसके बाद केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता में आयोग बनाकर कानून में बदलाव के लिए सुझाव देने को कहा, ताकि महिलाओं के खिलाफ होने वाले ऐसे अपराधों को रोका जा सके। आयोग की सिफारिशों पर कानून में कुछ परिवर्तन हुए, मगर महिलाओं के खिलाफ अपराध रोकने में आशातीत सफलता नहीं मिल सकी है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के ग्रेटर नोएडा की ताजा घटना सामने है। यहां एक दंपति अपने गुर्गों की मदद से भोली-भाली बच्चियोंं को प्रलोभन देकर लाते और उन्हें देह व्यापार के लिए बेच देते थे। पुलिस के अनुसार, तीन साल में यह गैंग करीब 50 लड़कियों को बेच चुका है। इसी तरह, बेंगलुरु में नए साल के जश्न में महिलाओं से सामूहिक छेड़छाड़ की खबरें आईं। कुछ समय पहले दिल्ली में एक युवती मदद के लिए पूरी कॉलोनी में गुहार लगाती दौड़ती रही, पर कोई आगे न आया और दरिंदों ने उसकी हत्या कर दी। बुलंदशहर में भी राजमार्ग पर एक कार को जबदस्ती रुकवाकर मां-बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ। अभी-अभी पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह माना है कि हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन के समय वहां के मुरथल में महिलाओं से दुर्व्यवहार तथा बलात्कार हुआ। न्यायालय ने हरियाणा पुलिस को इसके साक्ष्य जुटाकर अपराधियों के विरुद्ध मुकदमा चलाने का आदेश भी दिया है। उत्तर प्रदेश के चर्चित मुजफ्फरनगर दंगों के लिए गठित आयोग के समय दंगों के प्रत्यक्षदर्शियों का शपथ पत्र भी गौरतलब है, जिसमें दर्ज बयानों के अनुसार, दंगे की मुख्य वजह एक युवती से बार-बार छेड़छाड़ और मामले में पुलिस की निष्क्रियता थी। शामली में भी एक समुदाय की तीन युवतियों के साथ बलात्कार की घटनाएं इसी आयोग के समक्ष गवाहों के शपथ पत्र से पुष्ट हुई थीं। इनमें भी पुलिस की निष्क्रियता सामने आई, जिसकी प्रतिक्रिया में दंगे फैले। इन सबके साथ देश भर में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की संख्या में नए कानून के बनने के बाद भी बढ़ोतरी देखने में आई है। दर्ज न होने वाली वारदात इनसे अलग हैं।

निर्भया कांड पर पूरे देश के आक्रोश और भावनाओं को देखते हुए 2013 के केंद्रीय बजट में निर्भया फंड नाम से 100 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था, जिसकी राशि बढ़कर अब तक 300 करोड़ हो चुकी है। इसका मकसद पूरे देश में ऐसे इंतजाम करना था कि महिलाएं कहीं भी असुरक्षित न महसूस करें। पूरे देश में 600 ऐसे केंद्र खोले जाने थे, जहां एक ही छत के नीचे पीड़ित महिला को चिकित्सा, कानूनी सहायता और मनोवैज्ञानिक परामर्श उपलब्ध हो सके। मगर इतने फंड के बावजूद तंत्र की नाकामी से इसका इस्तेमाल महिला कल्याण में नहीं हो सका और महिलाओं के खिलाफ अपराध कम नहीं हुए।

आखिर इतने प्रयासों से बावजूद महिलाओं के विरुद्ध अपराध थम क्यों नहीं रहे? जवाब काफी हद तक मुजफ्फरनगर दंगों पर बनी जांच कमेटी की रिपोर्ट और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के निर्णय से मिलता है। मुजफ्फरनगर, शामली में महिलाओं के विरुद्ध अपराध होते रहे, लेकिन पुलिस मूकदर्शक बनी रही। हरियाणा पुलिस जाट आंदोलन के दौरान हुए बलात्कारों को तब तक दबाती रही, जब तक न्यायालय ने आदेश पारित नहीं कर दिया। वर्मा आयोग के सुझावों में भी पुलिस-प्रशासनिक व न्यायिक सुधारों पर इसीलिए जोर है।

महानगरों और ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे अपराधों के रूप भी अलग हैं। बढ़ते औद्योगिकीकरण के कारण तमाम आबादी पलायन कर महानगरों की ओर आती है और नए समाज का हिस्सा जल्दी न बन पाने के कारण कई बार वह वर्जनाविहीन-गुमनाम जिंदगी जीने को बाध्य होती है। दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कारों में इसी प्रकार के लोग लिप्त पाए गए थे। चाहे वह अस्सी के दशक में चोपड़ा बच्चों के रंगा-बिल्ला जैसे दुराचारी हों या निर्भया के अपराधी। ग्रमीण क्षेत्रों में आर्थिक असमानता व सामाजिक ताना-बाना कई बार ऐसे अपराधों के कारण बनते हैं। महिलाओं के लिए भरोसेमंद सुरक्षा का इंतजाम तभी संभव होगा, जब निर्भया फंड जैसी निधियों का तार्किक इस्तेमाल  हो और महिला सुरक्षा के लिए सोचे गए कामों को ईमानदारी से अंजाम दिए जाएं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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