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एनआईए भी एक तोता है

दुनिया की तमाम नानियों की तरह मेरी नानी भी गजब की किस्सागो थीं। गरमी की छुट्टियों में हम सभी भाई-बहन उनके ईद-गिर्द सिमटे कहानियां सुनते थे। उन्होंने ही मेरी मुलाकात उस तोते से कराई थी, जिसमें राक्षस...

एनआईए भी एक तोता है
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 26 Apr 2016 09:21 PM
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दुनिया की तमाम नानियों की तरह मेरी नानी भी गजब की किस्सागो थीं। गरमी की छुट्टियों में हम सभी भाई-बहन उनके ईद-गिर्द सिमटे कहानियां सुनते थे। उन्होंने ही मेरी मुलाकात उस तोते से कराई थी, जिसमें राक्षस की जान बसती थी और जिसकी गरदन मरोड़कर ही राजकुमारी को कैद से आजाद कराया जा सकता था।

बड़े होने पर एक और यादगार तोते से मेरा परिचय हुआ। मॉर्खेज के कालजयी उपन्यास लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा  में डॉक्टर उरबिनो का यह तोता बोलता है। तोता डॉक्टर उरबिनो की बीवी द्वारा खरीदे जाने के पहले जहाजियों के बीच पला-बढ़ा था और उन्हीं जैसी गालियों से भरी भाषा बोलता है। एक बार चोर को बडे़ कुत्ते के अंदाज में भौंककर भगा देता है। सीबीआई के बारे में जब मैंने सुप्रीम कोर्ट की तोते वाली टिप्पणी पढ़ी, तो मुझे इन दोनों तोतों की याद आई। सुप्रीम कोर्ट ने चिढ़कर यह टिप्पणी की थी। उन दिनों यूपीए-दो की सरकार के कई मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की जांच चल रही थी और अदालत इनका निकट से पर्यवेक्षण कर रही थी।

राष्ट्रमंडल खेलों, 2-जी स्पेक्ट्रम के आवंटन या कोयला खदानों से संबंधित घोटालों में सीबीआई नित अपना स्टैंड बदलती रहती थी और सारे बदलाव हाकिम-ए-वक्त को खुश करने के लिए होते थे। यह एक खुला रहस्य था कि यूपीए-एक और दो की अल्पमत सरकारें सीबीआई के बल पर ही 2004 से 2014 तक लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करती रहीं। उत्तर प्रदेश के दो बड़े नेताओं- मुलायम सिंह और मायावती के खिलाफ कदाचार और आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के मामलों की जांच सीबीआई कर रही थी, और नतीजतन बाहर कांग्रेस को गाली देने और एक-दूसरे से व्यक्तिगत स्तर पर दुश्मनी के बावजूद सदन में दोनों सरकार के पक्ष में साथ खड़े दिखते थे।

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान 1941 में सरकारी ठेकों में फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए स्पेशल पुलिस इस्टेबलिशमेंट के रूप में एक छोटे से संघटन के रूप में सीमित उद्देश्यों के लिए स्थापित यह संस्था 1963 में सीबीआई के तौर पर एक विशाल अखिल भारतीय एजेंसी बन गई, जिसका मुख्य काम अब भी भ्रष्टाचार के मामलों की तफ्तीश करना था। यह अलग बात है कि कालांतर में गंभीर अपराधों की विवेचना इसका एक महत्वपूर्ण काम बनता गया। 1980 के दशक में कश्मीरी व खालिस्तानी दहशतगर्दी के मामलों की विवेचना भी सीबीआई के हवाले होती गई और अक्सर अदालतों ने राज्य एजेंसियों की नालायकी से चिढ़कर उसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले सौंपने शुरू कर दिए। देश में आतंकी घटनाओं की बढ़ती रफ्तार ने शिद्दत के साथ सबको यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि इन घटनाओं की विवेचना तथा इनसे संबंधित आ-सूचना (इंटेलिजेंस) एकत्रित करने के लिए एक विशेषज्ञ एजेंसी की आवश्यकता है, जो सिर्फ आतंकी संगठनों और उनकी कारगुजारियों पर अपने को केंद्रित करे। साल 2008 में मुंबई पर हुए हमलों के बाद नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी यानी एनआईए की स्थापना हुई और जैसा कि भारतीय परंपरा है, स्थापना के समय से ही इसके समर्थन व विरोध में राजनीतिक स्वर सुनाई देने लगे।

कांग्रेस और तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम जहां इसके पक्ष में दलीलें दे रहे थे, तो वहीं लगभग सभी विपक्षी दल इसे संघवाद के विरुद्ध मानते हुए इसके जन्म में रुकावटें डालने के प्रयास कर रहे थे। बहरहाल, किसी तरह यह संस्था अस्तित्व में आ ही गई। सौभाग्य से एनआईए को पहले निदेशक के रूप में बहुत ही योग्य और पेशेवर अधिकारी राधा विनोद राजू मिले। अपने करियर का बड़ा हिस्सा सीबीआई में बिताने वाले राधा विनोद राजू ने शुरुआत तो अच्छी की, मगर जल्द ही एनआईए भी उसी मकड़जाल में फंस गई, जिसमें फंसी हुई सीबीआई को तोते की संज्ञा दी गई थी। एनआईए ने भी मौजूदा सरकारों का मुंह जोहना शुरू कर दिया है और नतीजतन कई मामलों में उसका गैर-पेशेवर रवैया मीडिया व अदालतों की आलोचना का शिकार हुआ है।

इशरत जहां के कथित पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने की गाथा एनआईए के जन्म के कुछ ही दिनों बाद गैर-पेशेवर हो जाने की दुखांतिका है। इशरत जहां के मामले में बहस इस बात पर होनी चाहिए थी कि क्या भारतीय राज्य किसी आतंकवादी को पकड़कर बिना मुकदमा चलाए मार सकता है, लेकिन गुजरात पुलिस, आईबी और एनआईए ने मामले को इस तरह उलझा दिया कि पूरी बहस इस पर केंद्रित हो गई कि इशरत जहां लश्कर-ए-तैयबा से संबंधित थी या एक निदार्ेष लड़की थी, जिसे पुलिस मुठभेड़ में मार दिया गया। अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए दो-तीन महीनों में ही एनआईए ने हेडली का बयान एसआईटी को देने का अपना निर्णय बदल दिया।

एनआईए न सिर्फ इशरत जहां के मामले में, बल्कि समझौता एक्सप्रेस, जर्मन बेकरी कांड और सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामलों में भी बदलते राजनीतिक आकाओं को ध्यान में रखते हुए अपना रवैया बदलती रही। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि सीबीआई को तोता बनाने में वर्षों लगे, लेकिन जुम्मा-जुम्मा आठ दिन की एनआईए तो जैसे इसके लिए तैयार ही बैठी थी। शायद यह हमारे समय की गिरावट की मांग है।

पिछले कुछ दशकों में आईबी़, सीबीआई, रॉ या अब एनआईए के प्रमुखों को हाकिम-ए-वक्त ने उनकी सेवाओं के अनुरूप इनाम-इकराम दिया है। इसकी पड़ताल करना बड़ा दिलचस्प होगा कि इन संस्थाओं के शीर्ष पदों पर बैठे कितने लोग राज्यपाल, राजदूत या आयोगों के सदस्य बने हैं। सेवानिवृत्ति के बाद सांविधानिक पदों पर पहुंचे इन अधिकारियों ने तत्कालीन सरकारों का एजेंडा किस तरह अपने सामर्थ्य भर लागू किया होगा, इसकी पड़ताल भी बहुत मुश्किल नहीं होगी।

हमें एनआईए को तोता बनने से बचाना है, तो दो काम करने होंगे। पहला, राजनीतिक नेतृत्व को अपने को सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग से बचाने का प्रयास करना होगा और दूसरा, शीर्ष पर पहुंचे अधिकारियों को रिटायर होने के बाद शांति से घर बैठने के लिए मानसिक रूप से खुद को तैयार करना होगा। कम से कम मुझे तो यकीन नहीं है कि निकट भविष्य में ये दोनों चीजें होने जा रही हैं। इसलिए हमें किसी दिन एनआईए के लिए भी तोते की संज्ञा सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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