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हिंदी साहित्य के रिव्यूअर का चालीसा

लघु पत्रिकाओं में रिव्यू देख रहा हूं और अपने आप को कोस रहा हूं कि मैं कितना अनपढ़ हूं? कभी-कभी तो अपने अज्ञान पर बुरी तरह खीझ उठता हूं। जिस तत्व को ये रिव्यूअर आसानी से देख लेते हैं, वह चश्मा लगाने के...

हिंदी साहित्य के रिव्यूअर का चालीसा
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 25 Jun 2016 09:29 PM
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लघु पत्रिकाओं में रिव्यू देख रहा हूं और अपने आप को कोस रहा हूं कि मैं कितना अनपढ़ हूं? कभी-कभी तो अपने अज्ञान पर बुरी तरह खीझ उठता हूं। जिस तत्व को ये रिव्यूअर आसानी से देख लेते हैं, वह चश्मा लगाने के बावजूद मुझे क्यों नहीं दिखलाई पड़ता? यहां हर कविता-संकलन या तो नई जमीन तोड़ने वाला बताया जा रहा है, या जनसंघर्ष की जमीन तैयार करने वाला। अगर कोई कुछ तोड़-फोड़ नहीं कर पा रहा, तो वह अपने समय से संवाद करता बताया जा रहा है। जहां इससे भी बात नहीं बनती दिखती, वहां कवि को संकट से जूझता दिखाया जा रहा है।

कई कवि ‘नए’ की तलाश में आकुल बताए जा रहे हैं। इनमें 25 साल का कवि है और 60-61 वाला भी। इधर एक कवि सत्ता को चुनौती देता बताया जा रहा है, तो दूसरा सत्ता पर सवाल उठाता दिख रहा है। एक कवि सत्य के जोखिम उठाता नजर आ रहा है, तो एक वक्त के घाव पर मरहम लगा रहा है। देश में एक से बड़ी एक पार्टियां हैं। एक से एक उत्तम कोटि के नेता हैं। एक से एक ऊंचे दरजे के डॉलर खोजी, समस्या खोजी और संघर्षजीवी एनजीओ हैं। जन-बुद्धिजीवक और जन-विचारक हैं, लेकिन सब मिलकर भी इतनी तरह के कारनामे नहीं कर पाते, जितनी तरह के कारनामे कविता से रिव्यूअर करवा रहे हैं।

सरल सा सूत्र है- कवि है, तो कविता होगी ही। कवि हो और कवित्व न हो, ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए कोई कविता कविता है कि नहीं, इस पर बात क्यों की जाए? कवित्व पर चर्चा क्यों की जाए? क्यों देखा जाए कि कवि के पास कविता है भी कि नहीं? रिव्यूअर जानते हैं कि ‘संशयात्मा विनश्यति’। जो संशय करता है, उसका नाश होता है, इसलिए विश्वास करो कि कवि है तो कविता है, कथाकार है तो उसके पास कहानी है। जिस तरह रिव्यूअर है, तो उसके पास आलोचनात्मक दृष्टि अपने आप है।

मुझे जब से ‘रिव्यू रहस्य’ का बोध हुआ है, अपने को धिक्कारना छोड़ मैं रिव्यूअर्स की आलोचना पर किसी नायिका की तरह मुग्ध होने लगा हूं। अब न गीता का भरोसा है, न भागवत कथा का, न कबीर का, न तुलसी का, न मुक्तिबोध का। न मुझे बाबा रामदेव में यकीन है, न ‘योगा-डे’ में। ये सब मिलकर भी वह नहीं कर सकते, जो हमारे कवि व उनकी कविताएं रिव्यूअरों के सौजन्य से करती नजर आती हैं।

कवि के बारे में अब तक यही उक्ति प्रसिद्ध है कि जहां न पहुंचे रवि, तहां पहुंचे कवि।  यह अब ‘आउट ऑफ डेट’ लगती है। यह कवि को जासूस या फिर चोर की तरह दिखाती है, जो आपत्तिजनक है। आज के कवि के लिए यह ‘उक्ति’ चाहिए कि ‘जहां न पहुंचे कविवर, तहां पहुंचे रिव्यूअर’। आज के रिव्यूअर के आगे सर्वांतीज का नायक ‘डॉन किहोते’ तक व्यर्थ है। स्पेनिश भाषा के कथाकार सर्वांतीज के पास तो एक ही डॉन किहोते था, जिसके बल पर वह विश्व साहित्य का बड़ा साहित्यकार बना। इतना बड़ा कि उसके अनुवाद अब तक हिंदी में होते रहते हैं, तब भी अनुवादकों का पेट नहीं भरता। हिंदी का रिव्यूअर डॉन कि होते है। उस डॉन किहोते को ‘पवन चक्की’ के पंखे राक्षसों की तरह लगे थे, जिनसे जूझने के लिए वह नकली तलवार भांजता निकल पड़ा था। लेकिन अपने रिव्यूअर तो बिना किसी ‘पवन चक्की’ के हर कविता में ‘संकट’ और ‘संघर्ष’ खोज लेते हैं, और ऐसा सीन खड़ा कर देते हैं- जैसे कवि, कवि न हो, कोई डॉन किहोते हो, जो अपनी तलवार भांजता हुआ युद्ध करने निकल पड़ा हो। इसीलिए मैं रिव्यूअरों की वंदना में ‘रिव्यूअर चालीसा’ लिख रहा हूं...।

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