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ठगवा न हो तो लोकतंत्र का भविष्य खतरे में

मई तो जैसे-तैसे निपट गई। अब तो जून को झेलना है। उसे भी झेल ही लेंगे। गरमी नंगा-अधनंगा ही तो करेगी। जान थोडे़ ले लेगी। मानसून की उम्मीदें सींचते रहने से पसीना कम आता है। टूटा हुआ हथपंखा हवा दे न दे...

ठगवा न हो तो लोकतंत्र का भविष्य खतरे में
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 27 May 2016 08:53 PM
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मई तो जैसे-तैसे निपट गई। अब तो जून को झेलना है। उसे भी झेल ही लेंगे। गरमी नंगा-अधनंगा ही तो करेगी। जान थोडे़ ले लेगी। मानसून की उम्मीदें सींचते रहने से पसीना कम आता है। टूटा हुआ हथपंखा हवा दे न दे दिलासा तो देता ही है। किसे नहीं पता कि अपने प्रधानमंत्री का स्वभाव परदेसी पिया जैसा है। कभी पिया घर लौटे, तो जनता देवी अपना सिंगार करे।

हमारे यहां सारे नेता घोर संस्कारी हैं। दबे स्वर से भारत माता की जय बोलते हैं। दगाबाजी भी नहा-धोकर मुहूरत निकालकर ही करते हैं। आप तो जानते ही हैं कि शपथ ग्रहण समारोह दगाबाजी का ही लोकोत्सव होता है। इन दिनों नक्कारखाने में तूती की आवाज भाड़े पर भी मिल जाती है। आखिर विलाप का भी अपना एक सौंदर्य है। कभी-कभी अट्टहास का मतलब घोर विलाप  भी होता है।

अच्छे दिनों का मुहावरा तो अब पिटा-पिटाया है। वैसे बुरे दिन ऐसे भी बुरे नहीं हैं कि छाती कूटी जाए। हम इन्हीं से काम चलाएं, तो कोई उम्मीद ही नहीं रहेगी। न बांस होगा, और न बांसुरी बजेगी। चांद पर जैसे दाग लगता है, वैसे ही नेताओं पर दगाबाजी का कलंक सुहाता है। राजनीति में तो दागी ही बागी होते हैं। दगाबाज आदमी ही हो सकता है, कुत्ता नहीं। कुत्ता तो वफादार होता है। दगाबाजी अतिरिक्त मान-सम्मान देती है। वह तो ऐसी नगरवधू है, जो अखबार नहीं पढ़ती।

हमारी यूपी में तो राजनीतिक दगाबाजी के कई घराने हैं। जहां सभी दगाबाज एक-दूसरे के दिल में रहते हैं। चुनावी टिकट वितरण के दिनों में कई नामचीन दगाबाज केंचुल बदलकर नए नाग-नागिन हो जाते हैं। जो विधायक या नेता चुनावी मौसम में दगाबाज न हो, वह भरोसे लायक नहीं होता। चोर और डाकू आपस में दगाबाजी नहीं करते। इसके लिए उन्हें राजनीति ज्वॉइन करनी पड़ती है। उनके लिए तो यही मूलमंत्र है कि कोई ऐसा सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं। भाई साहब, अगर ठगवा न हों, तो हमारे लोकतंत्र का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। वह कहते हैं न कि जो किसी को नहीं दिखाई देता, वह अंधों को दिखाई देता है।
उर्मिल कुमार थपलियाल

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