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आपदा नहीं हमारा ही कारनामा

सूखे को आमतौर पर प्राकृतिक आपदा मान लिया जाता है। इसके बाद सरकार और समाज से यह अपेक्षा की जाती है कि वह किसी तरह आपदा प्रबंधन से काम चलाए, बाकी भविष्य की सुध तो खुद प्रकृति ही लेगी। लेकिन सूखे का...

आपदा नहीं हमारा ही कारनामा
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 12 May 2016 09:22 PM
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सूखे को आमतौर पर प्राकृतिक आपदा मान लिया जाता है। इसके बाद सरकार और समाज से यह अपेक्षा की जाती है कि वह किसी तरह आपदा प्रबंधन से काम चलाए, बाकी भविष्य की सुध तो खुद प्रकृति ही लेगी। लेकिन सूखे का बड़ा सच यह है कि अक्सर इसका कारण प्राकृतिक नहीं होता, यह मानव सृजित होता है। यह हमारे तौर-तरीकों और प्रबंधन व जीवन शैली का नतीजा होता है।

हम अपने रोजमर्रा के कार्य-व्यवहार में जब प्रकृति का सम्मान नहीं करते, उसका सिर्फ दोहन करते हैं, और उसे कुछ लौटाते नहीं, तो प्राकृतिक आपदाएं आती हैं। जब विकास का दर्शन सिर्फ उपभोग और दोहन की दृष्टि देता है, तो प्रकृति के साथ परंपरागत जैविक संबंध टूट जाता है और हम प्रकृति के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं।

पारंपरिक जीवन दर्शन में कई खामियां हो सकती हैं, पर यह प्रकृति से रिश्ते और उससे मानवीय संबंध को संतुलित रखता रहा है। इसे हमारी लोक संस्कृति में जगह-जगह देखा जा सकता है। यज्ञ के लिए, बसाहट के लिए वृक्ष काटिए, तो पेड़ लगाइए भी। जलावन के लिए सिर्फ सूखी लकड़ी ही तोडि़ए। कुएं खुदवाने, सामूहिक तालाब बनवाने और उसे जीवित रखने के लोकगीत और मुहावरे भोजपुरी, अवधी, मगही, मैथिली आदि सभी भाषाओं की संस्कृति में भरे पड़े हैं। जल की पूजा, वृक्ष की पूजा, जल स्रोतों- जैसे नदियों की पूजा और सम्मान हमारी संस्कृति का अंग रहा है।

पानी बचाने के लिए बावड़ी, नहर और तालाब बनाने को लेकर हमारी राज्य-व्यवस्था भी सजग हुआ करती थी। जनता की जरूरतों के लिए जल संचय के स्रोत विकसित करने में राज्य की बड़ी भूमिका हुआ करती थी। लेकिन औपनिवेशिक आधुनिकता की उपभोग वाली विचार-दृष्टि ने पानी के प्रति हमारी समझ और संवेदना खत्म कर दी, जिससे हम यह भूल गए कि रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। इसलिए अगर आज सूखे में त्राहि-त्राहि की स्थिति बनती है, फसलें चौपट होती हैं और लोगों को पीने तक का पानी आसानी से नहीं मिल पाता, तो इसकी बड़ी जिम्मेदारी हमारी यानी पूरे समाज की है। इसमें दूसरी बड़ी भूमिका राजसत्ता और उसकी विकास नीतियों की है। ये नीतियां प्रकृति के असंतुलित दोहन की सोच पर टिकी हुई हैं। वहां ध्यान सिर्फ दोहन पर है, संतुलन पर नहीं। राजसत्ता 'स्थानीय समाज' की जरूरतों के अनुसार पानी के संचयन की उनकी लोक प्रणाली की व्यवस्था का निरादर करके उसे छिन्न-भिन्न कर चुकी है। बड़े बांध, बड़ी नहर व्यवस्था से नदियों को हम सूखने के लिए छोड़ देते हैं। इससे समाज के निचले तबकों तक पानी पहुंचना बंद हो जाता है।

यह तो नहीं कहा जा सकता कि अंग्रेजों के आने के पहले भारतीय समाज पानी के मामले में आत्मनिर्भर था, लेकिन पश्चिम से आई विकास दृष्टि के कारण कई चीजें बदल गईं। व्यावसायिक फसलों का आना, खेती को बाजार के उपभोग से जोड़ देना, इन सब कोशिशों ने मिलकर जमीन के भीतर पानी के सहज संग्रह और आवश्यकता के अनुसार उपयोग की परंपरागत प्रणाली को चौपट कर दिया। शायद इसीलिए अंगरेजी राज में बड़े अकाल पड़े।

अंगरेजों ने गन्ने की खेती और गुड़, शक्कर व चीनी बनाने पर जोर दिया। गन्ने की खेती को अन्य फसलों की तुलना में ज्यादा पानी चाहिए। कृषि संस्कृति में इस तरह के अनेक परिवर्तन व्यावसायिक लाभ के लिए किए गए थे, जबकि इसके पहले की व्यवस्था में खेती और किसान के पारंपरिक रिश्ते बाजार की जरूरतों से संचालित न होकर अपनी छोटी-छोटी जरूरतों से संचालित थे। वे ऐसी फसलें थीं, जो पानी कम सोखती थीं। जब फसलों की प्रकृति बदली, तो पानी के हमारे पारंपरिक स्रोत सूखते गए।

राजसत्ता और प्रशासन ने उन्हें पुनर्जीवित करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया। जो किया, उसका बहुत बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। याद कीजिए, बुंदेलखंड के लिए यूपीए सरकार द्वारा जारी किया गया राहत पैकेज, जिसकी घोषणा राहुल गांधी ने की थी और उस समय उसका काफी प्रचार भी हुआ था। उस पैकेज का क्या हुआ? बाकी तमाम योजनाओं की तरह ही उसका ज्यादातर हिस्सा भी नेताओं, प्रशासकों, ठेकेदारों, प्रधानों वगैरह ने हड़प लिया। यह अति प्रचारित पैकेज बुंदेलखंड के लोगों को सूखे से लड़ने की शक्ति देने में विफल रहा।

बुंदेलखंड में पिछले कुछ दिनों से पारंपरिक जलस्रोतों को नया जीवन देने की मांग उठ रही है। पारंपरिक बड़े तालाबों को फिर से बनाने के लिए लोग कहीं पीआईएल डाल रहे हैं, तो कहीं राजनीतिक आंदोलन छेेड़ रहे हैं। राज्य सरकार द्वारा उनके लिए धन भी आवंटित किया जा रहा है। लेकिन आवंटन के साथ ही शहद पर चींटी की तरह नेताओं व अफसरों के चहेते उन्हें चाटने में लग जा रहे हैं। ऐसे में, शायद हमें यह मानने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि आज भी इन पैकेज, आवंटन और बजट का पांच प्रतिशत ही सूखे के खिलाफ लड़ने में इस्तेमाल हो पा रहा है।

यानी जिसे हम सूखा कहते हैं, वह सिर्फ मानव सृजित ही नहीं है, बल्कि वह राजसत्ता और विकास की दशा-दिशा से भी फलता-फूलता है। अभिजात्य, प्रशासन और राजनीतिक वर्गों में 'सूखाग्रस्त' क्षेत्र की आपदा के साथ संवेदनशील जुड़ाव न होकर असंवेदनशीलता का भाव हर जगह देखा जा सकता है। वहां सूखे का शिकार बने लोगों के प्रति हमदर्दी का नहीं, बल्कि हिकारत का भाव होता है।
 
प्रसिद्ध पत्रकार पी साईनाथ ने 1990 के दशक में एक किताब लिखी थी, जिसका नाम है व्हाई एवरीबडी लव्स अ गुड ड्रॉउट।  हिंदी में यह तीसरी फसल  नाम से छपी है। वैसे तो इस किताब में भारत के सबसे गरीब और पिछडे़ जिलों में गरीब, विस्थापित और निराश्रित लोगों के जीवन संघर्ष और कष्टों की कथा है। लेकिन इससे उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा में फैले सूखे के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझा जा सकता है। किताब में लेखक इस नतीजे पर पहुंचता है कि राज्य के विभिन्न ढांचों में प्रभावी अभिजात्य, राजनीतिक वर्ग और प्रशासकीय तंत्र सूखे की दारुण अमानवीय स्थिति को भी एक अवसर मानकर आर्थिक दोहन, भ्रष्टाचार वगैरह के लिए इस्तेमाल करता है। इनमें से कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से यही चाहते हैं कि सूखे की स्थिति बने और उन्हें फायदा हो। जो सीधे से नहीं चाहते कि सूखा आए, वे इन स्थितियों के प्रति असंवेदनशील होते हैं। इसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने वाले मंत्रियों की कहानियों से अच्छी तरह समझा जा सकता है।  
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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