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मेरे घर से ये झोला निकला

पता नहीं, किस घड़ी साहित्य में एंट्री ली कि इनाम कम, झोले ज्यादा नसीब हुए। लेकिन, मुझे गर्व है कि मेरे साहित्यिक करियर ने मुझे 17 झोले दिए। मैंने भी इनको उपलब्धियों की तरह टांग रखा है, ताकि जब कभी कोई...

मेरे घर से ये झोला निकला
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 30 Apr 2016 09:21 PM
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पता नहीं, किस घड़ी साहित्य में एंट्री ली कि इनाम कम, झोले ज्यादा नसीब हुए। लेकिन, मुझे गर्व है कि मेरे साहित्यिक करियर ने मुझे 17 झोले दिए। मैंने भी इनको उपलब्धियों की तरह टांग रखा है, ताकि जब कभी कोई आए, तो मेरी साहित्यगीरी के दर्शन करके धन्य हो जाए। मुझे नया झोला मिलता है, तो मैं उसे एक सीजन कंधे पर जरूर रखता हूं, ताकि वह साहित्य से अपने ‘जेनेटिक’ संबंधों को समझ ले। उसी में साहित्य रखता हूं और उसी में दूध-सब्जी भी लाता हूं। उसी में बिजली का बिल, पानी का बिल और ‘पे’ करने की ‘चैक बुक’ भी रखता हूं। जब कभी बैंक से 10-20 हजार निकालता हूं, तो वे भी इसी झोले के हवाले होते हैं। ऐसा मल्टी-परपज होता है साहित्यिक झोला। यथा सेमिनार, तथा झोला। यथा झोला, तथा लेखक। यथा लेखक, तथा झोला। हिंदी ज्यों-ज्यों ‘नेशनल’ से ‘इंटरनेशनल’ हुई है, ज्यों-ज्यों वह ‘उत्सवी’ से ‘महोत्सवी’ हुई है, त्यों-त्यों  झोले का ब्रांड बदलता गया। मैं सेमिनार के ब्रांड को झोले के ब्रांड से तय करता हूं और साहित्य के ब्रांड को झोले के ब्रांड से।

झोला न जाति भेद मानता है, और न धर्म भेद। न लिंग भेद मानता है, न बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक भेद। न उम्र भेद मानता है, न कद का भेद। जब तक आपका झोला है, आपका साहित्य है। झोला गया, तो साहित्य गया। जब किसी साहित्यकार का झोला इधर-उधर हो जाता है, उस घड़ी आप उस साहित्यकार की विकलता देखकर समझ पाते हैं कि झोला नहीं खोया, झोले के साथ वह स्वयं भी खो गया है। यह झोला ही तो उसका सर्वस्व था। और, वह जान से प्यारा लवली लिफाफा भी उसी में था। वही तो असली उपलिब्ध था। हाय, वे पांच-पांच सौ के पांच करारे नोटों से युक्त सप्रेम भेंट कहता हुआ लिफाफा, जिसके मुंह को जरा-सा खोलकर लेखक ने चोर नजर से सिर्फ एक बार निहारा भर था। जिसका झोला खोया हो, वही उसके खोने की पीड़ा जानता है। अगर हिंदी के लेखक खोए-खोए दिखा करते हैं, तो इसीलिए कि उन सबके झोले कभी-न-कभी खोए होते हैं।

झोला जिसके कंधे पर लटकता है, उसे वह लेखक बना देता है। आप चाहे गधे हों, झोला मिलते ही आप टॉप के इंटेलेक्चुअल दिखने लगते हैं। झोला आपको भीड़ से अलग करता है। इसके लटकते ही आप किसी नामी  इंटेलेक्चुअल से कम नहीं नजर आते। देखते-देखते ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ हो जाते हैं। अगर किसी के लेफ्ट कंधे पर झोला लटका है, तो समझिए कि लेखक लेफ्टिस्ट है। अगर किसी के राइट कंधे पर लटका है, तो समझिए कि वह राइटिस्ट है। जो उसे हाथ में लटकाए फिरे और कंधे पर आने ही न दे, उसे आप पक्का ‘अपॉच्र्यूनिस्ट’ यानी शालीन भाषा में ‘फ्री थिंकर’,‘आजाद ख्याल’ कहिए। अगर कोई कभी बाएं से दाएं, फिर दाएं से बाएं और फिर बाएं से दाएं करने में बिजी है, तो आप उसे आचार्यश्री का पट्टशिष्य समझिए। झोला कॉटन का है, तो समझिए कलात्मक है और खादी का है, तो समझिए साहित्य में बिसरा दिए गए गांधीजी का आशीर्वाद है। सवाल यह नहीं है कि ‘साहित्य का समाज से क्या संबंध है?’ असल सवाल यह है कि साहित्य का झोले से क्या संबंध है? झोला साहित्य की आत्मा है और शरीर भी। यह उसका फॉर्म भी है।  
मैं गालिब जी की ही तरह बखानूंगा- 
‘चंद वो फ्री की किताबें और चंद इनविटेशन
बाद मरने के मिरे, घर से ये झोला निकला।’

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