जीवन के रंगमंच पर
देखा जाए, तो हम सब अभिनेता हैं, जीवन के रंगमंच पर अभिनय कर रहे हैं, हंस रहे हैं, रो रहे हैं। यह सारा अनुभव सच लगता है, लेकिन इसमें झूठ भी शामिल है। हजारों साल से ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या बताया...
देखा जाए, तो हम सब अभिनेता हैं, जीवन के रंगमंच पर अभिनय कर रहे हैं, हंस रहे हैं, रो रहे हैं। यह सारा अनुभव सच लगता है, लेकिन इसमें झूठ भी शामिल है। हजारों साल से ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या बताया गया है, पर यही मिथ्या तो हमें आनंद दे रहा है। दुनिया इसी आवरण में लिपटी है। इसके पंच कंचुकों को खोलना पड़ता है, तभी सत्य का साक्षात्कार होता है। हम लगातार दौड़ रहे हैं, बूंद बनकर समुद्र की ओर यात्रा कर रहे हैं। समुद्र बनने की लालसा ही हमें पूर्णता की ओर ले जाती है। कहा गया है कि पूर्ण में से पूर्ण को निकाल दिया जाए, तब भी पूर्ण बचा रह जाता है- ‘पूर्णमेवावशिष्यते’।
ओशो ने बताया है कि एक अभिनेता किसी महात्मा के पास ज्ञान पाने की इच्छा से गया अज्ञैर उनसे पूछा- जीवन कैसे जिऊं? महात्मा बोले, ‘जब रंगमंच पर अभिनय करो, तो समझो कि संसार में हूं, जीवन जी रहा हूं और जब संसार में रहो, तो समझो कि अभिनय कर रहा हूं।’ अभिनय में दुख का बोझ नहीं होता, उसमें जीत-हार का कोई मतलब नहीं होता। राजा बनें या रंक, कोई फर्क नहीं पड़ता। अभिनय समाप्त होते ही सब वास्तविक रूप में आ जाते हैं। नियत समय पर पट-परिवर्तन हो जाता है। नदी बहती है, घाट-नगर बदलते जाते हैं, लेकिन उसकी यात्रा बदस्तूर जारी रहती है।
जीवन जीने का सतही रूप प्राय: एकांगी होता है, इसके कारण वह नीरस भी लगता है, लेकिन अभिनय में विविधता होती है, उसके हजार रंग होते हैं, इसलिए वह आकर्षक होता है। जीवन में रहकर भी ऊपर उठे रहना, कमल के पत्ते की तरह पानी से ऊपर होना ही जीवन को रसमय बनाता है- ‘पद्मपत्र मिवांभसा’।