मनाना और समझाना
रात को घर लौटते हुए कुछ परेशान से थे। टीम उनकी बात को ठीक से ले नहीं पाई। वह जबर्दस्ती भी कर सकते थे। लेकिन उम्मीद थी कि वह टीम को समझा लेंगे। 'अपनी बात को थोपना नहीं चाहिए। उसे मनवाने...
रात को घर लौटते हुए कुछ परेशान से थे। टीम उनकी बात को ठीक से ले नहीं पाई। वह जबर्दस्ती भी कर सकते थे। लेकिन उम्मीद थी कि वह टीम को समझा लेंगे।
'अपनी बात को थोपना नहीं चाहिए। उसे मनवाने के लिए मनाने और समझाने से बेहतर कुछ नहीं है।' यह मानना है रॉबर्ट सियाल्दीनी का। वह मशहूर साइकोलॉजिस्ट और स्पीकर हैं। एरिजोना यूनिवर्सिटी में साइकोलॉजी और मार्केटिंग के एमिरेट्स प्रोफेसर हैं। उनकी एक बेहद चर्चित किताब है इन्फ्लुएन्स: द साइकोलॉजी ऑफ परसुएशन।
कभी-कभी हम उस जगह पर होते हैं, जब टीम को हमारी बात माननी ही होती है। हम जब जबर्दस्ती करते हैं, तो टीम मान भी जाती है। लेकिन उससे बात बनती नहीं। टीम तब काम करती जरूर है। पर मन से नहीं करती। आधे-अधूरे मन से मजबूरी समझकर वह काम होता है। और ठीक यहीं से सब कुछ बदल जाता है। एक बात तय है कि जब भी मजबूरी में कोई काम होगा, वह बेहतरीन नहीं हो सकता। बस काम हो जाएगा। यह माहौल किसी भी नएपन के लिए जमीन तैयार नहीं करता। एक ढर्रे से आगे उसके जाने की कोई उम्मीद नहीं होती। इसके उलट जब हम टीम को समझा-मनाकर आगे बढ़ते हैं, तो चीजें बदल जाती हैं।
अगर हम अपने फैसले को थोपते हैं, तो टीम में भरोसे का माहौल टृूटता है। हम जब उन्हें समझाते-बुझाते हैं, तो वह भरोसा बना रहता है। एक काम जो पूरे भरोसे के साथ होता है। एक काम बिना भरोसे के होता है। उनके फर्क को आसानी से महसूस किया जा सकता है। हम जब पूरी टीम को भरोसे में न लेकर कुछ करते हैं, तो वे सिर्फ 'इन्स्ट्रक्शन' को देख रहे होते हैं। भरोसे में लेकर जब कुछ होता है, तो वे अपने को झोंक देते हैं। टीम हो या शख्स किसी का सौ फीसदी हम बिना भरोसे के नहीं ले सकते।
राजीव कटारा