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बचपन बचाए रखिए

हमारी उम्र रोज बढ़ रही है, हम रोज बड़े हो रहे हैं। कद बढ़ा, शरीर पुष्ट हो गया, मन में समझदारी आई, हम ज्ञान-विज्ञान के भंडार होते गए। मान, धन, पद- सबमें लगातार वृद्धि हुई, पर साथ ही हम युवा से प्रौढ़ और...

बचपन बचाए रखिए
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 22 Jun 2016 11:26 PM
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हमारी उम्र रोज बढ़ रही है, हम रोज बड़े हो रहे हैं। कद बढ़ा, शरीर पुष्ट हो गया, मन में समझदारी आई, हम ज्ञान-विज्ञान के भंडार होते गए। मान, धन, पद- सबमें लगातार वृद्धि हुई, पर साथ ही हम युवा से प्रौढ़ और वृद्ध भी होते गए। इंद्रियां कमजोर हुईं, उत्साह शिथिल हो गया और काम बोझ बन गया।

दरअसल, काम-काज हमें स्फूर्ति देता है, तरोताजा करता है, पर तभी तक, जब तक कि यह खेल रहता है। हम जब काम को खेल समझते हैं, तो वह रुचिकर हो जाता है। फ्रायड जैसे मनोविश्लेषकों ने ‘प्ले इंस्टिंक्ट’ की बात की है। यह खेल भावना हममें जन्मजात है। हम जब तक खेलना चाहते हैं, हममें शिशुता बनी रहती है। मर्ढ़ेकर ने लिखा है  कि हम सिनेमा हॉल में भी अक्सर 63 बार अपनी मुद्राएं बदलते हैं। उन्मुक्त ठहाके और उल्लास की ताजगी से हम भरे रहते हैं। यह क्रीड़ा-वृत्ति हमें ज्ञान के भार से मुक्त करती है। शिशुता को भी ‘सहज समाधि’ समझिए।

संसार भर का साहित्य बाल-लीलाओं से भरा पड़ा है। सूर और तुलसी की रचनाओं में शैशव की यह क्रीड़ा मिलती है। सूरदास मैया, मोरी मैं नहिं माखन खायो  जैसे पद गाते हैं, तो तुलसी न्योछावरि प्रान करे तुलसी बलि जाऊं लला इन बोलन की  कहते हैं। बड़े होकर हम सभ्य होते हैं, सभ्यता छिपाने की कला है, पर शिशुता में खुलापन है। हम बड़े होकर कुटिलता, चालाकी और प्रपंच से बोझिल होकर हंसना भूल जाते हैं। हमारा रुदन और हमारी हंसी जब शिशु की तरह होती है, तो सबको प्रिय लगती है। शायद इसीलिए साहित्य को भी क्रंदन कहा गया है- ‘लिटरेचर इज अ क्राय’। भारतीय चिंतन में राम, कृष्ण, गणेश, हनुमान आदि मनुष्यों की तरह बाल-क्रीड़ाएं करते हैं। दिनकर कहते हैं, कृष्ण आज लघुता में भी सांपों से बहुत बड़ा है। सरलता ही शिशुता है, जैसे हैं वैसे दिखना, न परदा, न दुराव, तभी हम मनुष्य के रूप में दिखाई देते हैं।
 

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