विदेश नीति का प्रगति काल
मुझे अपने काम के सिलसिले में रिटायर प्रशासकों, राजनयिकों के संस्मरण गाहे-बगाहे पढ़ने ही पड़ते हैं। ज्यादातर नीरस होते हैं। कई बार तो अत्यंत तात्कालिक। मामूली गलतियों पर भी ध्यान नहीं दिया जाता है।...
मुझे अपने काम के सिलसिले में रिटायर प्रशासकों, राजनयिकों के संस्मरण गाहे-बगाहे पढ़ने ही पड़ते हैं। ज्यादातर नीरस होते हैं। कई बार तो अत्यंत तात्कालिक। मामूली गलतियों पर भी ध्यान नहीं दिया जाता है। लेकिन शिवशंकर मेनन की च्वॉइसेज इन सारे अवगुणों से मुक्त है, जो सपाट अर्थों में महज संस्मरण नहीं, बल्कि हाल के दशकों में भारतीय विदेश नीति की पांच दुविधाओं पर फोकस करती है। मेनन विदेश सचिव रह चुके हैं। उनकी किताब अपने गद्य की खूबसूरती और विश्लेषण क्षमता के कारण भारतीय दिग्गजों के संस्मरणों की आम परंपरा से खुद को अलग करती है।
ज्यादातर संस्मरणों में यह जुमला आम होता है कि ‘मंत्री ने सिर्फ मेरी सुनी...’, इसका मकसद उस कार्यकाल के किसी सकारात्मक नतीजे का सीधा क्रेडिट लेना होता है। लेकिन मेनन अपने समकक्षों और सहयोगियों के प्रति उदार दिखते हैं। अन्य भारतीय राजनयिकों और वार्ताकारों के काम की प्रशंसा भी करते हैं।
किताब में आत्मालोचन भी है, जो आमतौर पर दुर्लभ है। मेनन बताने में कोताही नहीं करते कि किस तरह भारत-अमेरिका परमाणु करार मामले में वह और उनके साथी वार्ताकार उस बहुप्रशंसित करार के अंतिम निष्कर्षों, मसलन चीन के रुख और पाकिस्तान पर उसके असर का आकलन नहीं कर सके थे। उनकी ईमानदारी तब भी दिखती है, जब वह नवंबर 2008 के हमले में सामान्य से बड़ी जवाबी कार्रवाई की बात करते हैं। बताते हैं कि विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी उनसे सहमत भी थे, लेकिन भारत ने किस तरह संयम बरतते हुए जवाबी कार्रवाई नहीं की। मेनन लिखते हैं कि जवाबी कार्रवाई न करने के फैसले से वह उस वक्त भले न सहमत रहे हों, लेकिन यही फैसला सही था। एक तो ‘भारत का हमला पाकिस्तान को उसकी सेना के साथ एकजुट कर देता, जो घरेलू कारणों से उन दिनों काफी बदनाम थी।’ दूसरे, ‘वहां की लगभग उसी दौरान चुनी गई सरकार अस्थिर हो जाती, जो भारत के साथ बेहतर संबंध चाह रही थी, जबकि पाक सेना इसके खिलाफ थी।’ देखा जाए, तो भारत ने पाकिस्तान पर जवाबी कार्रवाई न करके उसे संपूर्ण विश्व की नजर में न सिर्फ शर्मसार कर दिया, बल्कि विश्व समुदाय ही कार्रवाई की मांग करने लगा था।
च्वॉइसेज के अंतिम अध्याय में मेनन कूटनीतिक कौशल के कुछ मान्य सिद्धांतों की चर्चा करते हैं। पहला यह कि ‘विदेश नीति में किसी भी सवाल का जवाब सिर्फ एक, उचित या सही में नहीं हो सकता। यह सर्वकालिक यानी हमेशा के लिए भी नहीं हो सकता। बेहतर यही होता है कि किसी भी मामले में जागरूक रहा जाए और सभी संभावनाएं और विकल्प खुले रखे जाएं।’
दूसरे, मेनन कहते हैं कि बातचीत के रास्ते हमेशा खुले रखने चाहिए, लेकिन ‘कई बार समय, संदर्भ और स्थान को देखते हुए युद्ध से भी पीछे नहीं हटना चाहिए।’ शासन कौशल कई बार दुविधा में डाल देता है, लेकिन कई बार यह भी होता है कि जब वक्त रहते हस्तक्षेप न हो और चीजें बिगड़ने लगें, तो युद्ध ही बेहतर विकल्प होता है। कई बार यह कम विनाशकारी भी होता है।
तीसरे, मेनन तर्क देते हैं कि विदेश नीति में व्यक्तित्व महत्वपूर्ण होता है। अमेरिका में भी, जहां सरकारों के गठन में किसी एक सिरे के ज्यादा मजबूत न हो जाने का ध्यान रखा जाता है, वहां भी विदेश नीति इस मायने में अलग दिखती है। यहां बाकी क्षेत्रों की तुलना में राष्ट्रपति का असर ं ज्यादा व स्पष्ट दिखता है। प्रणब मुखर्जी जैसे प्रभावशाली विदेश मंत्री को छोड़ दें, तो पंडित नेहरू के समय से ही विदेश नीति हमेशा प्रधानमंत्री का विषय रही है।
व्यक्तित्व महत्वपूर्ण है, लेकिन कितना? मेनन लिखते हैं कि उन्होंने जिन प्रधानमंत्रियों पीवी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के साथ काम किया, वे सभी जिम्मेदारी संभालने से पहले विदेश नीति के बारे में गहन अध्ययन करते थे। सभी ने अपनी बौद्धिक पूंजी के इस्तेमाल से बदलते हालात के अनुरूप नीतियों का पुनर्निर्धारण किया। मेनन ‘तीनों प्रधानमंत्रियों के बीच विदेश नीति के अद्भुत साम्य और निरंतरता की बात तो करते ही हैं, यह भी बताते हैं कि वे किस तरह पूर्ववर्ती के काम और योगदान को रेखांकित करने में पीछे नहीं रहते थे।’ तीनों हर खास मुद्दे पर विपक्ष को तो भरोसे में लेते ही थे, संपादकों को भी नियमित ब्रीफ करते थे।
इस खाते में हालांकि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम नहीं है, लेकिन इन पंक्तियों को पढ़ते वक्त सोच रहा था कि अतीत और वर्तमान में कोई सीधा अंतर्विरोध तो नहीं है? राव, वाजपेयी, और सिंह से तुलना करें, तो विदेश नीति के मामले में नरेंद्र मोदी बहुत सोचने-विचारने या अनुभव के फेर में पड़ने की बजाय तात्कालिक सोच से काम करते हैं। उनकी सोच इकतरफा है, न कि सलाह-मशविरे वाली। विदेश में भी वह कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों पर हमलावर रहते हैं, वाजपेयीजी की तारीफ भी शायद ही कभी की हो। मेनन लिखते हैं कि ‘वाजपेयीजी के मामले में कोई भी महसूस कर सकता था कि वह तात्कालिक पार्टी हितों की अपेक्षा व्यापक हित पर ज्यादा सोचते थे’।
चौथे, मेनन जोर देते हैं कि विदेश नीति की सफलता राजनेताओं के अतिवादी भाषणों और संपादकों-एंकरों की लफ्फाजी की अपेक्षा शांति व धैर्य के साथ परदे के पीछे के प्रयासों पर ज्यादा निर्भर करती है। यहां भारत-चीन सीमा पर शांतिपूर्ण सहअस्त्वि का उदाहरण दिया जा सकता है, जो बिना किसी औपचारिक बातचीत या समझौते के देखा गया। मेनन लिखते हैं कि ‘सीमा के अलावा भी भारत-चीन के पास बहुत कुछ है’। बीते दो दशकों में संबंधों में बहुत सुधार आया है। द्विपक्षीय व्यापार 70 गुना बढ़ा है। यह बताता है कि शांतिपूर्ण सहअस्त्वि कैसे संभव हुआ। ‘सार्वजनिक तौर पर बयानबाजी व शक्ति प्रदर्शन में संयम और विपरीत हालात को भी एक राह बना लेना सफलता की असली कुंजी है, यही हमारा पसंदीदा समाधान था।’
किताब के अंत में उनका निष्कर्ष है कि ‘चीन की आशातीत प्रगति और अपने आस-पास के अन्य तमाम परिवर्तनों से उत्पन्न हालात के मद्देनजर ‘प्यार से बोलो और लट्ठ तैयार रखो’ की नीति भारत के लिए सबसे ज्यादा मुफीद और उत्पादक है। वह आगे जोड़ते हैं, ‘जैसा कि शरशय्या पर पड़े भीष्म ने कहा था,‘ वह जो चुप है, उसका अनुसरण दूसरे लोग भी करते हैं। संयमी इंसान जीवन में सब कुछ पा लेता है।’ ये ऐसे शब्द हैं, जिन पर नई दिल्ली को आगे भी ध्यान देने की जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)