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एक युद्ध जो हम सदियों से लगातार हार रहे हैं

इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता की गणना दुनिया की सबसे घनी आबादी वाले प्रदूषित शहरों में की जाती है। वहां आजकल इतने अधिक चूहे हो गए हैं कि चूहा उन्मूलन अभियान शुरू किया गया है। इसके तहत जीवित चूहा...

एक युद्ध जो हम सदियों से लगातार हार रहे हैं
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता की गणना दुनिया की सबसे घनी आबादी वाले प्रदूषित शहरों में की जाती है। वहां आजकल इतने अधिक चूहे हो गए हैं कि चूहा उन्मूलन अभियान शुरू किया गया है। इसके तहत जीवित चूहा पकड़कर लाने वाले व्यक्ति को हर चूहे के लिए पुरस्कार दिया जा रहा है। यह फैसला इसलिए लेना पड़ा कि हाल के दिनों में चूहों की वजह से वहां कई प्राणघातक रोग फैलने लगे थे। हाल में वहां आई बाढ़ से यह समस्या और भी गंभीर हो गई है। चूहों की अधिकता से जितने भी तरह की परेशानियां हो सकती हैं, आजकल जकार्ता के लोग उन सभी से जूझ रहे हैं। इसके चलते चूहों को पकड़ने, उन्हें फंसाने और मारने के यंत्रों का कारोबार भी तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा में है, चूहा लाओ और ईनाम ले जाओ का अभियान।

यह कहा जाने लगा है कि इस अभियान का उलटा असर हो रहा है। इस उलटे असर को ‘कोबरा इफेक्ट’ कहा जाता है। यह जुमला जर्मन अर्थशास्त्री होस्र्ट सीबर्ट की एक पुस्तक से निकला है, जिसका नाम ही था कोबरा इफेक्ट।  पुस्तक में जिस कोबरा इफेक्ट की बात की गई है, वह भारत से ही जुड़ा है। इस पुस्तक के अनुसार, ब्रिटिश शासन काल में दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में बहुत सारे सांप हो गए थे। सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए जीवित सांप पकड़कर लाने वालों को अच्छा पुरस्कार देने की घोषणा की थी। नतीजा यह हुआ कि कुछ लोगों ने सांपों को बाकायदा पालना शुरू कर दिया, ताकि वे अधिक से अधिक ईनाम हासिल कर सकें। जाहिर है कि सरकार की यह योजना पूरी तरह असफल होनी ही थी, और इसका पुरस्कार भी बंद कर दिया गया। यह अकेला ऐसा उदाहरण नहीं है। ऐसी ही एक घटना का जिक्र इतिहासकार माइकल वॉन ने अपनी पुस्तक द ग्रेट हनोई रैट मैसकर  में किया है।

यह बात तब की है, जब वियतनाम फ्रांस का उपनिवेश था। वहां शहर के संपन्न यूरोपीय भाग में बनाए गए नए सीवरों में चूहों ने आने-जाने के अपने रास्ते बना लिए और उनके जरिये वे शहर में कहीं भी पहुंच जाते थे। तंग आकर सरकार ने चूहों से मुक्ति पाने के लिए उनकी पूंछ लाने वालों को पुरस्कार देने की योजना बनाई। नतीजा यह हुआ कि लोग रोज सैकड़ों पूंछ लाने लगे़, फिर भी चूहों की संख्या बराबर बढ़ती जा रही थी और शहर में पूंछ-कटे चूहे भी दिखाई देने लगे थे। असल में, लोग चूहों की पूंछ काटकर उन्हें छोड़ देते थे। चूहे भले ही पूंछ-विहीन थे, पर उनकी जनन क्षमता नहीं घटी थी। सो यह अभियान भी आखिर में बंद होना ही था। क्या जकार्ता के अभियान की भी यही स्थिति होगी? लोगों का मानना है कि चूहों की संख्या में कोई कमी फिलहाल नहीं दिख रही है। इन्हें मारने के लिए गंधक गैस का इस्तेमाल किया जा रहा है और खतरा यह है कि देर-सबेर इस गैस का बुरा असर लोगों की सेहत पर दिखने लगेगा। वातावरण और लोगों की सेहत ठीक रहे, इसके लिए दूसरे प्राकृतिक उपाय अपनाने की बात भी चल रही है। उन पशु-पक्षियों को पालने की बात की जा रही है, जो चूहों को अपना भोजन बनाते हैं। हालांकि यह तरीका किस हद तक कारगर रहेगा, अभी नहीं कहा जा सकता। चूहों की गिनती उन जीवों में होती है, जो कई तरह की विपरीत स्थितियों में भी जीना सीख लेते हैं।

चूहों को मारने के लिए भी सदियों से प्रयास किए जाते रहे हैं। 1930 में न्यूयॉर्क में सरसों की गैस का प्रयोग किया गया। 1940 में कुछ ऐसी दवाएं बनाई गईं, जिनकी केवल एक खुराक खाने से चूहों के शरीर में खून रिसने लगता था। हेलीकॉप्टर से उनके लिए जहर बरसाने के प्रयोग भी हुए। साल 2011 में दक्षिण प्रशांत (साउथ पेसिफिक) क्षेत्र में हेंडरसन द्वीप पर 80 मीट्रिक टन जहर बरसाया गया, पर कुछ नहीं हुआ। शिकागो में 2010 में  प्राकृतिक तरीकों से चूहों के सफाए का प्रयास किया गया, फिर भी वहां चूहों की भरमार है। रॉबर्ट सल्लीवान की 2014 में प्रकाशित पुस्तक में मानवों के साथ चूहों के संबंध को एक कभी समाप्त न होने वाला युद्ध कहा गया है, जो मानव हमेशा से हारता आया है। कहा यह भी जाता है कि हम इस धरती पर भले ही न रहें, पर चूहे हमारे बाद भी रहेंगे। फिलहाल सच यही है कि पूरी मानवता के पास इस छोटे से प्राणी के आतंक का कोई समाधान नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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