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दक्षिण अफ्रीका के गांधीवादी संघर्ष की आखिरी कड़ी

भारतीय मूल के रंगभेद-विरोधी महान नेता अहमद कथराडा नहीं रहे। वह नेल्सन मंडेला, वाल्टर सिसलू और डेसमंड टूटू के साथ दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद विरोधी संघर्ष के प्रसिद्ध नेतृत्व का हिस्सा थे। रंगभेद के...

दक्षिण अफ्रीका के गांधीवादी संघर्ष की आखिरी कड़ी
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 30 Mar 2017 12:45 AM
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भारतीय मूल के रंगभेद-विरोधी महान नेता अहमद कथराडा नहीं रहे। वह नेल्सन मंडेला, वाल्टर सिसलू और डेसमंड टूटू के साथ दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद विरोधी संघर्ष के प्रसिद्ध नेतृत्व का हिस्सा थे। रंगभेद के खिलाफ इस संघर्ष में उन्होंने अपनी जिंदगी के 26 साल, तीन महीने रंगभेदी सरकार की जेलों में बिताए थे। इनमें रोबेन आइलैंड की बदनाम जेल के खौफनाक 18 साल भी शामिल हैं। चारों ओर समुद्र से घिरी इस जेल से काफी दूर बसा केपटाउन शहर दिखाई देता था, ताकि कैदी वापस जाने की तमन्ना में हमेशा दुख व अवसाद से घिरा रहे। कथराडा ने अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा इस जेल में इसलिए गुजार दिया, क्योंकि उन्हें रंगभेद मंजूर नहीं था। गांधीजी ने अफ्रीका में बसे भारतीयों के भीतर अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का जज्बा पैदा किया था। मूलत: गुजराती बोहरा समुदाय के कथराडा उस परंपरा की आखिरी कड़ी थे। 

नेल्सन मंडेला व अहमद कथराडा की पहली मुलाकात की कहानी बहुत दिलचस्प है। अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) हर साल एक मई को रंगभेदी कानूनों के खिलाफ स्वतंत्रता दिवस मनाती थी। 1950 में हुए इस आयोजन में एएनसी के अलावा दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय मूल के लोगों की पार्टी ट्रांसवाल इंडियन यूथ कांग्रेस ने भी हिस्सा लिया था। कथराडा ट्रांसवाल इंडियन यूथ कांग्रेस के संगठनकर्ताओं में एक थे। मंडेला का मानना था कि अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस को अन्य पार्टियों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए, ताकि अपने मूल उद्देश्यों पर ध्यान दिया जा सके। यह बात युवा कथराडा को बहुत नागवार गुजरी। नेल्सन मंडेला अपनी आत्मकथा लॉन्ग वॉक टु फ्रीडम  में लिखते हैं कि उस वक्त अहमद कथराडा बमुश्किल 22 साल के रहे होंगे।

एक दिन सड़क पर घूमते हुए मंडेला और कथराडा मिल गए। कथराडा ने बिना किसी भय के मंडेला के साथ वाद-विवाद शुरू कर दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि मंडेला भारतीयों के साथ काम नहीं करना चाहते। मंडेला को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने कथराडा की शिकायत अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस, साउथ अफ्रीकन इंडियन कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी से की। बाद में मंडेला ने भारतीय मूल के एक अन्य साथी इस्माईल मीर के समझाने पर यह शिकायत वापस ले ली। अफ्रीका के रंगभेद विरोधी आंदोलन के दो महान नेताओं की यह पहली मुलाकात थी। मंडेला व कथराडा हमेशा अपनी पहली मुलाकात का किस्सा लोगों को सुनाते और खूब ठहाके लगाते थे।

कथराडा उन लोगों में एक थे, जिन्होंने दक्षिण अफ्रीकी संघर्ष के साथ-साथ देश में स्वस्थ लोकतंत्र की बुनियाद भी डाली थी। हाल के दिनों में दक्षिण अफ्रीकी राजनीति में उभरे कट्टरपंथी रुझानों के खिलाफ उन्होंने जनता को चेतावनी दी थी। साल 2005 में दिए गए अपने एक भाषण में कथराडा ने कहा था कि सत्ता पक्ष में कुछ लोग विपक्ष को प्रतिद्वंद्वी की तरह नहीं, दुश्मन की तरह समझने लगे हैं, जबकि विपक्ष दुनिया की हर लोकतांत्रिक व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा रहा है।

उन्होंने यह भी कहा कि युवा पीढ़ी में अपने संघर्ष के इतिहास के प्रति बढ़ती अनभिज्ञता भी देश में लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। उनके मुताबिक, युवाओं को यह समझना चाहिए कि स्वाधीनता अपने साथ जिम्मेदारी भी लाती है और स्वाधीनता कोई स्वर्ग से टपकी हुई चीज नहीं है। यह अनवरत संघर्ष से मिली है, जिसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, बलिदान देने पड़ते हैं। उनका कहना था कि जब तक नौजवान यह नहीं समझते कि आजादी कैसे मिली, वे यह भी नहीं जान सकते कि उनके कामों और बातों का देश पर क्या असर पड़ेगा?

दक्षिण अफ्रीका के इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने एक बार कहा था कि मृत्यु के माध्यम से आप एक बार फिर सभी स्तर, धर्म और ओहदे के लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि कैसे उनके अपने कर्म दुनिया पर भला या बुरा असर डालते हैं। यह एक ऐसे क्रांतिकारी का नजरिया है, जिसने ऐसी परिस्थितियों में जेल की सजा काटी, जहां सामान्य तौर पर जीवन से ज्यादा आकर्षण मृत्यु के प्रति होता है। कथराडा इसलिए याद आएंगे, क्योंकि अपने जीवन और संघर्ष के जरिये वह अफ्रीकी राजनीति का ऐसा नैतिक केंद्र बन गए थे, जहां देश की भलाई आपसी स्पद्र्धा और मनमुटाव से कहीं बड़ी हो जाती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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