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मुल्ला मंसूर के बाद की आशंकाएं

'उनका विचार है कि समय उनके साथ है', पिछले महीने ही प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के सलाहकार सरताज अजीज ने एक पत्रकार से तालिबान के बारे में यह कहा था। पर तालिबान का यह विचार पूरी तरह से गलत साबित...

मुल्ला मंसूर के बाद की आशंकाएं
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 24 May 2016 10:24 PM
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'उनका विचार है कि समय उनके साथ है', पिछले महीने ही प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के सलाहकार सरताज अजीज ने एक पत्रकार से तालिबान के बारे में यह कहा था। पर तालिबान का यह विचार पूरी तरह से गलत साबित हुआ। 21 मई को ईरान-पाकिस्तान सीमा पर स्थित कोचकी कस्बे में जिस ड्रोन हमले में अफगान तालिबान का अमीर मुल्ला मंसूर मारा गया, वह कई अर्थों में विशिष्ट था। तालिबान को निर्णायक क्षति पहुंचाने के अलावा यह बलूचिस्तान में होने वाला पहला ड्रोन हमला था। इसके पहले के सारे हमले कबाइली इलाकों में हुए थे और पाकिस्तान जाहिर तौर पर अमेरिका से विरोध जरूर दर्ज कराता था, मगर दुनिया जानती थी कि यह औपचारिकता मात्र है।  

बलूचिस्तान में मुल्ला मंसूर की उपस्थिति पाकिस्तान के उन दावों की धज्जियां उड़ाती है, जिनमें वह तालिबान की पाकिस्तान में उपस्थिति नकारता रहा है। हमले के समय वह कार में था, इससे यह भी साबित हो गया कि तालिबान नेतृत्व दुर्गम पहाडि़यों में छिपकर नहीं रहता, बल्कि शहरी इलाकों में उन्हें पनाह मिलती है। उसके पास से वली मोहम्मद नाम का एक पाकिस्तानी पासपोर्ट भी मिला है, जिसमें उसका कराची का पता दर्ज है। पाकिस्तानी अधिकारियों की जानकारी और मदद से ही यह संभव था। खुद पाकिस्तानी अखबारों के दावों के अनुसार, मुल्ला मंसूर दो पासपोर्टों पर अक्सर उड़ता रहा और पिछले       

कुछ वर्षों में उसने दुबई की एक दर्जन से अधिक यात्राएं की थीं। इस बार भी वह ईरान से इसी शिनाख्त पर लौट रहा था। उसके साथ मारा गया शख्स भी पाकिस्तानी नागरिक था।

सरताज अजीज ने हाल ही में वाशिंगटन में कहा था कि तालिबान पर पाकिस्तान का बहुत सीमित प्रभाव है। वे इलाज या अपने परिवारों को रखने जैसे काम के लिए ही पाकिस्तानी जमीन का उपयोग करते हैं। इसके विपरीत अफगानिस्तान लगातार आरोप लगाता रहा है कि तालिबान न सिर्फ पाकिस्तान में शरण लिए हुए हैं, बल्कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ही उनकी माई-बाप है। पाकिस्तान में अमेरिकी राजदूत के एक खुफिया केबल में कहा गया है कि बलूचिस्तान में घुसकर मुल्ला मंसूर को मारने से वे पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ भी चिंतित हैं, जो मन ही मन इन आतंकियों से नफरत करते हैं। दरअसल, अभी तक सिर्फ ओसामा बिन लादेन के मामले में ही ऐसा हुआ था कि वजीरिस्तान के कबाइली इलाकों के बाहर पाकिस्तान में घुसकर अमेरिका ने छापामार हमला किया था। कराची के इतने करीब अमेरिकी  हमले से इन राजनीतिज्ञों के मन में भय और चिंता का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है।

मुल्ला मंसूर लंबे समय तक पूर्व तालिबानी अमीर मुल्ला उमर का निकटतम विश्वासपात्र था और भारत व अमेरिका विरोधी अडि़यल रवैये के कारण आईएसआई का चहेता था। काबुल की तालिबान सरकार (1996-2001) में वह महत्वपूर्ण पदों पर भी रहा था। भारत के लोगों को कंधार हवाई अड्डे की वे तस्वीरें याद होंगी, जिनमें वह भारतीय अधिकारियों से अपहृत एयर इंडिया के विमान यात्रियों को छोड़ने के बदले हमारी जेलों में बंद आतंकियों को छुड़ाने के लिए बातचीत कर रहा था।

मुल्ला उमर से उसकी निकटता का अंदाज इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि उमर की मृत्यु के बारे में वर्षों तक आईएसआई के अलावा जिन चंद लोगों को पता था, उनमें एक मंसूर भी था। यहां तक कि परिवार वाले भी नहीं जानते थे कि उनके पास आने वाली ईद की मुबारकबाद या तालिबान लड़ाकों के लिए जारी होने हुक्म मुल्ला उमर के नाम पर दरअसल मंसूर जारी करता है।

मुल्ला मंसूर के मरने पर हमें किसी फौरी राहत की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इस मौत का एक नतीजा तो यह होगा कि अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच पिछले कुछ दिनों से टलती आ रही बातचीत और टल जाएगी। इस बात की भी पूरी आशंका है कि अफगान तालिबान का अगला नेतृत्व आईएसआई सिराजुद्दीन हक्कानी के हाथों में सौंप दे। कुख्यात हक्कानी नेटवर्क का प्रतिनिधि सिराजुद्दीन, मंसूर से भी अधिक कट्टर माना जाता है। उसका पिता जलालुद्दीन हक्कानी सोवियत रूस के विरुद्ध अमेरिका पोषित जेहाद का एक महत्वपूर्ण पात्र और एक दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन का सबसे विश्वासपात्र था। विडंबना है कि अमेरिका द्वारा निर्मित यह भस्मासुर हक्कानी नेटवर्क काबुल और उसके आस-पास अमेरिकी व भारतीय हितों पर किए जाने वाले सबसे खूंखार हमलों का जनक है।

अमेरिका पिछले कई वर्षों से इसके खिलाफ कार्रवाई की मांग करता रहा है। उसने पाकिस्तान को मिलने वाली सैनिक-असैनिक सहायता के लिए कई बार हक्कानी नेटवर्क पर शिकंजा कसने की शर्त भी लगाई, यह अलग बात है कि पाकिस्तानी राजनीति में अहम भूमिका निभाने वाली आईएसआईकभी इसके लिए तैयार नहीं होगी, क्योंकि उसे हमेशा से यही लगता है कि हक्कानी नेटवर्क जैसे संगठन काबुल में भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक सरकार बनाने और फिर उसे बनाए रखने के लिए आवश्यक होंगे। हाल ही में पाकिस्तान और अमेरिका के संबंधों में खटास पैदा करने वाला एफ-16 विमानों का सौदा इसका बड़ा उदाहरण है। अमेरिकी सीनेट ने इस शर्त के साथ पाकिस्तान को विमान खरीदने के लिए आर्थिक मदद देने की पेशकश की है कि वह हक्कानी नेटवर्क पर लगाम कसेगा। स्वाभाविक है कि इस मांग को मानने की जगह फौजी नेतृत्व ने सरकार को एफ-16 विमान हासिल करने के लिए तुर्की समेत दूसरे विकल्प तलाशने को कहा है।

पनामा पेपर्स के मामले में अपनी संतानों के कारण बुरी तरह उलझ चुके प्रधानमंत्री नवाज शरीफ चाहते हुए भी सेना के निर्देशों का उल्लंघन नहीं कर सकते। जल्द ही मुल्ला मंसूर का उत्तराधिकारी घोषित हो जाएगा और हमें अफगानिस्तान में अधिक हिंसक वारदात के लिए तैयार रहना चाहिए। यह इसलिए भी अपेक्षित है कि नए नेतृत्व के समक्ष तालिबान काडरों के सामने स्वयं को साबित करने की चुनौती होगी।

चाबहार बंदरगाह को लेकर भारत, अफगानिस्तान और ईरान के बीच जिस तरह की समझ विकसित हो रही है, उससे भी पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठानों में बेचैनी है। वे लगातार कोशिश करेंगे कि नई दिल्ली और काबुल के बीच रिश्ते दोस्ताना न बनें और इसके लिए उन्हें स्वाभाविक रूप से तालिबान याद आएंगे। यह अलग बात है कि तालिबान जितने हमलावर होंगे, वर्तमान अफगानी सत्ता प्रतिष्ठान का रवैया उनके विरोध में उतना ही कठोर होता जाएगा।

भारत के लिए यह 'देखो और इंतजार करो' का समय है। हमें सावधानी से अफगानिस्तान में आईएसआई की अगली चाल का इंतजार करना चाहिए। यह हमारे हित में है कि न सिर्फ विश्व जनमत तालिबानी हिंसा के खिलाफ है, बल्कि खुद पाकिस्तानी नागरिक समुदाय अपने अखबारों में मुल्ला मंसूर की मौत पर खुशी जाहिर कर रहा है। कम से कम पाकिस्तान के सबसे प्रतिष्ठित अखबार डॉन  में छपी पाठकों की प्रतिक्रियाएं तो यही बताती हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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