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पढ़-लिखकर नहीं बने उदार

आधुनिक समय में यह माना जाता रहा है कि जब लोग पढ़ेंगे-लिखेंगे, आधुनिक बनेंगे, तो आचरण और विचारों में भी उदार व प्रगतिशील होंगे। यह भी माना जाता रहा है कि पढ़ने-लिखने से धार्मिकता का असर कम हो जाता...

पढ़-लिखकर नहीं बने उदार
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 29 Apr 2016 09:34 PM
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आधुनिक समय में यह माना जाता रहा है कि जब लोग पढ़ेंगे-लिखेंगे, आधुनिक बनेंगे, तो आचरण और विचारों में भी उदार व प्रगतिशील होंगे। यह भी माना जाता रहा है कि पढ़ने-लिखने से धार्मिकता का असर कम हो जाता है।

इसी वजह से कई पुरातनपंथी या परंपरावादी लोग आधुनिक पढ़ाई-लिखाई को संस्कारों व परंपराओं का दुश्मन मानते रहे हैं। इसी नजरिये से यह भी आम धारणा रही है कि सांप्रदायिक कट्टरता, उग्रवाद और आतंकवाद से प्रभावित होने वाले लोग अनपढ़ होते हैं, पढ़े-लिखे लोग इतने समझदार होते हैं कि वे ऐसी बातों में नहीं पड़ते, या फिर कुछ पढे़-लिखे कुटिल लोग इन अनपढ़ लोगों का इस्तेमाल करते हैं। हमारे लिए आतंकवादी का अर्थ अफगानी तालिबान या पाकिस्तानी लश्कर-ए-तैयबा का अनपढ़ नौजवान है, जो अपने धर्म की गलत समझ की खातिर मरने-मारने को तैयार है।

ध्यान से देखें,तो धार्मिक कट्टरता और आधुनिक पढ़ाई-लिखाई के बारे में यह समझ सही तस्वीर पेश नहीं करती। मुस्लिम समाजों में ऐसे नौजवानों की तादाद बढ़ती जा रही है, जो कट्टरवादी सोच व आतंकवादी विचारधारा के सक्रिय समर्थक हैं, और अनपढ़ नहीं हैं। बड़ी तादाद में ऐसे नौजवान अच्छे खाते-पीते परिवारों से आते हैं और उन्होंने ऊंची शिक्षा प्राप्त कर रखी है। उनमें से कई डॉक्टर, इंजीनियर या प्रबंधन में ऊंची डिग्रियां पाए हुए हैं। कुछ दिनों पहले आतंकवादी संगठनों में सक्रिय इंजीनियरिंग की डिग्री पाए नौजवानों के बारे में एक अध्ययन आया था। अगर आतंकवाद को छोड़ भी दें, तो ऊंची शिक्षा पाए नौजवानों में काफी बड़ी तादाद ऐसे नौजवानों की है, जो धर्म के शुद्धतावादी, कट्टर और संकीर्ण स्वरूप को                
मानते हैं। सलाफी या वहाबी विचार को मानने वाले लोग धर्म के प्रचार में सबसे ज्यादा सक्रिय हैं और इनके प्रचारकों में और इनसे प्रभावित होने वालों में पढ़े-लिखे नौजवान बहुत बड़ी संख्या में हैं। अगर हिंदू धर्म को देखें, तब भी हम पाएंगे कि आधुनिक पढ़ाई-लिखाई व धार्मिक कट्टरता का रिश्ता उतना सरल नहीं है। यह सही है कि आधुनिकता और आधुनिक पढ़ाई के प्रभाव में काफी लोग उतने धार्मिक या परंपरावादी नहीं रहे, लेकिन बड़ी तादाद में ऐसे लोग भी हैं, जो पढ़े-लिखे होकर काफी कट्टर हैं, बल्कि ऐसे लोगों की भी बड़ी तादाद है, जो आचरण और रहन-सहन में आधुनिक व पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित हैं, साथ ही धर्म के स्तर पर सांप्रदायिक व पुरातनपंथी हैं। मजेदार बात यह है कि अमेरिका और इंग्लैंड में बसे आप्रवासी भारतीयों में विश्व हिंदू परिषद या उस जैसी संस्थाओं का प्रभाव सबसे ज्यादा है- आईटी उद्योग में लगे लोगों से लेकर डॉक्टरों और शिक्षाविदों तक में।

ये बातें इसलिए विरोधाभासी लगती हैं, क्योंकि हमने आधुनिकता, विज्ञान और धर्म के बीच एक सरल-सा समीकरण मान लिया है। यह समीकरण गलत इसलिए है कि हम हमेशा से आधुनिक पश्चिमी नजरिये से इस बात को समझने की कोशिश करते रहे। हमने भारतीय या अन्य पूर्वी समाजों के नजरिये से इन समाजों और आधुनिकता के रिश्ते को समझने की कोशिश नहीं की। पश्चिम में आधुनिकता, वैज्ञानिकता व आधुनिक शासन व्यवस्थाएं उन समाजों में ही पैदा व विकसित हुई थीं। इन नई प्रवृत्तियों का वहां की ईसाई धर्मसत्ता से वर्चस्व का संघर्ष हुआ, जिसमें धर्म की स्थिति कमजोर हुई। यह उस समाज का आंतरिक जैविक संघर्ष था। पूर्वी देशों में आधुनिकता, वैज्ञानिकता, नई किस्म की पढ़ाई, मूल्य-व्यवस्था दरअसल उपनिवेशवाद और विदेशी गुलामी के साथ आईं, इसलिए इन समाजों में इनके प्रति प्रतिक्रिया भी अलग तरह से हुई।

भारत के संदर्भ में देखें, तो 19वीं सदी की शुरुआत में दोनों प्रमुख धर्म- हिंदू धर्म और इस्लाम- बड़े पैमाने पर लोकधर्मी, विविधतापूर्ण और स्थानीय लोक संस्कृतियों में घुले-मिले थे। इन दोनों धर्मों के तत्व भी एक-दूसरे से इतने मिल गए थे कि कई छोटे-छोटे समाज ऐसे थे, जिनके बारे में यह कहना मुश्किल था कि वे हिंदू हैं या मुसलमान। जाहिर है, इतनी बड़ी प्रक्रिया में कुछ गलत व अवांछित भी था, लेकिन व्यापक रूप से यह शुभ स्थिति थी। ऐसे में, अंग्रेजों के आने की कई तरह की प्रतिक्रिया हुई। चूंकि अंग्रेजों का दावा था कि भारतीय धर्म-संस्कृति वगैरह हीन हैं, इसलिए एक प्रतिक्रिया यह थी कि अंग्रेजी संस्कृति की श्रेष्ठता स्वीकार कर ली जाए। दूसरी प्रतिक्रिया विरोध की थी कि यह दावा किया जाए कि नहीं, हमारा धर्म, हमारी संस्कृति श्रेष्ठ है।

तीसरी प्रतिक्रिया यह थी कि हमारा धर्म और संस्कृति मूल रूप से तो श्रेष्ठ हैं, पर इन दिनों उनमें बहुत मिलावट हो गई है, इसीलिए हमारी यह गति हुई है, और धर्म-संस्कृति का मूल शुद्ध स्वरूप स्थापित किया जाए। चूंकि बहुत सारी अशुद्धता हिंदू-मुस्लिम घालमेल से पैदा हुई हैं और अब दोनों का राज नहीं है, इसलिए क्यों न अंग्रेज शासकों से धर्म के शुद्ध स्वरूप पर मुहर लगवा ली जाए। एक कोशिश यह भी हुई कि साबित किया जाए कि हमारे धर्म मूलत: ईसाइयत जैसे ही हैं। एक कोशिश यह भी हुई कि धर्म के लोकधर्मी और उदार स्वरूप को बनाए रखते हुए उसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रगतिशील मूल्यों से जोड़ा जाए और नए जमाने में प्रासंगिक बनाया जाए। ये सभी तरीके आपस में विरोधी होते हुए भी अक्सर एक ही संस्था या व्यक्ति में मिल सकते हैं। वह दौर इतने घालमेल और उथल-पुथल का था कि उसमें विरोधाभास का होना स्वाभाविक था। इसे हमारे कट्टर प्रगतिशील नहीं समझ पाते, और न ही कट्टर पुरातनपंथी समझ पाते हैं।

क्योंकि इन प्रवृत्तियों में धर्म की शुद्धतावादी प्रवृत्ति भी थी और उसे अंग्रेजी शासकों की मान्यता भी मिली थी, इसलिए उसका प्रभाव काफी तगड़ा था। शुद्धतावादी ब्राह्मणों ने ब्राह्मणवाद को असली हिंदू धर्म के रूप में सरकारी मान्यता दिलवा दी, और दूसरी ओर कट्टर मुसलमानों ने इस्लाम में जो स्थानीय भारतीय तत्व शामिल हो गए थे, उन्हें हटाकर यथासंभव शुद्ध इस्लाम को स्थापित करने की कोशिश की।

अंग्रेजी राज में भारतीयों का जो एक तबका अंग्रेजी शिक्षा हासिल कर रहा था, उसे यह सरकारी मान्यता प्राप्त शुद्ध धर्म भी स्वीकार्य लगा। इस तरह, संस्कृतनिष्ठ सनातन धर्म मूल हिंदू धर्म मान लिया गया और अरबी शुद्ध इस्लाम ही असली इस्लाम मान लिया गया। इसलिए हमारे यहां आम अनपढ़, गंवार लोक सांप्रदायिक कम हुआ, क्योंकि वह धर्म की मिश्रित लोकधर्मी परंपरा से जुड़ा रहा। सांप्रदायिकता पढे़-लिखे शहरी लोगों में ज्यादा फैली। तमाम सांप्रदायिक संगठन मूलत: शहरी, मध्यमवर्गीय और उच्चवर्गीय हैं, चाहे वे हिंदू संगठन हों या फिर मुस्लिम।

कमोबेश यह स्थिति पूरी दुनिया में है। इसीलिए अक्सर हम पाते हैं कि सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाले कई नेता अपने निजी जीवन में बिल्कुल आधुनिक, पश्चिमी रहन-सहन वाले और लगभग अधार्मिक हैं। अगर हम ऐतिहासिक विकास के इन तथ्यों को समझने की कोशिश करेंगे, तभी आधुनिक पढ़ाई और धार्मिक कट्टरता के उलझे रिश्तों को सुलझा पाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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