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बढ़ा वेतन बाजार को ताकत देगा

पिछले कुछ महीनों से केंद्रीय कर्मचारियों के बीच चर्चा का एक बड़ा मुद्दा यह था कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को कब मंजूरी मिलने वाली है। इस वेतन आयोग का गठन सेवानिवृत्त न्यायाधीश एके माथुर की...

बढ़ा वेतन बाजार को ताकत देगा
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 29 Jun 2016 09:36 PM
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पिछले कुछ महीनों से केंद्रीय कर्मचारियों के बीच चर्चा का एक बड़ा मुद्दा यह था कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को कब मंजूरी मिलने वाली है। इस वेतन आयोग का गठन सेवानिवृत्त न्यायाधीश एके माथुर की अध्यक्षता में किया गया था, और उसने अपनी सिफारिश नवंबर, 2015 में ही सौंप दी थी। अब जबकि कैबिनेट ने आयोग की सिफारिशों को लगभग हू-ब-हू मान  लिया है, तो सवाल यह है कि इसका देश की अर्थव्यवस्था पर कितना असर पड़ेगा? जिन्हें बढ़ा हुआ वेतन मिलेगा वे तो खुश हैं, लेकिन बाकी लोगों में डर यह है कि वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद क्योंकि  पहले महंगाई बढ़ती रही है, तो क्या इस बार भी यह 'परंपरा' कायम रहेगी?

सातवें वेतन आयोग के मामले में खास बात यह है कि इसने कई मायनों में तर्कसंगत सिफारिशें की हैं। आयोग ने सिर्फ कर्मचारियों का वेतन ही तय नहीं किया, बल्कि सरकारी कामों में जटिलता लाने वाले कई सारे भत्ते या पर्क को भी कम किया है। हर संवर्ग के बीच वेतन-भत्तों को लेकर अपेक्षाकृत समानता लाने की भी इसने पुरजोर कोशिश की है। और तो और, तरक्की, नौकरी में विस्तार जैसी बुनियादी बातों पर भी इसमें काफी अच्छी तरह ध्यान दिया गया है। यह सब स्वाभाविक तौर पर कर्मचारियों को प्रोत्साहित करेगा। यानी प्रशासनिक सुगमता लाने पर इसमें पर्याप्त ध्यान दिया गया है। फिर भी चर्चा कहीं अधिक इसके आर्थिक पक्ष की हो रही है, जो गलत नहीं है।

असल में, जब केंद्रीय कर्मियों का वेतन बढ़ा दिया जाता है, तो वह बढ़ा वेतन सरकार के अन्य अंगों के लिए एक न्यूनतम मानदंड बन जाता है। इन अंगों में  राज्य सरकार, स्वायत्त निकाय, सरकार द्वारा वित्त पोषित संस्थान आदि शामिल हैं। ये सभी अपने-अपने संसाधनों को देखते हुए इस न्यूनतम मानदंड के करीब पहुंचने की कोशिश करते हैं। इससे जाहिर तौर पर केंद्र व राज्य सरकारों पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है, जिसका उन्हें बंदोबस्त करना होता है। इन सिफारिशों को मानने के बाद अनुमान यही है कि केंद्र सरकार पर 1.02 लाख करोड़ रुपये का बोझ आने वाला है। पर माना यह जा रहा है कि वित्त मंत्रालय ने पहले ही इसका बंदोबस्त कर रखा है।

वेतन की इस वृद्धि में महंगाई एक अलग गणित है। माना यह जाता है कि जब एक बार लोगों के हाथों में पैसा आ जाता है, तो वह पैसा एक मांग पैदा करता है, जिससे महंगाई बढ़ती है। मगर लगता है कि इस बार महंगाई शायद ही हम पर बहुत ज्यादा असर डाले। इसकी दो वजहें हैं। पहली, इस वर्ष मानसून की सेहत ठीक है। ऐसे में कृषि उत्पादों की आपूर्ति पिछले साल की तुलना में ज्यादा होने की संभावना है। लिहाजा यहां अगर मांग बढ़ती है, तो कीमतों पर ज्यादा असर नहीं होगा। दूसरी वजह औद्योगिक उत्पादों से जुड़ी है। यहां से पिछले एक-दो वर्षों से क्षमता के अधिक उत्पादन हो रहा है। चूंकि मांग के बनिस्बत आवक पर्याप्त है, लिहाजा यहां भी महंगाई की मार देखने को नहीं मिलेगी।

तब सवाल यह है कि जब लोगों के पास पैसा आएगा, तो वह जाएगा कहां? यह तय है कि वह जहां भी जाएगा, वहां मांग पैदा करेगा। इससे अर्थव्यवस्था पर असर पड़ना लाजिमी है। पहले का अनुभव यह बताता है कि तीन-चार क्षेत्रों में यह पूंजी जा सकती है, जो अंतत: अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद साबित होगी। पहला क्षेत्र है, कंज्यूमर ड्यूरेबल गुड्स यानी टीवी, फ्रीज, कार आदि का। इनकी खरीदारी बढ़ेगी। दूसरा क्षेत्र रियल एस्टेट है। लोगों में जमीन या मकान खरीदने की ललक देखी जा सकती है। बढ़े वेतन का प्रभाव ऑटोमोबाइल सेक्टर पर भी पड़ेगा, और यह क्षेत्र भी तेज कुलांचे भर सकता है।  मोटरसाइकिल या कार खरीदना वैसे भी हमारी प्राथमिकताओं में होता ही है।

चौथा क्षेत्र है, कृषि। क्योंकि कई सारे सरकारी कर्मचारी गांवों से जुड़े होते हैं, लिहाजा जब उनके पास पैसे आएंगे, तो वे गांवों में जाकर घर बना सकते हैं, खेत खरीद सकते हैं  या खेती-बाड़ी में पैसा झोंक सकते हैं। यानी वहां यह पैसा कुल मिलाकर कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने का काम करेगा। यहां मांग बढ़ने से अर्थव्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। कुछ पैसा बचत योजनाओं में भी डाला जा सकता है। चूंकि लंबी अवधि वाली बचत योजनाओं की तरफ कर्मचारियों का रुझान ज्यादा रहता है, इसलिए ऐसी बचत योजनाओं की मांग बढ़ सकती है। इससे बैंकों के खजाने में ज्यादा धन पहंुचेगा, जो अर्थव्यवस्था को गति देने में कारगर साबित होगा।

बेशक इन सिफारिशों पर मुहर लगने के बाद राज्यों पर भी दबाव बढ़ेगा। वहां भी इस न्यूनतम मानक के आसपास जाने की मांग उठेगी। मगर उन्हें इस दबाव से खुद ही पार पाना होगा। अगर उन्हें अपने कर्मचारियों को प्रोत्साहित करना है, उनसे बेहतर काम लेना है, तो उन्हें यह बोझ उठाना ही होगा। हमें यह समझना चाहिए कि केंद्र सरकार असल में, राज्य सरकार के प्रदर्शनों का परिणाम होती है। देश भर जो भी तमाम संसाधन आते हैं, उन्हें वित्त आयोग केंद्र व राज्यों में बांटता है। इस बंटवारे का एक तय फॉर्मूला है। 13वें वित्त आयोग ने इसमें तब्दीली की थी, जिसके बाद अब पहले से भी ज्यादा पैसे राज्यों को दिए जा रहे हैं। लिहाजा राज्यों के पास फंड की कमी नहीं है। मगर हां, कुछ अन्य संस्थागत गड़बडि़यां हैं, जिनके कारण मुश्किलें आती हैं। जरूरत इन्हें तत्काल दूर करने की है। जो राज्य अपने संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल करेंगे, उनके लिए कैबिनेट का यह फैसला बोझ साबित नहीं होगा।  

वे चाहें, तो कुछ पहलुओं पर गौर कर सकते हैं। मसलन, सेवानिवृत्ति के बाद कर्मचारी को बेवजह सेवा-विस्तार दिया जाना बंद किया जा सकता है। राज्यों को क्षमतावान कर्मचारियों को लेकर खास नीति बननी चाहिए। इसी तरह,  जो कर्मचारी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते, उनके लिए भी नीतियां बननी चाहिए। कर्मचारियों की चाहे छोटी टीम ही क्यों न हो, मगर वह दक्ष हो और तमाम क्षमताओं से लैस हो। बेवजह बड़ी टीम रखने का कोई फायदा नहीं।

एक दूसरी नजर से देखें, तो कर्मचारियों का वेतन बढ़ाने का यह काफी अच्छा समय है। अभी दुनिया के हालात जिस तरह के हैं, उसमें यह बढ़ा वेतन हमारी अर्थव्यवस्था को नई गति दे सकता है। तमाम तरह की मांग बढ़ने से अर्थव्यवस्था की सेहत और दुरुस्त होगी, जिसका सकारात्मक असर ही पड़ेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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