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दिल्ली वसंत वर्णन

अगर आज कालिदास जी दिल्ली में रहते, तो दिल्ली के वसंत का वर्णन कैसे करते? इसे या तो संस्कृत के कवि बता सकते हैं या राधावल्लभ त्रिपाठी बता सकते हैं। हम हिंदी वालों के पास न उपमा का ज्ञान है, न रूपक की...

दिल्ली वसंत वर्णन
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 26 Feb 2017 12:07 AM
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अगर आज कालिदास जी दिल्ली में रहते, तो दिल्ली के वसंत का वर्णन कैसे करते? इसे या तो संस्कृत के कवि बता सकते हैं या राधावल्लभ त्रिपाठी बता सकते हैं। हम हिंदी वालों के पास न उपमा का ज्ञान है, न रूपक की समझ, किस विधि दिल्ली के वसंत का वर्णन करें?

फिर भी मैं, जिसे भगवान ने राशन में पांच-दस ग्राम कवि हृदय दिया है, दिल्ली के वसंत का वर्णन करने जा रहा हूं। मेरे नए ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का एक दृश्य है- शकुंतला अपने फ्रेंड से ‘चैट’ में लीन है। दुर्वासा जी की एंट्री होती है। वह देखते क्या हैं कि एक कन्या अपने आप से ही बोले जा रही है। उनको देखती तक नहीं। नाराज होकर वह तुरंत शाप देते हैं कि जा बालिके! तू जिससे बात किए जा रही है, वह दिल्ली में डीजल कार चलाने वाला होगा। एनजीटी उसकी कार को बंद कर देगी। कार बचाने के चक्कर में वह तुझे भूल जाएगा। 

शकुंतला उनके शाप को नहीं सुन पाती, क्योंकि वह चैट में बिजी है। कैमरा दुर्वासा जी को क्लोज में दिखाने लगता है। शकुंतला का ध्यान उनकी ओर जाता है, तो पाती है कि दुर्वासा अंकल को खांसी का दौरा पड़ा है। वह खांसते-खांसते बेदम हैं। शकुंतला उनको आया देख पहले मोबाइल की डोरी कान से निकालती है, और ‘सॉरी अंकल’ कहती है, फिर बाबा को बोतल का पानी देते हुए कहती है- ये आपको क्या हुआ अंकल? खांस क्यों रहे थे? 

शकुंतला की मृदु अंग्रेजी सुनकर दुर्वासा जी का कठोर हृदय पिघल जाता है और अपना शाप वापस लेते हुए कहने लगते हैं कि हे पुत्री, तेरे पिता से मिलने, मैं अपने स्कूटर से आया और आते-आते दो-चार किलो धुआं पी गया। इस वजह से शाप देने का मूड बना, लेकिन मैं शाप वापस लेता हूं और प्रण करता हूं कि दिल्ली को छोड़कर पुन: जंगलों में चला जाऊंगा! विदुषी शकुंतला उनके वचन सुनकर बोल उठती है- अंकल, अब जंगल कहां हैं कि आप जाएंगे? ऑक्सीजन का एक सिलेंडर संग रखा कीजिए। 

मेरा कवि हृदय यहीं से दिल्ली के इस साहित्यिक सीन में कविवर पद्माकर जी की एंर्ट्री कराना चाहता है और दो कालों की टेक्स्ट को मिक्स करके यहां के वसंत का वर्णन करना चाहता है। दिल्ली में पद्माकर जी कहां रहते? जमुना पार या दक्षिणी दिल्ली में? हाथी पर चलते कि कार से? अकादेमी मिला होता कि नहीं? उसे लौटाया होता कि नहीं? जयपुर लिट-फेस्ट में बोलकर कोई केस इनवाइट किए होते कि नहीं? रिएक्श्नरी कहलाते कि प्रगतिशील? उनके साहित्यिक शत्रु कौन होते और मित्र-आलोचक कौन होते? कोर्स में लगते कि नहीं? और दिल्ली के वसंत को कैसे ‘फील’ करते? 

वसंत कुंज में रहकर एयरपोर्ट जाने वाली गाड़ियों के धुएं को देख उनकी लेखनी छंद लिखने बैठती कि तभी उनको खांसी आती और जब पत्नी आकर पानी देती, तो वह कहते कि हम दिल्ली में क्यों पडे़ हैं? गांव चलें। पत्नी कहतीं कि अकादेमी तो दिल्ली में है, गांव में क्या है? यहां आरओ का पानी तो है, गांव में क्या पिओगे? मैं नहीं जाने वाली, तुम्हीं जाकर मरो। इस प्रात:कालीन प्रदूषित संवाद से विचलित हो पद्माकर जी ये छंद कह उठते हैं:

‘दिल्ली की सड़कन पे, आदमी की धड़कन पे/ जनता जनार्दन पे प्रदूषण चढ़ंत है।/ श्वास प्रश्वासन में, आस विश्वासन में/ मुहल्लन में, पार्कन में धुआं सरसंत है।/ ट्रकन में, कारन में, ऑटो और विक्रम में/ डीजल पेट्रोलन ते कार्बन निकसंत है।/ आईटीओ क्रॉसिंग मेंर्,ंरग रोड पासिंग में/ सरकारन की झांसिंग में, प्रदूषण किलकंत है।’

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