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कितनी अपनी होती है अपनी कंपनी

उन्होंने स्वामित्व को लोकतांत्रिक बनाया है, जबकि हमने मैनेजमेंट को। यह बात कभी अजीम प्रेमजी ने अपनी कंपनी विप्रो और प्रतिद्वंद्वी इंफोसिस के संदर्भ में कही थी। अजीम तब भी विप्रो के चेयरमैन थे और...

कितनी अपनी होती है अपनी कंपनी
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Jan 2017 10:39 PM
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उन्होंने स्वामित्व को लोकतांत्रिक बनाया है, जबकि हमने मैनेजमेंट को। यह बात कभी अजीम प्रेमजी ने अपनी कंपनी विप्रो और प्रतिद्वंद्वी इंफोसिस के संदर्भ में कही थी। अजीम तब भी विप्रो के चेयरमैन थे और कंपनी में बड़ी हिस्सेदारी रखते थे, जबकि इंफोसिस के बारे में यह प्रचलित धारणा थी कि कंपनी के हर योग्य सह-संस्थापकों को सीईओ बनने का ईश्वरीय अधिकार है। मैं जिस वक्त का जिक्र कर रहा हूं, वह पारिवारिक स्वामित्व वाली विप्रो में अजीम प्रेमजी के बेटे के शामिल होने और इंफोसिस द्वारा बाहर से सीईओ लाने के फैसले से पहले का है। मैं अक्सर सोचता हूं कि नंदन नीलेकणि ने 2007 में जब इंफोसिस का संचालन छोड़ने की मंशा जताई थी, उसके बाद अगर कंपनी किसी बाहरी को सीईओ बनाकर ले आती, तो क्या हुआ होता? शायद इंफोसिस खुद को आज से बेहतर स्थिति में पाती। 

निश्चय ही, कंपनियों के पास ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें अंदर के लोगों को ही उत्तराधिकारी बनाना बिल्कुल सही साबित हुआ है। मगर बड़े-बड़े निवेशकों को कंपनी के कार्यकारी पदों से संस्थापकों को हटाने में कभी कोई परेशानी नहीं हुई है। पिछले साल भर का, या यदि पिछले हफ्ते का ही घटनाक्रम देखें, तो ऐसा लगता है कि निवेशक इसे लेकर कहीं ज्यादा उत्सुक रहते हैं, और शायद खुश भी। इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण हाउसिंग डॉट कॉम है (बेशक उसके संस्थापक राहुल यादव को विवादों की वजह से कंपनी छोड़नी पड़ी) और अब फ्लिपकार्ट। 

दरअसल, पिछले साल फ्लिपकार्ट के कार्यकारी बोर्ड ने सबसे बड़ी निवेशक कंपनी टाइगर ग्लोबल मैनेजमेंट के दबाव में अपने तत्कालीन सीईओ सचिन बंसल को, जो कि कंपनी के सह-संस्थापक भी हैं, चेयरमैन के पद से हटा दिया। उनकी जगह बिन्नी बंसल को सीईओ बनाया गया। बिन्नी भी कंपनी के सह-संस्थापक हैं। यहां नाम को लेकर आप बिल्कुल भी भ्रम में न रहें, सचिन और बिन्नी में खून का कोई रिश्ता नहीं है, बल्कि दोनों अच्छे दोस्त हैं। सचिन की विदाई के बाद जल्दी ही मुकेश बंसल (इनका भी कोई पारिवारिक संबंध नहीं है) ने भी कंपनी छोड़ दी। मुकेश मिंत्रा के संस्थापक हैं और जब फ्लिपकार्ट ने इस कंपनी का अधिग्रहण कर लिया, तो वह फ्लिपकार्ट में ही अपना भविष्य देख रहे थे।

इन तमाम बदलावों से कुछ दिन पहले ही ई-कॉमर्स जगत और निवेशकों के बीच यह फुसफुसाहट जोरों पर थी कि टाइगर ग्लोबल मैनेजमेंट और उसके एकांतप्रिय मैनेजर ली फिक्सल को मुकेश बंसल में बड़ी संभावना दिखाई दे रही है। हालांकि, चर्चा यह भी थी कि मुकेश बंसल और बिन्नी बंसल एक-दूसरे को पसंद नहीं करते। मगर जब बिन्नी बंसल को सबसे बड़ा पद मिला, तो उसका यही मतलब निकाला गया कि टाइगर और फिक्सल ने उन्हें अपने सह-संस्थापक और मुकेश बंसल से अधिक तवज्जो दी है।

बहरहाल, पिछले हफ्ते टाइगर ग्लोबल और फिक्सल ने एक और बदलाव किया। बिन्नी बंसल को फ्लिपकार्ट का ग्रुप सीईओ बना दिया गया और उनकी जगह कल्याण कृष्णमूर्ति को बतौर सीईओ लाया गया। कल्याण कृष्णमूर्ति टाइगर ग्लोबल के ही पुराने कर्मचारी हैं और बीते चार वर्षों में उन्होंने दो बार फ्लिपकार्ट को मुश्किल हालात से बचाया है। अब तस्वीर यह बन गई है कि कृष्णमूर्ति बिन्नी बंसल के मातहत आ गए हैं, जो फ्लिपकार्ट के ही कुछ अन्य कारोबार जैसे कि उसकी रसद इकाई, डिजिटल पेमेंट स्टार्ट-अप फोनपे संभालते हैं। बदलाव का संकेत साफ है। अब संस्थापकों को ऐसी जिम्मेदारी दी जा रही है, जो सीधे संचालन से जुड़ी हुई नहीं है।

यहां एक दिलचस्प सवाल पैदा होता है कि कृष्णमूर्ति, जिनका बाहरी सीईओ कहकर विरोध किया गया था, अब किसके हितों को ज्यादा तवज्जो देंगे- टाइगर के या फ्लिपकार्ट के? यह सवाल इसलिए, क्योंकि फ्लिपकार्ट की राह में आई पहली मुसीबत से पार पाने के बाद बिन्नी बंसल कंपनी में कृष्णमूर्ति की मौजूदगी को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं थे, जिसके कारण वह टाइगर ग्लोबल का भारतीय कारोबार संभालने वापस उसी कंपनी में चले गए थे। 

खैर, सीईओ को इस तरह बदलने की कवायद सिर्फ बड़े निवेशक ही नहीं करते। सक्रिय बोर्ड भी ऐसा ही करता है; यह अलग बात है कि सक्रिय होने की अपेक्षा सभी बोर्डों से की जाती है, पर भारत में कुछ ही बोर्ड सक्रिय हैं। मगर हां, प्रमोटर या संस्थापक को ऐसे मामलों में बोर्ड इस तरह बाहर का रास्ता शायद ही दिखाता है। भारतीय संदर्भ में मुझे ऐसा कोई उदाहरण नहीं दिखता। हालांकि ऐसे उदाहरण भी हैं, जब संस्थापकों ने खुद ही बाहर से सीईओ लाने का फैसला लिया। जैसे कि गूगल के संस्थापकद्वय लैरी पेज और सर्गेई ब्रिन द्वारा एरिक श्मिक को नियुक्त करना। यह वाकई संस्थापकों के लिए मुश्किल भरा फैसला होता है और सभी में इसे कबूल करने की परिपक्वता (और विनम्रता भी) नहीं होती। 

वैसे, संस्थापकों को बाहर जाने के लिए कहना हमेशा आसान नहीं माना जाता; यहां तक कि निवेशक कंपनियों के लिए भी नहीं। संस्थापकों में एक तरह का जुनून होता है और गुस्सा भी। उनका एक नजरिया होता है, जो दूसरों में ढूंढ़ना नामुमकिन तो नहीं, पर मुश्किल जरूर होता है। मगर एक ऐसा वक्त भी आता है, जब वह अपने कारोबार के लिए बेमानी मान लिया जाता है, क्योंकि उसमें वह दक्षता या अनुभव (या दोनों) नहीं रह जाता, जो उस समय कंपनी के संचालन के लिए जरूरी होता है। ऐसे में, उन लोगों की खोज आसान हो जाती है, जिनके पास जरूरी दक्षता व अनुभव हो। ऐसी हालत में, कंपनी में बड़ी हिस्सेदारी रखने वाले निवेशक बस यही उम्मीद करते हैं कि जिस बाहरी शख्स को वे बतौर सीईओ लेकर आ रहे हैं, उसके पास भी वही नजरिया हो, जैसा संस्थापक के पास है। निवेशकों को यह भरोसा होता है कि कारोबार एक मुकाम हासिल कर चुका है और संस्थापक का जोश व जुनून कंपनी की संस्कृति में रच-बस गया है। निवेशक यह भी उम्मीद पाले रहता है कि वह संस्थापक को दूसरी भूमिका (जो कि सार्थक होगी) के लिए मना लेगा।

हालांकि मेरा मानना है कि संस्थापकों को दूसरी भूमिका के लिए मनाना इतना आसान काम नहीं है। बेशक हमने पहले भी ऐसा होते देखा है। फिलहाल बंसलों के पास फ्लिपकार्ट का 14-15 फीसदी शेयर है, और कंपनी उन्हीं की कही जाती है। यह तस्वीर आगे भी बनी रह सकती है, फिर चाहे वे कंपनी चलाएं अथवा नहीं।

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