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अपनी विसंगतियों से जूझता बांग्लादेश 

बांग्लादेश इन दिनों सुलग रहा है। अल्पसंख्यकों, यानी हिंदुओं व ईसाइयों पर वहां लगातार हमले हो रहे हैं। उदार माने जाने वाले लोग मारे जा रहे हैं। सत्ताधारी पार्टी अवामी लीग और मुख्य विपक्षी पार्टी...

अपनी विसंगतियों से जूझता बांग्लादेश 
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 19 Jun 2016 10:58 PM
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बांग्लादेश इन दिनों सुलग रहा है। अल्पसंख्यकों, यानी हिंदुओं व ईसाइयों पर वहां लगातार हमले हो रहे हैं। उदार माने जाने वाले लोग मारे जा रहे हैं। सत्ताधारी पार्टी अवामी लीग और मुख्य विपक्षी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी)  के बीच सियासी घमासान जारी है। समाज में तेजी से ध्रुवीकरण हो रहा है। आखिर महज साढे़ चार दशक पहले आजाद हुए इस मुल्क में हालात इतने बदतर क्यों हो गए? इससे उबरने के क्या उपाय हैं? इन सवालों की पड़ताल के लिए इतिहास को खंगालने की जरूरत है।
दरअसल, बांग्लादेश बंगाली राष्ट्रवाद के नाम पर वजूद में आया है। साल 1971 के मुक्ति आंदोलन का मूल आधार ही बंगाली राष्ट्रवाद था और बांग्लादेशियों ने इस्लामी राष्ट्रवाद को नकारा था। वही इस्लामी राष्ट्रवाद, जिसका उदय 1947 में पाकिस्तान के गठन  के साथ हुआ था, और उस क्रम में बाद में मोहम्मद अली जिन्ना ने उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित किया और अरबी लिपि लागू करने की बात कही। लेकिन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में बसने वाले बंगालियों को इस पर ऐतराज था। उन्हें अपनी संस्कृति व भाषा खतरे में दिखी। उनका डर यह भी था कि उर्दू को राष्ट्रभाषा केरूप में कबूल करने से कहीं उनका आर्थिक आधार कमजोर न हो जाए। इसलिए बांग्ला को उर्दू के बराबर दर्जा देने की मांग शुरू हुई। 21 फरवरी, 1952 को ढाका यूनिवर्सिटी के छात्रों का आंदोलन इसी मांग को लेकर हुआ था, जिसे रोक पाने में विफल रहने पर प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई गई थीं। इसमें कई सारे छात्र मारे गए थे।

यह संघर्ष वर्ष 1971 तक चला। बांग्लाभाषी भाषायी राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, समाजवाद, आर्थिक क्षेत्र में समान अधिकार और प्रशासनिक क्षेत्र में समान भागीदारी की मांग को लेकर लगातार मुखर रहे। मगर एक छोटा वर्ग इस्लामी राष्ट्रवाद के समर्थकों का भी था। नतीजतन, जब 1971 में बांग्लादेश के रूप में नए राष्ट्र का उदय हुआ, तब वहां का समाज दो भागों में स्पष्ट तौर पर बंटा हुआ था। बड़ा हिस्सा मुक्ति संग्राम के समर्थकों का था, जबकि शेष पाकिस्तान समर्थक थे। जमात-ए-इस्लामी और उसके विभिन्न अंग इसी दूसरे खेमे के लोग माने जाते हैं। इन गुटों को वहां के ‘संभ्रांत’ उर्दूभाषी वर्ग का समर्थन तो मिला ही, 1947 में बिहार व उत्तर प्रदेश से पूर्वी पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों का भी साथ मिला।

बांग्लादेश का संविधान 1972 में बना। यह मुख्यत: चार स्तंभों पर आधारित था- लोकतंत्र, समाजवाद, पंथनिरपेक्ष और बंगाली राष्ट्रवाद। शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व वाली पार्टी अवामी लीग इस संविधान के निर्माण की अगुवा थी। मगर बाद के दिनों में बांग्लादेश के वजूद को मान्यता दिलाने और आर्थिक मुश्किलों को देखते हुए वह भी कुछ समझौते करने को मजबूर हुए। हालांकि इससे वहां की स्थिति बहुत सुधरी नहीं। मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद वहां का नेतृत्व सेना के हाथों में चला गया। उसने बांग्लादेश के संस्थागत ढांचे में बुनियादी बदलाव किए। संविधान में संशोधन करते हुए ‘बंगाली राष्ट्रवाद’ शब्द को बदलकर बांग्लादेशी राष्ट्रवाद कर दिया गया। यानी जिस भाषायी व सांस्कृतिक अवधारणा से बंगाली राष्ट्रवाद जुड़ा था, उसे बदलकर बांग्लादेशी राष्ट्रवाद यानी इस्लामी राष्ट्रवाद (इसका मूल इस्लाम था) कर दिया गया। इसी तरह, समाजवादी व्यवस्था भी पूंजीवादी व्यवस्था में बदल गई, जबकि पंथनिरपेक्ष शब्द ‘अल्माइटी अल्लाह’ (अल्लाह सर्वोपरि) हो गया। बाद के दिनों में इस्लाम को राजधर्म बना दिया गया।

1990 के दशक में बांग्लादेश में लोकतंत्र का दौर लौटता हुआ दिखा। मगर आज भी वहां का समाज या राजनीति दो गुटों में साफ-साफ बंटी हुई है। एक धड़ा 1971 की भावनाओं में विश्वास रखता है, और वह बंगाली राष्ट्रवाद, समाजवाद व पंथनिरपेक्षता को तवज्जो देता है, जबकि दूसरा गुट 1947 की भावनाओं, यानी इस्लामी राष्ट्रवाद से प्रेरित है। पहले गुट का नेतृत्व जहां अवामी लीग और वाम दलों के हाथों में है, तो दूसरा गुट बीएनपी के साथ है, जिसे जमाते-इस्लामी जैसी मजहबी पार्टियां समर्थन देती हैं। चूंकि ये दोनों पार्टियां अमूमन बारी-बारी से सत्ता में आती रही हैं, इसलिए बीएनपी के कार्यकाल में कट्टरपंथी ताकतें हावी हो जाती हैं।

हालांकि आज सत्ता में अवामी लीग है, पर कट्टरपंथी ताकतें बीएनपी के शासन वाले तेवर में हैं। इसका एक बड़ा कारण 2008 का आम चुनाव है। उसमें अवामी लीग को भारी जनादेश मिला था। चुनाव में उसने वादा किया था कि वह 1971 की भावना को लागू करेगी, और मुक्ति आंदोलन के दोषियों को सजा दिलाएगी। मगर 2012 में जैसे ही जमात नेता को फांसी दी गई, वहां सामाजिक ध्रुवीकरण तेज हो गया। उंगली 15वें संविधान संशोधन पर भी उठती है। 2013 में हुए इस संशोधन की दो बड़े पहलू हैं। पहला, 2010 के अदालती आदेश का पालन करते हुए सरकार ने बेशक संविधान में पंथ-निरपेक्ष शब्द फिर से जोड़ा, मगर उसने ‘बांग्लादेशी’ नागरिकता को कायम रखा। और दूसरा, उसने इस्लाम को राजधर्म बनाए रखा। ऐसा राजनीतिक फायदे के लिहाज से किया गया। हालांकि सरकार इसे अपना यथार्थवादी नजरिया बताती है। पिछले साल बीएनपी को आंदोलन करने से रोकना उत्प्रेरक बना, और मुल्क में राजनीतिक हिंसा शुरू हो गई।

आज स्थिति यह है कि उदार ब्लॉगरों व  अल्पसंख्यक हिंदुओं व ईसाइयों की लगातार हत्या हो रही है। सरकार का मानना है कि ये हत्याएं स्थानीय कट्टरपंथी या फिर बीएनपी समर्थित लोग कर रहे हैं, जिसे रोकने के लिए वह हरसंभव कदम उठा रही है। हजारों लोगों को गिरफ्तार भी किया गया है। हालांकि जमात जैसे संगठन इस धारणा से इत्तफाक नहीं रखते। उनका तर्क है कि यह कानून-व्यवस्था का मसला है और सरकार सत्ता के दंभ में अपने विरोधियों का दमन कर रही है। सियासी फायदे के लिए हत्याएं करवाने का आरोप भी वे सरकार पर लगा रहे हैं। आईएस भी एक पहलू है, जो इन हत्याओं की जिम्मेदारी खुद ले रहा है, मगर सच यही है कि वह बस मोहरा है। उसका वहां कोई आधार नहीं है। हत्याओं में उसका कोई हाथ नहीं। इन हत्याओं में कट्टरपंथी तत्वों का हाथ है, तो कुछ कत्ल सियासी फायदे के लिए भी कराए जा रहे हैं। जनता में तेजी से ध्रुवीकरण हो रहा है, जिसका फायदा दोनों खेमा उठा रहा है।

इस लिहाज से देखें, तो मौजूदा अराजकता की वजह कट्टरपंंथी जमातों के साथ-साथ सरकार भी है, जो सियासी रोटियां सेंक रही है। इसमें वहां की जनता पिस रही है। उसे रोटी चाहिए।  काम चाहिए। वह विकास की पक्षधर है। अच्छा यही होगा कि अवाम के हितों को देखते हुए सभी पक्ष व पार्टियां लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अनिवार्य रूप से भाग लें। बांग्लादेश की अस्थिरता दक्षिण एशिया की राजनीति को प्रभावित कर सकती है। लिहाजा संभव हो, तो संयुक्त राष्ट्र या भारत जैसे साथी देश बांग्लादेश पर दबाव बनाएं कि वहां लोकतंत्र को मजबूत किया जाए, ताकि कट्टरपंथी ताकतों को कमजोर किया जा सके।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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