काश! हमें ऐसे और शांतिदूत मिलते
अफगानिस्तान के जलालाबाद शहर को आप कैसे जानते हैं? जाहिर है, आतंक के गढ़ के तौर पर। जहां आए दिन कोई-न-कोई आतंकी घटना होती रहती है। पर इसी जमीन में शांति का एक बेचैन मसीहा दफन है। खान अब्दुल गफ्फार खान...
अफगानिस्तान के जलालाबाद शहर को आप कैसे जानते हैं? जाहिर है, आतंक के गढ़ के तौर पर। जहां आए दिन कोई-न-कोई आतंकी घटना होती रहती है। पर इसी जमीन में शांति का एक बेचैन मसीहा दफन है। खान अब्दुल गफ्फार खान की कब्र इसी शहर में है। फर्ज कीजिए, जिन्ना ने देश को तोड़ने में अपनी सारी प्रतिभा न लगाई होती और भारत का बंटवारा न हुआ होता, तो क्या होता? खान अब्दुल गफ्फार खान के लाल कुर्ती वाले खुदाई खिदमतगार देश में घूम-घूमकर शांति व सद्भावना का संदेश दे रहे होते। सशस्त्र संघर्ष में यकीन करने वाली लड़ाकू जनजातियों को अहिंसक सत्याग्रही बनाने का जादू काम कर गया होता, तो दुनिया की तस्वीर आज कुछ और ही होती।
बहरहाल, इतिहास हमारी मर्जी से नहीं बनता-बिगड़ता। बादशाह खान को उनकी बरसी पर याद करते हुए यह कसक रह ही जाती है। 1890 में पेशावर के पास उत्मजई गांव के एक संपन्न पठान परिवार में पैदा हुए बादशाह खान ऊंचे डील-डौल के मजबूत आदमी थे। इतने मजबूत कि एक बार अंगरेज सरकार ने उनको पहनाने के लिए खास फौलादी बेडि़यां बनवाई थीं। लेकिन वह भीतर से और भी फौलाद निकले। एक तरफ, अंगरेजी राज के जुल्म को सहते और दूसरी तरफ मुस्लिम लीग की दुश्मनी को निबाहते बादशाह खान ने अहिंसा को अपनी सबसे मजबूत ढाल बना लिया। उन्होंने अपनी जिंदगी के तमाम साल न सिर्फ अंगरेजी जेलों में बिताए, बल्कि आजाद पाकिस्तान की सरकार ने भी उनसे दुश्मनों-सा बर्ताव किया, क्योंकि बादशाह खान बंटवारे की मांग के सामने सीना ताने खड़े थे। मुस्लिम सांप्रदायिक उनसे इस हद तक घृणा करते थे कि 1946 में उन्हें मारने की कोशिश की गई।
एक बार बादशाह खान ने गांधीजी से पूछा कि गरम खून के पठान अहिंसा का पालन किस हद तक कर पाएंगे? गांधीजी बोले,अहिंसा कायरों का हथियार नहीं है। पठान एक बहादुर कौम हैं, इसलिए वे अहिंसा का दृढ़ता से पालन कर सकते हैं। वाकई यही हुआ। शायद ही गांधीजी के किसी दूसरे सिपहसालार ने अहिंसा का पालन करने में उतनी कुशलता हासिल की, जितनी बादशाह खान व उनके लाल कुर्ती वालों ने की थी। बादशाह खान ने अहिंसा को धार्मिक पठानों की आस्था का हिस्सा बना दिया। इस पर भी मुस्लिम लीग ने खूब हल्ला मचाया । आज जब हम पूरी दुनिया में इस्लाम की तरह-तरह की कट्टरपंथी व्याख्या के बीच खड़े हैं, तब बादशाह खान व इस्लाम की उनकी समझ हमारे लिए दीपक की तरह हैं। मरते दम तक वह शांति दूत बने रहे। वर्ष 1988 में उनकी मृत्यु के वक्त अफगानिस्तान में गृह युद्ध चल रहा था। सोवियत समर्थित नजीबुल्लाह के विरुद्ध अमेरिका समर्थित मुजाहिदीन संघर्ष चरम पर था। मगर दो लाख लोगों का कारवां जब बादशाह खान के जनाजे के साथ पेशावर से जलालाबाद की ओर बढ़ा, तो उनके सम्मान में युद्ध रोक दिया गया था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)