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तात्कालिक मानकर भुला न दें पद्मावती पर हमला

पद्मावती पर फिल्म बना रहे संजय लीला भंसाली पर करणी सेना ने हमला किया कि उनकी जाति की स्त्री का प्रेम विवाह अलाउद्दीन खिलजी से कैसे दिखाया जा रहा है? इन्हें लगा कि महिला उनकी जाति की थी, यह उनकी आस्था...

तात्कालिक मानकर भुला न दें पद्मावती पर हमला
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 20 Mar 2017 12:31 AM
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पद्मावती पर फिल्म बना रहे संजय लीला भंसाली पर करणी सेना ने हमला किया कि उनकी जाति की स्त्री का प्रेम विवाह अलाउद्दीन खिलजी से कैसे दिखाया जा रहा है? इन्हें लगा कि महिला उनकी जाति की थी, यह उनकी आस्था व सम्मान को ठेस पहुंचाती है। पद्मावती का ऐतिहासिक तथ्य नहीं मिलता और मान लिया जाए कि वह काल्पनिक न होकर सत्य भी थी, तब भी करणी सेना ने ही क्यों प्रतिरोध किया? क्या वह राजस्थानी या भारतीय नहीं हो सकती? अगर वह भारतीय होती, तो शायद किसी की भावना को ठेस न पहुंचती। जात-पात और भेदभाव इस देश का सबसे बड़ी आस्था और सम्मान का प्रश्न है, लेकिन कभी महसूस नहीं किया गया, क्योंकि जाति पहाड़ की तरह आकर आगे खड़ी रही है। जायसी के महाकाव्य पद्मावत  में पद्मावती काल्पनिक पात्र है। इसमें पद्मावती सिंघल द्वीप (लंका) की राजकुमारी है। 14वीं शताब्दी में राजस्थान की किसी रियासत से तोते के माध्यम से प्रेम दर्शाया है, जो बताता है कि यह कोरी कल्पना है। 

दरअसल, कलाकारों, इतिहासकारों, लेखकों या सार्वजानिक जीवन में सक्रिय किसी भी इंसान के लिए काम करना मुश्किल हो गया है। टीवी चैनलों के आने के बाद से तो कुछ लोग ऐसे अवसर की तलाश में रहते हैं कि कुछ मिले और वे आस्था और सम्मान का बखेड़ा खड़ा कर जाति की शक्ति को खीचें और प्रसिद्धि बटोरें। करणी सेना के कार्यकर्ताओं को मालूम था कि इससे केवल जाति की सहानुभूति ही नहीं मिलेगी, संगठन का नाम भी चमकेगा। मीडिया ऐसे अराजक कृत्यों का संज्ञान लेना बंद कर दे, तो शायद इन पर स्वत: ही अंकुश लग जाए। 
काश, करणी सेना के बहादुर कार्यकर्ता इतिहास के उस तथ्य को समझ पाते कि हमारी हार के बाद हार क्यों होती रही और इसको आस्था व सम्मान से जोड़ते कि अब हम जातियों के नाम पर बटेंगे नहीं। अतीत में आमने-सामने की लड़ाई में हम हारते थे और इस समस्या का हल न निकला, तो दुनिया में आर्थिक और राजनीतिक ताकत के मामले में पीछे रह जाएंगे यानी पहले भी हम पीछे थे और अब भी। कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर जाति संगठनों ने अपनी ही जाति-बिरादरी के महापुरुषों के मान-सम्मान और प्रचार-प्रसार का ठेका ले रखा है। कोई महापुरुष भले ही किसी जाति और समाज में पैदा हुआ हो, होता तो वह तो पूरे समाज व देश का ही है, लेकिन देखा यह जा रहा है कि पठन-पाठन और भाषणों में तो लगभग सभी मान-सम्मान और विचार के फायदे गिनाते हैं, लेकिन सोच में वे जाति के कठघरे में ही बंद रहते हैं। भीमराव अंबेडकर की जयंती इस देश में सबसे ज्यादा मनाई जाती है, लेकिन क्या अग्रवाल, गोयल, ब्राह्मण, राजपूत भी इसे उसी तरह मनाते दिखते हैं? वैसे, जयंती या व्याख्यान में शामिल होने मात्र से यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी जाति भी उन्हें मानती ही है। 

मान लें हम कि पद्मावती चित्तौड़ रियासत में पैदा हुई थीं और वह सुंदर थीं- उनका अपमान किया जाता है, चाहे फिल्म बनाकर, लिखकर या बोलकर। मानवता और राष्ट्रीयता की बात तो तब होती, जब कोई भी राजस्थानी या भारतीय इसका प्रतिकार करता। जो लोग चर्चा व लेखन में, खासकर चुनाव के दौरान यह कहते हैं कि जाति तो अब बीते दिनों की बात है या अब इसका अस्तित्व नहीं रहा, उन लोगों को यह सच्चाई समझनी चाहिए कि यह समाज जातियों का कहीं ज्यादा है ,भारतीयता और मानवता का कम। अगर ऐसा होता, तो पूरे चित्तौड़ या राजस्थान के लोग इसका प्रतिकार करते, न कि सिर्फ करणी सेना, जो पद्मावती की जाति से जुड़ी है।
 
अगर हम स्वच्छता, जाति या लिंगभेद, गरीबी, शहर और देहात के फर्क को अपनी आस्था या सम्मान से जोड़ते, तो आज दुनिया में बहुत आगे निकल चुके होते। समझना होगा कि करणी सेना एक जाति की सेना है, न कि भारतीयता या मानवता का प्रतिनिधित्व करने वाली सेना। ऐसे में, इन्हें इन प्रश्नों से क्या सरोकार? भंसाली अपने ऊपर हमला करने वालों को जेल भिजवाने में सफल भी हो जाएं, तो उन्हें संतुष्ट नहीं होना चाहिए। वह एक कलाकार हैं और कलाकार को जाति-व्यवस्था के खात्मे के लिए एक मिशन के रूप में काम करते दिखना चाहिए। उनकी अगली फिल्म इसी मुद्दे को समर्पित होनी चाहिए। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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